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लगभग विलुप्त हो चुकी "सी काऊ" को मिले मददगार

मछुआरों, नेवी, कोस्ट गार्ड ने इस समुद्री जीव को बचाने के लिए बनाया समन्वय।
Nearly extinct

ड्युगोंग को  "सी काऊ" भी कहा जाता है। यह एक शाकाहारी समुद्री स्तनधारी होता है, जो आठ फ़ीट तक लंबा हो सकता है। औसतन यह 70 साल जीता है। ड्युगोंग अब "इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर" की रेड लिस्ट में आ गया है। मतलब अब इसके विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। समुद्री वैज्ञानिकों का मानना है कि 2012 के बाद, यह गुजरात के तट से विलुप्त हो गया है। लेकिन हाल में कच्छ की खाड़ी में जामनगर के पास मछुआरों को इसके शव के अवशेष मिले। बता दें डयुगोंग अब सिर्फ अंडमान निकोबार आइलैंड, मन्नर की खाड़ी, पाक जलडमरूमद्य, कच्छ की खाड़ी और लक्ष्यद्वीप में ही मिलती है।

वाइल्डलाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के वैज्ञानिक के शिवकुमार के मुताबिक़, "ड्युगोंग के जीवाश्म गुजरात के आज़ाद द्वीप में 2012 में मिले थे। इसके बाद से इसका कोई अता - पता नहीं है। इसलिए माना गया कि गुजरात से यह विलुप्त हो चुकी है। लेकिन कुछ दिन पहले एक मछुवारे को एक जीवाश्म मिला। इससे आस जगी है कि इस इलाके में अब ड्युगोंग हो सकती है।"

वाइल्डलाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया(डबल्यूआईआई) ने गुजरात, तमिलनाडु, अंडमान निकोबार द्वीप समूह के वन विभाग और इंडियन कोस्ट गार्ड, इंडियन नेवी और कुछ एनजीओ के साथ समन्वय किया था ताकि ड्युगोंग की संख्याओं का पता लगाया जा सके।  इसके लिए एक गहन सर्वे किया का रहा है। स्थानीय मछुआरे इस एक्सरसाइज़ का अहम हिस्सा हैं। इसके अलावा हवाई सर्वे होंगे, जिसमें ड्रोन और सैटेलाइट का इस्तेमाल किया जाएगा।

डबल्यूआईआई के वैज्ञानिकों का मानना है कि भारत के तट के आसपास अभी करीब 250 ड्युगोंग हो सकती हैं। आज़ाद द्वीप से कंकाल मिलने के बाद इस इलाके पर करीब से नज़र रखी जा रही है।

दो साल पहले, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले नेशनल बोर्ड ऑफ़ वाइल्ड लाइफ़ ने चार प्रजातियों को "ख़तरे युक्त प्रजातियां" घोषित किया था। बोर्ड ने इन प्रजातियों के जीवों की संख्या बढ़ाने के लिए एक रिकवरी प्लान बनाने का निर्देश दिया था। जिसके लिए कमेटी बनाई गई। इस रिकवरी प्लान के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने 100.38 करोड़ रुपये का आवंटन भी किया था।

समुद्र में प्रदूषण और मछली पकड़ना, ड्युगोंग के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। ड्युगोंग के रिहायशी इलाके (हैबिटेट) में करीब 85 फ़ीसदी की बहुत बड़ी गिरावट आई है।

ड्युगोंग को वाइल्डलाइफ़ प्रोटेक्शन एक्ट- 1972, के शेड्यूल -1 में रखा गया है। इसके तहत पूर्ण सुरक्षा मिलती है। इसमें सज़ा भी सबसे ज़्यादा है। सभी तरह के क़ानूनी प्रावधानों के बावजूद ड्युगोंग की संख्या कम होती जा रही है।

तमिलनाडु में मछुआरों ने पिछले दो साल में तीन कंकाल मिलने की सूचना दी है। शिवकुमार बताते हैं, "ड्युगोंग का शिकार करने वाले मछुआरों को  WII के स्टाफ और वन विभाग ने जागरूक किया है। अब को लोग मछली पकड़ने जाते हैं, वे ड्युगोंग के बारे में सूचना भी देते हैं। यह एक बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि एक ड्युगोंग का वजन 300 किलो तक हो सकता है। इससे करीब दो लाख रुपए मिल सकते हैं। लेकिन अब मछुआरे जैव विविधता को लेकर चिंतित हैं और इन जानवरों को नहीं मारते।" 

डबल्यूआईआई ने स्थानीय समुदायों की मदद भी की है। उनके बच्चों को छात्रवृत्ति देकर स्कूलों में उनका दाखिला करवाया है। इनमें से ज़्यादातर बच्चे नौवीं या ग्यारहवीं के बाद स्कूल छोड़ देते हैं। शिवकुमार ने बताया, "हम तमिलनाडु में पंद्रह बच्चों को पांच सौ रुपए महीने देते हैं। गुजरात और अंडमान में भी इतने ही बच्चों को छात्रवृत्ति दी जा रही है।"  आगे डेढ़ सौ छात्रवृत्ति और शुरू कि जाएंगी। इन समुदायों के बच्चों के लिए हर दो महीने में नेचर कैंप भी लगाया जाएगा।

मछुआरों को ट्रैवल गाइड के तौर पर भी प्रशिक्षित किया जा रहा है। इससे उन्हें अपने पर्यावरण और उनके साथ रहने वाले जीवों पर गर्व होता है। वे उनके संरक्षण में मदद करते हैं। 

डबल्यूआईआई अब तमिलनाडु में पाक की खाड़ी, गुजरात में ओखा और अंडमान निकोबार में हैवलॉक आइलैंड में कैंप चलाता है।

शिवकुमार का कहना है कि बोट सर्वे के दौरान अभी तक वैज्ञानिक ड्युगोंग को नहीं देख पाए हैं, लेकिन स्थानीय मछुआरों को इन्हें देखने में कामयाबी मिली है। अब कोस्ट गार्ड से भी मदद ली जा रही है, ताकि वे तटीय रेखा की निगरानी करीब से कर सकें। WII ने तमिलनाडु और गुजरात में मरीन बायोडायवर्सिटी की निगरानी के लिए इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के दो सौ अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया है।

तमिलनाडु में जहां शिकार प्रमुख चुनौती है, वहीं गुजरात में ऑयल रिफाइनरी के चलते ड्युगोंग का अस्तित्व खतरे में है। WII वैज्ञानिकों ने बताया, "ऑयल लीकेज और प्रदूषण ने ना सिर्फ ड्युगोंग को नुकसान पहुंचाया है, बल्कि उनके रिहायशी घास वाले इलाकों को भी कम कर दिया है, जिन पर ड्युगोंग जिंदा रहती हैं। अंडमान और निकोबार में टूरिस्ट ट्रैफिक और ओंगे जनजाति द्वारा शिकार किया जाना प्रमुख चुनौती है।"

कंकालों के अध्ययन से वैज्ञानिकों को जेनेटिक एनालिसिस करने में मदद मिल रही है और वे ड्युगोंग के खानपान को समझ पा रहे हैं। जेनेटिकल तौर पर ड्युगोंग दो तरह की होती हैं। एक प्राचीन और एक हाल में ऑस्ट्रेलिया में विकसित हुई। जो हाल में विकसित हुई ड्युगोंग है, उसकी संख्या नब्बे हजार है। वहीं दोनों की कुल संख्या

एक नख है। भारत पे प्राचीन ड्युगोंग पाई जाती हैं। शिवकुमार के मुताबिक जेनेटिक स्टडीज से प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाया जा सकेगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो पर्यावरण पर लिखते हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Nearly extinct ‘Sea Cows’ Find Much-Needed Allies

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