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भारत
राजनीति
‘देशप्रेम’ और ‘पराक्रम’ के झगड़े में खो न जाए नेताजी का समाजवाद
आज देश को कॉरपोरेट हिंदुत्व अपनी मुट्ठी में लेना चाहता है और नेताजी वैसा बिल्कुल नहीं चाहते थे। वे देश को अमीरों के हाथ से निकालकर सामान्य जन के हाथों में सौंपना चाहते थे और उन्हें क्रांतिकारी नेतृत्व देना चाहते थे।
अरुण कुमार त्रिपाठी
23 Jan 2021
नेताजी

आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती है और उनके निधन का 75वां साल। उनका नाम अपने आप में देशवासियों में जोश भरने के लिए काफी है। यह उनके नाम का जादू ही है कि निधन के 75 साल बाद भी देश में ऐसे लोग हैं जो यकीन करते हैं कि मिथकीय पात्र हनुमान और अश्वत्थामा की तरह नेताजी अभी भी जिंदा हैं और कभी भी प्रकट हो सकते हैं। हालांकि अस्सी के दशक के अंत में अयोध्या के गुमनामी बाबा के निधन के साथ ही तमाम लोग कहने लगे थे कि वे आखिरी व्यक्ति थे जिन पर नेताजी होने का संदेह सबसे गहरा था। उसके पहले उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में नेताजी के नाम से साधु प्रकट होते रहते थे और धन व प्रसिद्धि लूट कर गायब हो जाते थे। एक बार तो आपातकाल के दौरान कानपुर के फूलबाग मैदान में बाबा जयगुरुदेव ने अपने को नेताजी घोषित कर दिया तब भीड़ ने उन्हें जमकर दौड़ाया था। आज वह कोशिश फिर से हो रही है लेकिन उनकी देशभक्ति का चोगा पहनकर।

इस कोशिश का उद्देश्य है देश की सत्ता पर स्थायी कब्जा और जिसके लिए जरूरी है पश्चिम बंगाल के चुनाव में विजय। दुर्भाग्य से यह काम ऐसे लोग कर रहे हैं जिनका आजादी की लड़ाई में न के बराबर योगदान है और वे सोच रहे हैं कि नेताजी की जयंती को देशप्रेम बनाम पराक्रम दिवस की बहस में उलझाकर उनकी विरासत पर कब्जा कर लिया जाए और उनके सहारे पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव जीत लें। लेकिन नेताजी को हिंदुत्ववादी बनाने और बंगाली प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करने के इस प्रयास में उनके समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के विचारों की बलि चढ़ने वाली है।

सुभाष बाबू का देशप्रेम अद्वितीय था। उसमें इतनी गहराई और त्वरा थी कि उसके लिए वे न तो गांधी की तरह साधन की पवित्रतता पर विश्वास करने को तैयार थे और न ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जर्मनी जैसे नाजीवादी और उसके मित्र जापान जैसे तानाशाही वाले राष्ट्र से सहयोग लेने से परहेज करने वाले थे। वे देश की आजादी के लिए हिटलर जैसी बुराई से भी हाथ मिलाने को तैयार थे। इस कारण उनकी कठोर आलोचना हुई और लंबे समय तक वे लोकतांत्रिक और वामपंथी दायरे में अस्पृश्य की स्थिति में रहे। लेकिन सुभाष बाबू को जिसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी बताया जाता है उससे असहमत होते हुए भी उन्होंने उनके प्रति कभी सम्मान में कमी नहीं दिखाई। महात्मा गांधी के जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने और उन्हें राष्ट्रपिता कहने में वे नहीं चूकते थे। वे यह भी कहते थे कि अगर देश के बाहर वे आजाद हिंद फौज बनाकर हथियार से लड़ रहे हैं तो देश के भीतर उन्हें गांधी के नेतृत्व में अहिंसक साधनों से ही लड़ना होगा।

दूसरी ओर गांधी ने उन्हें महान देशभक्त बताते हुए कहा कि आजाद हिंद फौज की संरचना वैसी ही है जैसा भारत वे बनाना चाहते हैं। उसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख पारसी सभी धर्मों के लोग हैं। उसमें जातिवाद नहीं है और न ही स्त्रियों के साथ भेदभाव। यहां तक कि नेताजी कमांडर होते हुए भी अपने को आईएनए के किसी सैनिक से बड़ा और ज्यादा अधिकार संपन्न नहीं मानते। लेकिन ऐतिहासिक झगड़े और विवाद को अगर भूल भी जाएं और जिसे भूल जाना ही उचित है तो महत्व इस बात का है कि वे कौन सा भारत बनाना चाहते थे और उनका सपना क्या था। वही सपना जिसके बारे में गांधी जी ने कहा था कि नेताजी तब तक जिंदा रहने वाले व्यक्ति हैं जब तक उनका सपना न पूरा हो जाए।

नेताजी का वह सपना था एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष भारत का। भले ही द्वितीय विश्व युद्ध में वे सोवियत संघ जैसे साम्यवादी और अमेरिका, ब्रिटेन जैसी लोकतांत्रिक शक्तियों से लड़ने वाली ताकतों के साथ हाथ मिलाने गए लेकिन उनका समाजवादी भारत का सपना सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रांति से प्रेरित था। वे भारत में सोवियत संघ जैसी क्रांति चाहते थे लेकिन उसका भारतीय संस्करण। इसीलिए वे समाजवाद के मूल्यों की उत्पत्ति सिर्फ यूरोप में नहीं देखते थे बल्कि मानते थे कि भारत में समता और स्वतंत्रता के मूल्य रहे हैं। वे मानते थे कि समाजावादी मूल्य यूरोप की ही संपत्ति नहीं हैं बल्कि वे संपूर्ण मानवता की विरासत हैं। वे एक समाजवादी गणतंत्र का प्राचीन भारतीय रूप तलाश कर उसे इस देश की आम जनता में लोकप्रिय करना चाहते थे। यही कारण था कि एक बार स्वयं सरदार भगत सिंह जैसे मार्क्सवादी क्रांतिकारी ने उन्हें एक भावुक बंगाली बताया था और उनकी इस प्रवृत्ति पर आपत्ति जताई थी कि वे हर आधुनिक और अच्छे मूल्य को प्राचीन भारत में देखते हैं। इसीलिए भगत सिंह ने कहा था उनकी तुलना में पंडित जवाहर लाल नेहरू और ज्यादा तार्किक हैं और पंजाबी युवकों को नेहरू के साथ चलना चाहिए।

नेताजी ने 26 मई 1931 को मथुरा में उत्तर प्रदेश नौजवान भारत सभा को संबोधित करते हुए कहा, ` बोल्शेविज्म भारत के सिद्धांतों के बारे में यह कह सकता हूं कि वर्तमान में ये सिद्धांत प्रायोगिक अवस्था से गुजर रहे हैं। रूस के लोगों में केवल मार्क्स के मूल सिद्धांत से अलगाव बढ़ने लगा है बल्कि सत्ता प्राप्त करने से पूर्व लेनिन द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत से अब दूरी बढ़ने लगी है। यह अलगाव रूस की उन विशिष्ट परिस्थितियों की देन है, जिन्होंने मूल मार्क्सवाद या बोल्शेविज्म सिद्धांत में संशोधन हेतु दबाव डाला। रूस में बोल्शेविज्म द्वारा अपनाए गए तरीकों के बारे में मैं इतना कह सकता हूं कि ये भारतीय परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं हैं।’

आखिर वे क्या चाहते थे इस बारे में बहुत ज्यादा स्पष्ट न होते हुए इस संबोधन में उन्होंने उसकी जो रूपरेखा प्रस्तुत की उसका स्वरूप इस तरह है। ` मैं भारत में एक समाजवादी गणराज्य चाहता हूं। समाजवादी राज्य का वास्तविक रूप क्या होगा, इसकी व्याख्या आज करना संभव नहीं है। हम फिलहाल समाजवादी राज्य के मुख्य सिद्धांतों और अभिलाक्षणों की रूपरेखा बना सकते हैं।’

उन्होंने जो तीन बातें युवाओं के समक्ष रखी थी वे इस प्रकार हैः--- सर्वतोन्मुखी स्वतंत्रता। यानी ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति। दूसरे नंबर पर आर्थिक मुक्ति चाहते थे। इसका मतलब है प्रत्येक व्यक्ति को कार्य का अधिकार और जीवन यापन योग्य मजदूरी मिले। इसी के साथ वे धन का एक न्यायपूर्ण और समान वितरण चाहते थे और चाहते थे उत्पादन के साधनों पर राष्ट्र का नियंत्रण। उनका तीसरा लक्ष्य पूर्ण सामाजिक समानता था। नेताजी के लिए इसका तात्पर्य था कि समाज में कोई जाति नहीं होगी, कोई दलित वर्ग नहीं होंगे, प्रत्येक व्यक्ति के पास समाज में समान अधिकार होंगे और समान हैसियत होगी। हर क्षेत्र में स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार होंगे।

अपने मथुरा भाषण के 13 साल बाद नेताजी ने ज्यादा परिपक्वता प्रदर्शित करते हुए नवंबर 1944 को टोक्यो यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों से कहा, `हमारा राजनीतिक दर्शन राष्ट्रीय समाजवाद और कम्युनिज्म का संश्लेषण यानी समन्वय होगा। क्रिया (यथास्थिति) और प्रतिक्रिया (परिवर्तन की आकांक्षा) का संघर्ष दोनों के ऊंचे स्तर के समन्वय से हल किया जाना है। यही द्वंद्वात्मकता की मांग है। ........स्वतंत्रता, न्याय और समता के आधार पर पूर्वी एशिया में नई व्यवस्था स्थापित करने का मैं पूर्णतया समर्थन करता हूं।’

यह सही है कि नेताजी राष्ट्रवादी थे और उनकी क्रांति या साम्यवाद में एक प्रकार का राष्ट्रीय संवेग अनिवार्य था। उनका मानना था कि भारत में साम्यवाद अपनी जड़ें इसीलिए नहीं जमा पाया क्योंकि वह राष्ट्रीय भावना को समझ नहीं पाया। लेकिन नेताजी की मूर्तिपूजा के बहाने उन्हें हिंदूवादी और क्षेत्रीयतावादी बनाना और उनका इस्सेमाल एक विधानसभा चुनाव जीतने के लिए करना न सिर्फ उनके साथ अन्याय है बल्कि इस देश के क्रांतिकारी इतिहास के साथ भी धोखा है।

वे सोवियत संघ की तुलना में भारत की अलग स्थितियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सोवियत रूस ने श्रमिकों की समस्या को बहुत महत्व दिया है। भारतवर्ष मुख्यरूप से किसानों का देश है इसलिए यहां श्रमिक वर्ग के मुकाबले किसानों की समस्या प्रमुख है। आज जब दिल्ली को घेर कर देश भर के किसान बैठे हैं तो उनकी यह बात ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। भारतीय क्रांति कैसी होगी इसके बारे में वे काम्बे के यंगमैंस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में छात्रों के समक्ष स्पष्ट किया था। उनका कहना था, ` अब मैं भारतीय क्रांति के विभिन्न पक्ष बताऊं। हमारा उद्देश्य है---आजाद हिंदुस्तान के हरेक हिंदुस्तानी को, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, कोई भी भाषा बोलता हो, समान अधिकार मिलेंगे। हर आदमी जो हिंदुस्तानी है और हिंदुस्तान में रहता है, भोजन, कपड़े और तालीम की समान और बराबर सुविधा मिलेगी। हम एक ऐसा हिंदुस्तान चाहते हैं जिसमें ऐसी व्यवस्था रहेगी।’

नेताजी का भारत न तो बहुसंख्यकवाद का हिमायती था और न ही सिर्फ अमीर लोगों को वरीयता देने के पक्ष में था। वे देश में रहने वाली हर धर्म और जाति की जनता को लेकर एक ऐसा समाज बनाना चाहते थे जहां अमीर गरीबों का शोषण न कर सकें। इसलिए आज जो लोग कारपोरट बहुसंख्यकवाद कायम कर रहे हैं वे नेताजी के सही अनुयायी नहीं हो सकते। नेताजी कहते हैं, ` हमें (क्रांति के लिए) जनता का समर्थन चाहिए। जहां जहां मैं गया हूं वहां हमने देखा है कि जो जनता गरीब है, वही क्रांति का साथ देने आगे आती है। पीछे रहते हैं धनी करोड़पति। .....धनी डरते हैं कि नई व्यवस्था में उनकी दौलत, उनके अर्जन का क्या होगा? ….वे जानते हैं कि क्रांति हुई तो उनकी दौलत चली जाएगी। .....धनपतियों में भी कुछ ऐसे हैं जो स्वार्थी नहीं हैं और क्रांति का साथ दे सकते हैं। इसलिए स्वार्थी धनपतियों और मुट्ठी भर पतित धनहीनों को छोड़ समूचा राष्ट्र हमारी क्रांति के साथ है। हमारा उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट रहे। क्रांतिकारियों के इतिहास पढ़कर हम सबसे बढ़िया तरीका और टेक्नीक काम में लाएं जिससे जनता हमारे साथ हो।’

नेताजी ने जिस क्रांति का सपना देखा था वह पूरा नहीं हुआ लेकिन उसकी संभावना समाप्त नहीं हुई है। आज देश को कॉरपोरेट हिंदुत्व अपनी मुट्ठी में लेना चाहता है और नेताजी वैसा बिल्कुल नहीं चाहते थे। वे देश को अमीरों के हाथ से निकालकर सामान्य जन के हाथों में सौंपना चाहते थे और उन्हें क्रांतिकारी नेतृत्व देना चाहते थे। यह दुर्भाग्य है कि उन्हें कभी चमत्कार के लिए तो कभी चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। यह एक प्रकार की ठगी है इससे पहले कई साधू और बाबा जयगुरुदेव कर चुके हैं। इस देश के जागरूक नागरिकों और युवाओं को नेताजी की सच्ची विरासत पहचानते हुए उन्हें और उनके प्रिय देश को इस साजिश से बचाना होगा।     

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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