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नीतीश कुमार ज़ुबानी जंग से कुछ हासिल नहीं कर पाते,  इसलिए भाजपा से अलग होना तय था

लालू प्रसाद यादव और बिहार की सबाल्टर्न राजनीति पर लिखी किताब के लेखक कहते हैं, लालू ने कभी बीजेपी के साथ समझौता नहीं किया, लेकिन नीतीश कुमार को भी बीजेपी की सांप्रदायिक पिच सही नहीं लगती थी। 
nitish kumar
Image Courtesy: Wikimedia Commons

मंगलवार को, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य में 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद दूसरी बार अपना राजनीतिक रास्ता बदल लिया है। उनका जनता दल (यूनाइटेड) पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और अन्य विपक्षी दलों के साथ वापस आ गया है। इस घटना ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सकते में डाल दिया है और इसे विपक्ष के लिए बेहतरीन मौका माना जा रहा है। न्यूज़क्लिक ने पत्रकार, लेखक और शिक्षक नलिन वर्मा से बात की, जिन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक, गोपालगंज टु रायसीना रोड, लिखी और जिसमें उन्होने नीतीश कुमार और लालू यादव की राजनीतिक पगडंडी के बारे में लिखा है साथ ही इस बात पर भी चर्चा हुई कि आने वाले दिनों में इस घटना से क्या उम्मीद की जाए। पेश हैं टेलीफोन पर हुई बातचीत के अंश।

बुधवार को नीतीश कुमार आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने को तैयार हैं, इस बार वे राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और अन्य दलों के साथ जो 2017 से विपक्ष में हैं के साथ हैं। क्या वे और लालू यादव अपने कई मतभेदों को दूर कर पाएंगे?

लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का साथ तब से है जब वे अपनी उम्र की बीसवें दशक में थे। बीस के दशक में साथ  भूखे सोते, एक साथ संघर्ष करते हैं, जेल जाते थे, लड़ते और एक-दूसरे का ध्यान रखते थे, यहां तक कि तब भी जब वे ऊंची हस्ती बन गए थे, तब भी वह संबंध बना रहा। लालू और नीतीश की अपनी निजी केमिस्ट्री है जिसे उनके करीबी लोग भी नहीं समझ पाएंगे, यहां तक कि लालू के बेटे भी नहीं। लालू पहली बार 1977 में संसद सदस्य बने थे, जब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कई अन्य राजनीतिक नेता उनके आस-पास भी नहीं थे। उनका पूरा जीवन, उनकी जड़ें, सामंती ताकतों के खिलाफ संघर्ष में निहित हैं, और ये जड़ें बहुत गहरी हैं। नीतीश राजनीतिक रूप से सुविधाजनक व्यवस्थाएं कर सकते हैं, लेकिन दोनों एक ही संघर्ष के उत्पाद हैं। मैं लालू से तब मिला था जब मैंने अपनी किताब पर काम कर रहा था और उन्हें कभी नीतीश के प्रति कटु नहीं पाया। उन्हें नीतीश के फोन आते थे, और वे बात करते थे। वे सीधे एक दूसरे से बात करते थे, उन्हे किसी ज़रिया की जरूरत नहीं होती थी। 

लेकिन यह लालू ही हैं जिन्होंने कभी हिंदुत्ववादी ताकतों या भाजपा से समझौता नहीं किया।

जी हां, यह बिल्कुल सच है। लालू ने कभी बीजेपी, लालकृष्ण आडवाणी की बीजेपी, वाजपेयी या मोदी की भाजपा से समझौता नहीं किया। उनका भाजपा की राजनीति के प्रति गैर-सम्झौतापरस्त रवैया रहा है। नब्बे के दशक में उन्होंने आडवाणी पर जिस तरह का हमला किया, उसी तरह आज वे मोदी को भी निशाने पर लेते हैं। अमूमन लोग डर के मारे कहते हैं, 'जेल भेज देंगे- वे मुझे जेल भेज देंगे', लेकिन लालू पहले ही जेल जा चुके हैं। इसके बावजूद उन्होंने अपनी स्थिति नहीं बदली है। क्या आपको गुजरात दंगों के अपराधियों पर ज़हमत-एहसानों का ढेर याद है? कुछ को पुजा-अर्चना का पालन करने जैसी बातों के लिए जमानत मिल गई, लेकिन लालू को अपनी आधी सजा पूरी होने से पहले कभी जमानत नहीं मिली। यह ऐसा समय होता है जब कानून खुद कहता है कि लोगों को वैसे भी जमानत मिलनी चाहिए।

ठीक है, और इस नए संक्रमण की गतिशीलता क्या है?

यहां गतिशील बात यह है कि नीतीश को अभी भी बिहार में एक जन-नेता के रूप में देखा जाता है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह अपने अहंकार के चलते, जदयू नेताओं को अपनी तरफ खींच रहे थे। जदयू के 16 सांसद हैं, और कई को भाजपा के करीब माना जाता है। बेशक, यह सब समय के साथ हो रहा था, और नीतीश बहादुरी से मोर्चे पर आगे बढ़ रहे थे। लेकिन एक समय ऐसा आता है जब हम सिर्फ शब्दों के युद्ध में उलझे नहीं रह सकते। हमें एक स्टैंड लेना होता है। 

क्या आपका मतलब यह है कि जदयू खरीद-फरोख्त जैसी चीज के 'सबूत' हासिल होने के बारे में जो कह रही है, उसमें सच्चाई है?

महाराष्ट्र में जो हुआ क्या उसके बाद बीजेपी की नीयत पर शक हुआ? कैसे उन्होंने [पूर्व] मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सरकार गिराई और अब [एकनाथ] शिंदे का मामला उठा लिया है? मेरा मतलब है, यह इस बात का प्रमाण है कि विपक्षी दलों द्वारा चलाई जा रही सरकारें सुरक्षित नहीं हैं। यह रॉकेट साइंस नहीं है! मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के कमलनाथ मुख्यमंत्री थे, लेकिन भाजपा ने [कांग्रेस नेता] ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपनी तरफ मिला लिया और वहां सरकार बना ली। गोवा और पूर्वोत्तर में, हमने बहुत समान घटनाएँ देखीं हैं।

आरसीपी सिंह एक भरोसेमंद और जदयू के वरिष्ठ नेता थे जिन्होंने अचानक नीतीश और उनकी सरकार को बदनाम करना शुरू कर दिया था। क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि उनमें इतनी हिम्मत कैसे पैदा हुई? निश्चित रूप से, यह मुस्तफापुर [सिंह की जन्मस्थली] गाँव के निवासियों से नहीं आया था! आरसीपी सिंह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं लेकिन कोई जन नेता नहीं हैं। उनकी राजनीतिक पहचान नीतीश से बनी है। नहीं,वे किसी सपने पर काम नहीं कर रहे थे बल्कि एक वास्तविक खतरा पैदा कर रहे थे। हर राज्य का नेतृत्व ठाकरे या कमलनाथ नहीं करते हैं!

तेजस्वी यादव के बारे में क्या? पिछली बार जब नीतीश कुमार ने पाला बदला था, तो उन्होंने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए थे।

तेजस्वी काफी परिपक्व राजनेता बन गए हैं। 2017 में, जब विपक्षी महागठबंधन (महागठबंधन) टूट गया, तो उन्होंने नीतीश का विरोध नहीं किया था। बेशक, हमें बाद में पता चला कि नीतीश भाजपा में अपने दोस्त अरुण जेटली के और करीब आ गए थे, जो उस समय के एक प्रभावशाली मंत्री थे, जो मोदी और शाह के साथ अपने तीखे मतभेदों के बावजूद नीतीश के भाजपा में आने के सूत्रधार बने। अब नीतीश ने कहा है कि 2017 वाला कदम गलती था। 

लेकिन इसमें बिहार के लोगों के लिए क्या है? क्या नीतीश कुमार द्वारा लगातार गठजोड़ बदलने से अविश्वास पैदा नहीं होगा?

राजनीति में वे क्या कर सकते हैं और क्या नहीं, इसका अंदाजा नीतीश कुमार को है। भाजपा जदयू पर एक तरह का दबाव बनाती रही है। उदाहरण के लिए, भाजपा का बिहार नेतृत्व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन के 'उत्तर प्रदेश मॉडल' को अपनाने का संघर्ष कर रहा था। तब भाजपा नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री, तारकिशोर प्रसाद ने हाल ही में समाप्त कार्यकाल के दौरान घोषणा की कि बिहार में कश्मीर फाइल्स को कर-मुक्त किया जाएगा। नीतीश को कैसा लगा होगा? यह कोई अनुमान नहीं है बल्कि इस किस्म की घटनाओं, और कई बयानों से वे अपने ही कुछ लोगों द्वारा ठगा हुआ महसूस करते थे। जिन विचारों पर आप बचपन से पले-बढ़े हैं, वे आपको मुसलमानों के बारे में उस तरह के विचारों को स्वीकार करने की अनुमति नहीं देंगे, जिस राजनीति की कवायद भाजपा करती है। बेशक, हम उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले दिनों में बीजेपी इस तरह का दबाव बनाए रखेगी।

नीतीश कुमार की पिछली अदला-बदलियों को देखते हुए, क्या यह नहीं लगता है कि लालू ने समान विचारधारा वाले दलों के साथ राजनीतिक जुड़ाव को अधिक आसानी से स्वीकार कर लिया है?

1990 के दशक में भी अगर आप लालू के भीतर से एक राजनेता को हटा दें, तो भी वे और नीतीश बहुत करीब थे। राबड़ी देवी के सीन में आने से पहले और बच्चों के आने से पहले वे एक-दूसरे को बेहतर ढंग से जानते थे।

ठीक है, तो क्या आपको लगता है कि इस नई घटना से नीतीश कुमार का कद बढ़ेगा?

हां, नीतीश का कद बढ़ गया है। क्योंकि जब वे जुलाई की शुरुआत में अस्पताल में लालू से मिलने गए, तो इसने एक स्थायी समझ और विश्वास का संकेत दिया था जो दूसरों को आसानी से समझ में नहीं आ रहा था। सिर्फ इसलिए कि नीतीश और लालू अलग हो गए थे, इसका मतलब यह नहीं है कि नीतीश अमित शाह के करीब हो जाएंगे। दिल से नीतीश आरएसएस विरोधी हैं।

तो आपको लगता है कि उनका गठबंधन स्वाभाविक है?

हाँ, कितनी भी देर क्यों न हो! यह एक स्वाभाविक है। अगर 2009 में लालू यादव ने मोदी को बिहार में प्रचार नहीं करने दिया तो नीतीश ने भी भाजपा को राज्य में उनके विचारों का प्रसार नहीं करने दिया। 

क्या आप इसका अनुमान लगा सकते हैं कि अगर यह गठबंधन रहता है तो क्या हो सकता है?

नीतीश एक स्पष्टवादी वयोवृद्ध नेता हैं, और विपक्ष के पास एक खाली पद है। मेरे पास यह मानने का हर कारण है कि 2024 में वह लोकसभा में जाएंगे। लेकिन मैं और भी निश्चित इस बात से हूं कि बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार बीजेपी को हराएंगे। बीजेपी चाहे कितनी भी गर्म हवा में कोड़े मार ले, वह बिहार में दस सीट पार नहीं कर पाएगी। नीतीश हवा-हवाई नेता नहीं हैं; उसके पास 16 प्रतिशत वोट हैं। इस गठबंधन में राजद और वाम दल हैं, और बिहार में आधे से अधिक वोटों के साथ, यह गठबंधन अपराजेय है।

तो क्या विपक्षी दल इस घटनाक्रम से खुश हो सकते हैं?

हां, विपक्ष खुश हो सकता है। भाजपा के पास सवर्ण और शहरी व्यापारियों के वोट हैं। यही है जो अब उनके साथ है। 

क्या लालू प्रसाद यादव की कैद इस गठबंधन में आड़े आएगी?

लालू भारतीय राजनीति के इतिहास में पहले ऐसे नेता थे जिन्हें नौकरी छोड़कर जेल जाना पड़ा था। 2000 तक, किसी नेता के खिलाफ जो भी आरोप लगाए जा सकते थे, वे उनके  खिलाफ लगाए गए थे। अदालत ने उनके शासन को "जंगल राज" कहा, और राबड़ी देवी पर व्यक्तिगत रूप से हमला किया। फिर भी, 2004 में, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे - और उनकी एक मजबूत राष्ट्रीय छवि थी - राजद ने बिहार में लगभग 31 प्रतिशत वोट हासिल किए थे और भाजपा की पांच सीटें कम कर दी थी। लालू पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे, और आरोप पत्र दायर किए गए थे, फिर भी वाजपेयी की 2004 की हार में उनकी पार्टी की भूमिका थी। यहां तक कि 2009 के लोकसभा चुनाव में भी, लालू ने बिहार में शानदार जीत हासिल की थी- सभी आरोप अभी भी उनके खिलाफ थे। 2013 में, वे बिहार से संसद सदस्य थे। कानून ने लालू को चुनावी राजनीति में भाग लेने से अयोग्य घोषित कर दिया, लेकिन बिहार के लोगों ने ऐसा नहीं किया।

क्या बिहार के लोग इस बदलाव से खुश होंगे?

वर्ष 2015 में नीतीश और लालू की जीत से बिहारी खुश थे। पिछड़ा वर्ग विशेष रूप से प्रसन्न होता है जब उनकी पार्टियां चुनाव जीतती हैं। वे उनकी सफलता के लिए घरों और मंदिरों में प्रार्थना करते हैं। जब नीतीश भाजपा के साथ थे, तब सवर्ण सामंती ताकतों ने खुद को मजबूत महसूस किया था। लेकिन वह स्थिति अब उलट जाएगी। बिहारी समझते हैं कि लालू और राजद के साथ जो किया गया वह पार्टी को खत्म करने की कोशिश है। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं होने दिया। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Nitish Kumar Knew War of Words Cannot Last, Split with BJP was Inevitable

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