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सुप्रीम कोर्ट ने कैसे एक अच्छे न्यायिक पल को दर्दनाक बना दिया

अदालत ने कहा कि तीनों छात्रों के ख़िलाफ़ दायर आरोपपत्र में ऐसी कोई सामग्री नहीं है जिसके आधार पर आतंकवाद के आरोप का अनुमान लगाया जा सके।
सुप्रीम कोर्ट ने कैसे एक अच्छे न्यायिक पल को दर्दनाक बना दिया

पिछले हफ्ते, 2020 में दिल्ली में हुए दंगों में आरोपी तीन छात्रों को जमानत पर रिहा करने के आदेश को जारी करते हुए और दिल्ली उच्च न्यायालय ने जमानत के आदेशों के खिलाफ दिल्ली पुलिस की अपील पर सुनवाई करते हुए कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसलों को मिसाल नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन साथ ही, सर्वोच्च अदालत का आदेश जमानत के आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं करता है। आदेश में सुप्रीम कोर्ट के तर्क को समझाने का प्रयास करते हुए, आशीष गोयल बताते हैं कि आदेश में कानूनी योग्यता का अभाव क्यों है और यह मिसाल के सिद्धांत को कैसे प्रभावित करता है।

जस्टिस हेमंत गुप्ता और वी. रामसुब्रमण्यम की सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ ने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश में 2020 के दिल्ली दंगों के मामले में तीन छात्रों को मिली जमानत को मिसाल नहीं माना जाना चाहिए यानि अन्य मामलों की सुनवाई पर इसका कोई असर नहीं होगा। इसका अनिवार्य रूप से मतलब यह है कि जो लोग इसी तरह के आरोपों में जेल में बंद हैं, वे जमानत के लिए इन आदेशों को मिसाल के रूप में इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने तीनों छात्रों को दी गई जमानत के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया है, लेकिन वास्तव में देखा जाए तो आदेशों पर रोक लगाए बिना, उसने इसके व्यावहारिक उद्देश्यों और तर्कसंगत आदेशों पर रोक लगा दी है।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश सही में चिंता का विषय है क्योंकि इसका न केवल कोई कानूनी आधार है, बल्कि यह न्यायिक निश्चितता और कानून के शासन के सिद्धांत पर भी गहरा प्रहार करता है।

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मिसाल के सिद्धांत को खारिज करता है, और कानूनी योग्यता में विफल है

मिसाल के सिद्धांत का उद्देश्य दो स्पष्ट लक्ष्यों को हासिल करना है। सबसे पहले तो यह स्थिरता, निश्चितता और पूर्वानुमान प्रदान करता है कि कैसे अतीत में प्रतिपादित कानूनी सिद्धांतों का इस्तेमाल कैसे समान और भौतिक तथ्यों वाले मामलों में भविष्य की बेंच द्वारा पालन किया जाएगा। यहां विचार यह है कि निश्चितता कानून के शासन की पहचान है, और कानून के सिद्धांत को केस दर केस या एक न्यायाधीश से दूसरे न्यायाधीश के तहत नहीं बदला जाना चाहिए।

दूसरे, यह न्यायिक प्रणाली में विश्वास की एक निश्चित डिग्री का निर्माण करता है क्योंकि वादियों को यह पता होता है कि वह खास न्यायाधीश पहले के फैसले से बंधा है और इसलिए वह केस को अपनी इच्छा या कल्पना के अनुसार नहीं बल्कि स्थापित कानूनी सिद्धांतों के आधार पर तय करेगा।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत, प्रत्येक उच्च न्यायालय का उन सभी न्यायालयों और अधिकरणों की ज़िम्मेदारी होगी, जिनके संबंध में वह क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है।

133, 83 और 72 पृष्ठों के अपने तीन फैसलों में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने तीन छात्रों को जमानत पर रिहा करने के मामले में तर्कसंगत आदेश पारित किए हैं। इनमें, उच्च न्यायालय ने सामान्य आपराधिक मामलों और आतंकवाद के मामलों के बीच अंतर किया है, और कहा है कि दिल्ली पुलिस ने दोनों को कैसे आपस में उलझाने की कोशिश की है।

अदालत ने कहा कि तीनों छात्रों के खिलाफ दायर आरोपपत्र में ऐसी कोई सामग्री नहीं है जिसके आधार पर आतंकवाद के आरोप को साबित किया जा सके या उसका अनुमान लगाया जा सके। और क्योंकि आतंकवाद का कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, अदालत ने भारतीय दंड संहिता के तहत दर्ज़ मामलों पर जमानत के सिद्धांतों को लागू किया और तीनों छात्रों को रिहा करने का आदेश दे दिया। एक संवैधानिक न्यायालय से और क्या अपेक्षा की जाती है?

सुप्रीम कोर्ट ने हर बार अपने फैसलों में कहा है कि जमानत आदर्श है और जेल अपवाद है। अर्नब गोस्वामी के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी इंसान को एक दिन की स्वतंत्रता से वंचित करना भी ज्यादती है और इसलिए अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे नागरिकों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित करने के निर्णयों के खिलाफ उनकी रक्षा की पहली पंक्ति बने रहें।

लेकिन जब दिल्ली पुलिस ने हाई कोर्ट के आदेशों के खिलाफ अपील दायर की, तो सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ ने जमानत देने वाले आदेशों को "आश्चर्यजनक" पाया क्योंकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने जमानत मामले में 288 पृष्ठ का निर्णय दिया था।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने जमानत रद्द करने का आदेश नहीं दिया, लेकिन कहा कि आदेशों पर पुनर्विचार की जरूरत है क्योंकि मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है और इसका "पूरे भारत में प्रभाव" पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले पर रोक न लगाते हुए कहा कि अन्य मामलों में ज़मानती आदेश का कोई पूर्वगामी महत्व नहीं होगा। अवकाश पीठ ने कहा, "यदि आदेश में तय किए गए उदाहरण का कोई महत्व नहीं है, तो यह काफी अच्छा है।"

स्पष्ट रूप से, सुप्रीम कोर्ट ने आदेशों को स्थगन के योग्य होने के लिए आश्चर्यजनक नहीं पाया है। हमारी कानूनी प्रणाली में ऐसा कुछ भी नहीं है जहां निचली अदालत के आदेश पर रोक लगाई जा सकती है क्योंकि उच्च न्यायालय को यह "आश्चर्यजनक" लगता है। न ही किसी आदेश पर रोक लगाई जा सकती है क्योंकि उस आदेश की तहरीर बहुत लंबी है। संवैधानिक न्यायालयों द्वारा तय किए गए अधिकांश जीवन और स्वतंत्रता के मामले "महत्वपूर्ण" हैं और इनका "अखिल भारतीय प्रभाव" होता हैं; ये ऐसे आधार भी नहीं हैं जिन पर किसी आदेश पर रोक लगाई जा सकती है।

मोटे तौर पर, कोई भी उच्च न्यायालय केवल उसके अधीनस्थ काम करने वाले न्यायालय के आदेश पर रोक लगा सकता है जहां आदेश पूर्व दृष्टया विकृत है, जहां अधिकार क्षेत्र के सवाल पर हमला किया गया है, जहां आदेश किसी भी कानून की उपेक्षा करता है, या जहां आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं करता है, जैसे कि ऐसे मामले जिनके निष्कर्ष में तर्क या कारणों की कमी हैं।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए किस कानून या बाध्यकारी मिसाल की अवहेलना की है? क्या दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने निष्कर्षों के लिए उन्नत कारण नहीं बताए हैं?

आदेश में तार्किक असंगति

आदेशों पर रोक न लगाने का मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने उनमें कोई दोष नहीं पाया है। और इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने जमानत पर छात्रों की रिहाई में हस्तक्षेप नहीं किया।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने परोक्ष रूप से वही किया जो वह सीधे तौर पर नहीं कर सकता था। हालांकि उसने आदेश पर रोक नहीं लगाई, लेकिन वह आदेशों के आगामी प्रभाव या उसकी मिसाल तक सीमित राहा। इसका उद्देश्य निचली अदालतों और उच्च न्यायालय की अन्य पीठों को समान आरोपों में जेल में बंद अन्य लोगों को जमानत देने के लिए एक मिसाल के तौर पर आदेशों का पालन करने से रोकना है।

भारतीय संविधान इसे कोई आधार प्रदान नहीं करता है। सुप्रीम कोर्ट की प्रक्रिया और अभ्यास के नियमों में भी इसका कोई आधार नहीं मिलता है। इसी तरह के तथ्यों के आधार पर आँय केसों को भी तय किया जाना चाहिए, अन्यथा न्याय प्रणाली में कोई निश्चितता नहीं होगी, और कानून का शासन ढह जाएगा। यह जीवन और स्वतंत्रता के मामलों में सबसे महत्वपूर्ण है (जैसे तत्काल मामला) क्योंकि इस तरह के मामलों में संविधान के सबसे प्रिय कुछ सिद्धांत दांव पर लगे होते हैं।

तत्काल दायर मामले में, हमारे पास एक आदेश हैं और माने तो फिर भी कोई आदेश नहीं हैं। यदि जमानत रद्द नहीं की जाती है, तो आदेश कानून में अच्छे हैं और उनका पालन आगे भी किया जाना चाहिए। यदि आदेश पर रोक नहीं लगाई जाती है, तो आदेश कानून में अच्छा है और उसका पालन किया जाना चाहिए। ऐसे में बिना मिसाल बनने वाले आदेशों का सवाल ही कहाँ उठता है?

यदि सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा महसूस करता है कि आदेश इतना दोषपूर्ण हैं तो उन्हें इसे एक मिसाल के रूप में नहीं मानना चाहिए, तो फिर अदालत ने हाई कोर्ट के फैंसले को दरकिनार करते हुए और विस्तृत कारण बताते हुए आदेश क्यों नहीं पारित किया?

आमतौर पर, जिस न्यायालय के समक्ष कोई मामला निर्णय के लिए आता है, उसे किसी भी दिए गए कानून और तथ्यों के आधार पर तौलना होता है, और देखना होता है कि पहले के फैसले को एक मिसाल माना जाना चाहिए या नहीं। हमारे पास ऐसी स्थिति नहीं हो सकती है जहां सर्वोच्च न्यायालय यह आदेश जारी करे कि अधीनस्थ न्यायालयों को किन आदेशों को मिसाल मानना चाहिए और किन आदेशों को मिसाल नहीं मानना चाहिए। क्या यही सुप्रीम कोर्ट का काम है?

सुप्रीम कोर्ट या तो फैसले को बरकरार रख सकता है, उस पर रोक लगा सकता है या उसे रद्द कर सकता है। हमारे पास ऐसी कोई नहीं स्थिति हो सकती है जहां एक आदेश पारित करने वाला न्यायाधीश भविष्य के न्यायाधीशों को बताता है कि उसके आदेश को मिसाल के रूप में माना जाए या नहीं। नियम के रूप में देखें तो उच्च न्यायालयों द्वारा पारित सभी आदेश मिसाल का काम करते हैं, जब तक कि वे एक या अधिक अपवादों के अंतर्गत नहीं आते।

अप्रैल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय के मिसाल के मूल्य को अस्वीकार करने की प्रथा

वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट की एक डिवीजन बेंच ने रमेश भवन राठौड़ बनाम विशनभाई हीराभाई मकवाना मकवाना (कोली) और अन्य, एलएल 2021 एससी 221 के मामले में अपने हालिया फैसले में आदेश पारित करने की इस असामान्य प्रथा पर नाराजगी जताई थी। और चेतावनी दी थी कि इसे मिसाल न माना जाए। न्यायमूर्ति डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सही ढंग से बताया कि आपराधिक मामलों में मिसाल का सिद्धान्त नहीं होने का विचार गलत है और इसे केवल तभी लागू किया जा सकता है, जब दीवानी मामलों में, विशेषकर उन मामलों में जहां आदेश वादियों की सहमति के आधार पर तैयार किए जाते हैं।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने जो कहा वह इस प्रकार है:

“जमानत की मंजूरी पर इस प्रकार की टिपणी … को समानता के आधार पर प्राथमिकी में आरोपी किसी अन्य व्यक्ति के लिए एक मिसाल नहीं माना जाएगा, यह टिपणी न्यायिक रूप से उचित तर्क का गठन नहीं करटी है। क्या जमानत देने का आदेश समानता के आधार पर बनने वाली एक मिसाल है, यह भविष्य के निर्णय का मामला है तब जब जमानत के लिए कोई आरोपी आवेदन करता है और पिछले आदेश की समानता का आधार पर पेश करता है। [यदि] उसके बाद ऐसे मामले में समता का दावा किया जाता है, तो यह उस अदालत को तय करना है जिसके समक्ष समता का दावा किया जाता है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि समता के कारणों पर जमानत देने का मामला बनता है या नहीं।

दिल्ली उच्च न्यायालय का है आदेश एक अच्छा न्यायिक क्षण है क्योंकि उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बहुत आवश्यक सबक पेश किए हैं, और गैरकानूनी (गतिविधियां) रोकथाम अधिनियम, 1967 के संदर्भ में भारत में जमानत के आसपास के कानूनी न्यायशास्त्र को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है। अफसोस, सर्वोच्च न्यायालय की टिपणी ने इस बेहतरीन न्यायिक पल को कुछ ही समय में एक दर्दनाक पल में बदल दिया है।

(आशीष गोयल एक वकील और शिक्षाविद हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

“Not to be Treated as Precedent”: How the Indian Supreme Court Turned a Fine Judicial Moment Into a Painful One

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