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अडानी की गोड्डा कोयला आपूर्ति के लिए विस्थापन का सामना करते ओडिशा के आदिवासी

उत्तरी ओडिशा के सुंदरगढ़ ज़िले में 700 से ज़्यादा आदिवासी परिवारों को उस रेलवे लाइन के निर्माण के चलते विस्थापन का सामना करना पड़ रहा है, जो झारखंड के गोड्डा में अडानी समूह के निर्माणाधीन बिजली संयंत्र में इस्तेमाल के लिए धामरा बंदरगाह से कोयले के परिवहन की सुविधा प्रदान करेगा।
अडानी

बेंगलुरु: 3 सितंबर को दोपहर के कुछ देर बाद दक्षिण पूर्व रेलवे के एक मौजूदा लाइन के साथ दूसरा रेलवे ट्रैक बिछाने का काम शुरू करने वाले श्रमिकों के साथ पुलिस की एक बड़ी टुकड़ी ओडिशा के सुंदरगढ़ ज़िले के बिसरा-बिरकेरा तालुका में राउरकेला के स्टील टाउनशिप के उत्तर-पश्चिम में लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बरहाबंस गांव पहुंची। रेलवे का विस्तार चल रहा है,क्योंकि यह मार्ग बहुत जल्द ही पड़ोसी राज्य,झारखंड के गोड्डा में अडानी समूह द्वारा निर्माणाधीन बिजली संयंत्र में राज्य के धामरा बंदरगाह से कोयला ले जाने वाली गाड़ियों के साथ बहुत व्यस्त हो जायेगा।

अडानी समूह उस कारमाइकल कोयला खदान का भी मालिक है, जहां से ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड के गैलील बेसिन में कोयला निकाला जायेगा; दो बंदरगाहों-ऑस्ट्रेलिया स्थित एबट प्वाइंट और ओडिशा स्थित धामरा बंदरगाह के ज़रिये इसे भेजा जायेगा। यह ऑस्ट्रेलिया में खदान से बंदरगाह तक कोयले को ले जाने के लिए एक रेलवे लिंक का भी निर्माण कर रहा है। गोड्डा पावर प्लांट में बनने वाली बिजली बांग्लादेश को निर्यात की जायेगी।

बरहाबंस में रेलकर्मी और पुलिस के साथ ग्रामीण आदिवासी भिड़ गये थे। सरकार रेलवे ट्रैक की दूसरी लाइन बिछाने के लिए 700 आदिवासी परिवारों को विस्थापित करने की मांग कर रही है। बरहाबंस में विस्थापित आदिवासियों के संगठन का नेतृत्व आंचलिक सुरक्षा समिति के अध्यक्ष,एक्टिविस्ट,डेम ओरम कर रहे हैं, जिस समय स्थानीय निवासियों ने निर्माण कार्य को आगे बढ़ने से रोक दिया था,वे उसी बीच अपने फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर लाइव प्रसारण कर रहे थे। कुछ ही घंटों के भीतर सुंदरगढ़ के ज़िला मजिस्ट्रेट घटना स्थल पर पहुंचे,तनाव को दूर किया और इसके बाद कार्यकर्ता और पुलिस,दोनों ही मौक़े से चले गये।

एक हफ़्ते बाद,10 सितंबर को वस्तुतः वही क्रम एक बार फिर से दोहराया गया। पुलिस सुरक्षा बल के साथ पहुंचे रेलकर्मी स्थानीय लोगों से भिड़ गये और ज़िलाधिकारी के हस्तक्षेप के बाद वे वहां से चले गये। एक बार फिर ओराम ने अपने फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर इसका लाइव प्रसारण किया।

बरहाबंस के आदिवासी निवासियों की मांग है कि उन्हें किसी भी काम को शुरू करने से पहले मुआवज़ा दिया जाये। ओडिशा सरकार के 2008 के फ़ैसले, ओडिशा उच्च न्यायालय और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के आदेशों के मुताबिक़ उन्हें 7 एकड़ ज़मीन और रेलवे में नौकरी दिया जाना है।

जिस भूमि क्षेत्र में अडानी संयंत्र की आपूर्ति के लिए नयी रेलवे लाइन बनाने की मांग कर रहा है, वह पहले राउरकेला स्टील प्लांट के पास थी, जिसने 1950 के दशक में इसे अधिग्रहित कर लिया था, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के इस इस्पात निर्माता संयंत्र ने कभी इस पर कब्ज़ा नहीं किया था। उस अधिग्रहण के बाद ज़मीन पर खेती कर रहे आदिवासी कहते हैं कि वे न सिर्फ़ विभिन्न सरकारी सर्कुलरों और आदेशों के तहत मुआवज़े के हक़दार हैं, बल्कि उनके इस अधिकार को ज़िला अधिकारियों ने हाल ही में फ़रवरी 2020 तक मान्यता दे दी थी, और उन्हें भरोसा दिया गया था कि उनकी चिंताओं को दूर करने से पहले कोई भी नया निर्माण कार्य नहीं होगा।

हालांकि,ओरम ने न्यूज़क्लिक को बताया कि इस समय अधिकारी निर्माण शुरू करने की जल्दी में दिखते हैं। ओराम ने कहा कि निर्माण कार्य में बाधा डालने के आरोप में स्थानीय पुलिस द्वारा उनके और कई अन्य लोगों के खिलाफ़ प्राथमिकी दर्ज करायी गयी है, और उन्हें इस बात का डर है कि वे जल्द ही आदिवासी निवासियों के इस संघर्ष की कमर तोड़ने के लिए उन्हें गिरफ़्तार तक कर सकते हैं।

एक उलझा हुआ और जटिल इतिहास

कई सालों से इस विषय का बारीक़ी से अध्ययन करने वाले दिल्ली स्थित एक ग़ैर-सरकारी संगठन,एनवायरॉनिक्स ट्रस्ट के प्रबंध ट्रस्टी,राममूर्ति श्रीधर ने न्यूज़क्लिक को बताया, "आज़ादी के बाद के शुरुआती दशकों में राउरकेला स्टील प्लांट और मंदिरा डैम के लिए इस क्षेत्र में तक़रीबन 40,000 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया गया था, जिसमें से महज़ 11,000 एकड़ का ही इस्तेमाल किया जा सका था।" वे आगे कहते हैं,"दशकों से इस ज़मीन के साथ जो कुछ हुआ है,वह यह कि राउरकेला स्टील प्लांट ने रेलवे सहित कई अन्य एजेंसियों को ये ज़मीनें सौंप दी है।" इसी ज़मीन को लेकर यह विवाद चल रहा है।

राममूर्ति श्रीधर बताते हैं,"इन ज़मीनों के सम्बन्ध में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने कहा है कि ये सभी ज़मीन, ख़ास तौर पर अनुसूचित क्षेत्रों में इस्तेमाल नहीं की गयी ज़मीन को आदिवासी समुदाय को वापस दे दिया जाना चाहिए।" वे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "2013 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत भी उन अधिग्रहित भूमि,जिसे पांच साल तक इस्तेमाल नहीं किया गया है, उन्हें मूल भूमि धारकों को वापस करना होगा।"

उन्होंने कहा, "यहां मामला यह है कि सरकार कोई भी आंकड़ा या मूल दस्तावेज़ नहीं दिखा पा रही है कि आख़िर किस ज़मीन का अधिग्रहण किया गया है।" उन्होंने बताया, "हालांकि वे अभी भी निर्माण कार्य कराने और लोगों को विस्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं”।

इस ट्रस्ट ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा, "पिछले एक पखवाड़े से रेलवे उन्हें पुलिस कार्रवाई की धमकी देने की निंदनीय गतिविधि का सहारा ले रहा है।" श्रीधर ने बताया, "इसे लेकर जिस तरह से हड़बड़ी दिख रही है,उससे लगता है कि यह अडानी के गोड्डा संयंत्र के लिए कोयले की ढुलाई के लिए लाइन है।"

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में कार्यवाही

डेम ओरम ने अगस्त 2017 को सुंदरगढ़ ज़िले में रेलवे द्वारा दावा की गयी भूमि पर आदिवासी निवासियों के अधिकारों का मुद्दा उठाते हुए नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग से संपर्क किया। ख़ासकर उस ज़मीन को लेकर सवाल उठाया, जिस पर विवाद है और जिसे रेलवे के बोडामुंडा मार्शल यार्ड परियोजना के लिए आवंटित तो किया गया था, लेकिन रेलवे द्वारा उस पर कब्ज़ा नहीं लिया गया था और परियोजना के लिए जितनी ज़मीन की ज़रूरत थी,उससे ये अतिरिक्त ज़मीन साबित हुई थी।

अपनी याचिका में ओरम ने इस बात का ज़िक़्र किया है कि जनवरी 2006 में विस्थापित समुदायों के प्रतिनिधियों, ओडिशा राज्य सरकार, राउरकेला स्टील प्लांट और दक्षिण-पूर्वी रेलवे के बीच एक समझौता हुआ था, जिसमें परियोजना में इस्तेमाल में नहीं लायी गयी की ज़रूरत से ज़्यादा बची ज़मीन को स्थानीय समुदाय को वापस करना था, और सरकार को इस स्थानांतरण के तौर-तरीक़ों पर काम करने के लिए एक समिति का गठन करना था। इस याचिका में ख़ास तौर पर कहा गया है कि बोडामुंडा मार्शल यार्ड परियोजना के चलते विस्थापित हुए लोगों को इस समझौते के तहत राहत पाने के हक़दार के रूप में सूचीबद्ध किया गया था।

हालांकि, बाद में, राजस्व एवं आपदा प्रबंधन मंत्री ने 25 जुलाई, 2006 और 28 मार्च, 2007 की आयोजित बैठकों में उल्लेख किया था कि जो ज़मीनें विस्थापित समुदायों से अधिग्रहित की गयी थीं,उन्हें इस्तेमाल नहीं किये जाने की स्थिति में वापस करने का कोई क़ानूनी प्रावधान ही नहीं है, और इस सम्बन्ध में एक नया क़ानून पास करने की ज़रूरत होगी।

इसके बाद, 26 नवंबर, 2008 को राज्य सरकार के राजस्व और आपदा प्रबंधन विभाग ने परिपत्र संख्या AG-40/2005/49777 / CSR एवं DM जारी किया, जिसमें राज्य भर के जिला कलेक्टरों को आदेश दिया गया कि विकास परियोजनाओं से विस्थापित आदिवासियों को 5 एकड़ सिंचित और 2 एकड़ असिंचित ज़मीन का वितरण सुनिश्चित किया जाये।

3 अप्रैल, 2018 को अनुसूचित जनजाति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष,अनुसुइया उइके के सामने ओरम की उस याचिका पर हुई सुनवाई की रिपोर्ट के मुताबिक़ इन फ़ैसलों को सुंदरगढ़ के ज़िला कलेक्टर द्वारा स्वीकार कर लिया गया था। हालांकि, उन्होंने कहा कि इस्तेमाल नहीं की गयी ज़मीन की वापसी पर "कोई फ़ैसला नहीं लिया गया था", और "अधिग्रहित ज़मीन को वापस करने के लिए कोई क़ानूनी प्रावधान मौजूद नहीं है।" नवंबर 2008 के सर्कुलर में उस बैठक के विवरण नोट पर कलेक्टर ने इसे "पुराने आदेश" के रूप में दिखाया था, जिस पर आयोग ने उसे स्पष्ट करने के लिए दबाव डाला कि क्या यह परिपत्र अभी भी चालू है, जिसे कलेक्टर ने नोट किया था।

इसके बाद, इस बैठक के विवरण के मुताबिक़ आयोग के अध्यक्ष ने ज़िला कलेक्टर को निर्देश दिया था कि इस मुद्दे को हल किया जाना चाहिए, और जब तक कि ओडिशा सरकार द्वारा इस परिपत्र और पहले के फ़ैसले को लागू नहीं किया जाता है और विस्थापित आदिवासियों को प्रतिपूरक भूमि खंड को आवंटित नहीं कर दिया जाता है, तब तक कोई विस्थापन नहीं होना चाहिए। ख़ास तौर पर बैठक के ब्योरे वाले इस नोट में अध्यक्ष राघव चंद्रा ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि जहां तक संभव हो,वही ज़मीन,जो इस समय विस्थापित आदिवासी परिवारों के कब्ज़े में है, उन्हें आवंटित किया जाना चाहिए।

ओरम की इस याचिका में जो एक दूसरा मुद्दा उठाया गया है,वह रेलवे में विस्थापित आदिवासियों के रोज़गार से सम्बन्धित है।

ओरम की याचिका के मुताबिक़, जनवरी 2006 के समझौते में ही रेलवे के प्रतिनिधियों ने यह सुनिश्चित करने को लेकर सहमति व्यक्त कर दी थी कि विस्थापितों को रेलवे की तरफ़ से नौकरी दी जायेगी। इसके बाद, रेलवे भर्ती बोर्ड ने पत्र आर R(NG)(ii)/2002/RC-5/4 दिनांक 19 अप्रैल, 2006 के ज़रिये उस फ़ैसले को मंज़ूरी दे दी थी और प्रक्रिया शुरू करने के लिए आदेश भी दे दिया था।

बाद में एक अन्य पत्र E(EN)-11/2010/RC-51 में 16 जुलाई, 2010 को बोर्ड ने अपने पहले पत्र को फिर से दोहराया था,और आदेश दिया था कि 2010 के बाद विस्थापित हुए लोगों को रेलवे में रोज़गार दिया जाये। 2013 में कृष्ण चंद्र नायक बनाम रेलवे बोर्ड (W.P. (C), संख्या 5102 2013) मामले में ओडिशा उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि रेलवे बोर्ड के 2010 के आदेश को पिछली घटनाओं या स्थितियों पर विचार के साथ लागू किया जाये, जिसमें 2010 से पहले विस्थापित हुए लोगों को भी शामिल किया जाये।

अनुसूचित जनजाति आयोग की सुनवाई बैठक के ब्योरे में इस बात का ज़िक़्र है कि इन सभी प्रशासनिक और अदालती आदेशों के बावजूद, विस्थापित आदिवासियों के साथ किये गये ये वादे कभी लागू नहीं किये गये।

इस सुनवाई के आधार पर आयोग ने 5 जुलाई, 2018 को निम्नलिखित आदेश दिया:

1. विस्थापितों को 5 एकड़ सिंचित और 2 एकड़ असिंचित ज़मीन का वितरण सुनिश्चित करने के लिए ओडिशा सरकार के नवंबर 2008 के सर्कुलर को लागू किया जाये।

2. अधिग्रहित ज़मीन पर बसे आदिवासी को तब तक वहां से बेदखल नहीं किया जाये, जब तक कि उन्हें क़ानून के तहत समुचित पुनर्वास नहीं मिल जाता है।

3. रेलवे भर्ती बोर्ड के अप्रैल 2006 और जुलाई 2010 के पत्रों को लागू किया जाये और एक कार्रवाई रिपोर्ट आयोग के सामने रखी जाये।

आयोग के आदेश में इस बात का भी ज़िक़्र है कि पांच अधिकारियों को सुनवाई के लिए बुलाया जाये।ये पांच अधिकारी हैं–रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष, ओडिशा सरकार के मुख्य सचिव, ओडिशा सरकार में राजस्व विभाग के प्रमुख सचिव, दक्षिण पूर्व रेलवे के महाप्रबंधक और सुंदरगढ़ ज़िले के ज़िला कलेक्टर– इसकी सिफ़ारिशों पर एक महीने के भीतर एक कार्रवाई रिपोर्ट प्रस्तुत करना था।

आयोग की तरफ़ से दूसरा आदेश

लेकिन,अधिकारियों की तरफ़ से कोई भी रिपोर्ट नहीं प्रस्तुत की गयी। उसे देखते हुए आयोग ने सभी पांच अधिकारियों को एक बार फिर से याचिकाकर्ता,ओरम की मौजूदगी में बुलाया और 19 नवंबर, 2019 को सुनवाई हुई ।

उस सुनवाई में ओरम ने आयोग को सूचित किया कि इस बीच आयोग के पहले के आदेश के मुताबिक़ कोई भी भूमि आवंटित नहीं की गयी है, स्थानीय प्रशासन और पुलिस के सहयोग से रेलवे नये निर्माण कार्यों का संचालन करने की मांग कर रहा है,जिससे आयोग के आदेश द्वारा संरक्षित आदिवासी परिवारों को विस्थापित होना पड़ेगा। इसके अलावा, उन्होंने आयोग को यह भी सूचित किया कि रेलवे अभी तक विस्थापित समुदायों को कोई नौकरी नहीं दे पाया है, और सरकार विभिन्न निजी बिल्डरों और सार्वजनिक कंपनियों को उन बिना इस्तेमाल वाली अधिग्रहित भूमि को आवंटित करना जारी रखे हुई है, जिन्हें विस्थापितों को वापस लौटाया जाना चाहिए था।

सुनवाई को लेकर हुई बैठक के ब्योरे से पता चलता है कि रेलवे, ज़िला प्रशासन और राज्य सरकार,इन सभी ने ओराम के आरोपों को अलग दिशा में मोड़ने का प्रयास किया और ज़िम्मेदारी से बचने की कोशिश की। सुंदरगढ़ के ज़िला कलेक्टर ने दावा किया कि रेलवे उन्हीं क्षेत्रों में निर्माण कार्य कर रहा है,जहां पहले से ही कोई विवाद नहीं है, और प्रशासन जहां स्थानीय समुदायों के ख़िलाफ़ पुलिस बल के इस्तेमाल में नहीं लगा हुआ था। लेकिन ओराम ने जब इस दावे को चुनौती देते हुए कहा कि प्रशासन ने बड़ी संख्या में पुलिस बलों को तैनात कर रखा है, जिससे स्थानीय समुदायों में भय का माहौल व्याप्त है, तब कलेक्टर ने जवाब में कहा कि रेलवे "ज़रूरी विकास कार्यों" को अंजाम दे रहा है।”

दूसरी तरफ़,राज्य सरकार की ओर से आयोग को बताया गया कि ऐसा कोई क़ानूनी प्रावधान नहीं है,जो विस्थापितों को अधिग्रहित ज़मीन की वापसी की अनुमति देता हो, और कई दशकों पहले हुए इस अधिग्रहण के समय विस्थापितों को मुआवज़ा दे दिया गया था। इसके अलावा, इस बात पर ज़ोर देकर कहा गया कि सरकार को विकास कार्यों के लिए किसी भी पक्ष को भूमि आवंटित करने का हक़ है।

रेलवे में नौकरियों के मुद्दे पर आयोग को बताया गया था कि 1998 में सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले के मुताबिक़ रेलवे के लिए अखिल भारतीय आधार पर भर्ती को आयोजित करना ज़रूरी था, जिसके चलते स्थानीय लोगों की नौकरियों को सुनिश्चित कर पाना मुमकिन नहीं हो पाया था।

सभी पक्षों को सुनने के बाद अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष,डॉ.नंद कुमार साय ने निम्नलिखित आदेश दिये:

1. आयोग के 3 अप्रैल 2018 के आदेश को लागू किया जाये और विस्थापितों के बीच ज़मीन को वितरित किया जाये। यह काम दो महीने की अवधि के भीतर संपन्न होना चाहिए।

2. ज़िला प्रशासन और रेलवे को इस क्षेत्र में रहने वाले विस्थापित आदिवासियों के साथ बैठक किये बिना कोई भी निर्माण कार्य नहीं करना चाहिए। अत्यधिक पुलिस बल की तैनाती से बचना चाहिए।

3. रेलवे में विस्थापितों के रोज़गार को सुनिश्चित करने के लिए एक आम सहमति बनायी जाये।

सभी पक्षों की बैठक

इन घटनाक्रमों के बाद,14 फ़रवरी, 2020 को राउरकेला में अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट, अबोली सुनील नरवने के कार्यालय में एक बैठक का आयोजन किया गया, जिसमें रेलवे के प्रतिनिधि, ज़िले के पुलिस अधीक्षक और ओरम मौजूद थे।

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उस बैठक में रेलवे के प्रतिनिधि ने कहा कि स्थानीय समुदाय के विरोध के चलते काम आगे नहीं बढ़ सका है, जबकि ओरम का कहना था कि कई अनुरोधों के बावजूद ज़िला प्रशासन ने मूल गजट अधिसूचना को प्रस्तुत किये जाने में अपनी असमर्थता जताते हुए कहा है कि उस ज़मीन का अधिग्रहण रेलवे के लिए ही किया गया था।  

ओरम ने इस बात की मांग की कि अनुसूचित जनजाति आयोग के आदेश को लागू किया जाना चाहिए, और जैसा कि आदेश दिया गया था, विस्थापितों को प्रतिपूरक भूमि-खंड आवंटित किया जाय और रेलवे में नौकरियां दी जाये ।

अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट की बैठक की कार्यवाही में कहा गया कि "विस्तृत चर्चा के बाद, यह फ़ैसला लिया गया है कि रेलवे अधिकारी अपने उच्चतर अधिकारियों को रोज़गार के इस मुद्दे को लेकर सूचित करेंगे और एक महीने के भीतर फ़ैसला लेंगे ... और अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट की बैठक की कार्यवाही में कहा गया है कि "विस्तृत चर्चा के बाद, यह फ़ैसला लिया गया था कि रेलवे अधिकारी उच्च अधिकारियों को रोजगार के मुद्दे के बारे में बतायेंगे और एक महीने के भीतर फ़ैसला लेंगे... जिनकी भूमि अधिग्रहित की गयी थी,उन्हें भूमि के आवंटन के मुद्दे पर विचार करके राजस्व एवं आपदा प्रबंधन विभाग को सुंदरगढ़ के कलेक्टर के ज़रिये स्थानांतरित किया जायेगा”।  

"यह भी तय किया गया था कि रोज़गार के प्रावधान पर रेलवे अधिकारियों के फ़ैसले मिल जाने के बाद एक और बैठक बुलाने” की ये कार्यवाहियां जारी रहेंगी।

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आश्वासन की अनदेखी

ओरम ने न्यूज़क्लिक को फ़ोन पर बताया कि अब प्रशासन की तरफ़ से फ़रवरी 2020 की बैठक में समुदाय को दिये गये सभी आश्वासनों का उल्लंघन किया जा रहा है।

वे कहते हैं,"उस बैठक में विस्थापितों के प्रतिनिधित्व को सुनने के बाद अधिकारियों ने हमें आश्वासन दिया था कि महज़ मौजूदा संरचनाओं का मरम्मत कार्य ही किया जायेगा और किसी भी नये निर्माण कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जायेगा। लेकिन,अब हर दूसरे दिन हमें अधिकारियों द्वारा परेशान किया जा रहा है।"

उन्होंने कहा,"अगर वे अनुसूचित जनजाति आयोग के आदेशों का पालन नहीं करने जा रहे हैं, तो उन्हें इसे लिखित रूप में आयोग के सामने रखना चाहिए, और हमें आयोग के सामने एक बार फिर से सुनवाई करनी चाहिए।" वे आगे कहते हैं, “उन्हें आयोग से संपर्क करने दें और राहत लेने दें। अजीब बात है कि न तो वे आयोग के आदेशों का पालन करना चाहते हैं और न ही वे यह स्वीकार करना चाहते हैं कि वे आयोग के आदेशों का उल्लंघन कर रहे हैं, और साथ ही ऊपर से वे बल प्रयोग के ज़रिये काम शुरू करने की कोशिश भी कर रहे हैं। "

यह बताते हुए कि सरकार सम्बन्धि ज़मीन के अपने वैध अधिग्रहण को साबित करने वाले मूल दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने में असमर्थ रही है, उन्होंने कहा, “2018 से हम मांग करते रहे हैं कि राज्य सरकार उस ज़मीन के सटीक क्षेत्र को दर्शाने वाले अधिसूचना और दस्तावेज़ों को सामने रखे,जिसका अधिग्रहण किया गया था और अधिग्रहण के लिए प्रक्रिया का पालन किया गया था, लेकिन उन्होंने किसी भी तरह के दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने से इनकार कर दिया है। अगर वे इस बात को साबित नहीं कर सकते हैं कि वह अधिग्रहण क़ानूनी रूप से किया गया था, तब तो फिर पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठ जाता है। अगर,आप दस्तावेज़ों को सामने नहीं रख रहे हैं, तो इससे तो यही पता चलता है कि छह दशक पहले अधिग्रहण क़ानूनी प्रक्रियाओं के मुताबिक़ नहीं किया गया था, अन्यथा निश्चित रूप से कुछ दस्तावेज़ तो होंगे ही न, जिन्हें राज्य सरकार सामने रख सकती है ? "

उन्होंने आगे बताया, “जब राज्य सरकार ने रेलवे के लिए ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया था, तब तो इसका मतलब यह हुआ कि ज़मीन के मालिकों के साथ किसी लिज़ या ट्रांसफ़र डीड पर हस्ताक्षर किये बिना ही ये समझौते कर लिये गये थे। जब किसी ज़मीन को सरकार अधिग्रहित करती है, या सरकार को कोई ज़मीन हस्तांतरित की जाती है, तो समझौते के तौर पर कुछ दस्तावेज़ों को प्रस्तुत तो करना ही पड़ता है न ? यह भला कैसे मुमकिन है कि राज्य सरकार के पास ऐसे कोई दस्तावेज़ ही नहीं हों ? सरकार के पास इस बात का रिकॉर्ड तो होना ही चाहिए कि कितनी ज़मीन का अधिग्रहण किया गया, रेलवे की ज़रूरत क्या थी, कितनी ज़मीन का इस्तेमाल हुआ है,आदि। वे अपना रिकॉर्ड दिखाने से इन्कार कैसे कर सकते हैं ? अगर, राज्य सरकार यह दावा कर सकती है कि उसने बिना किसी दस्तावेज़ के "समझौतों" के आधार पर ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया था, तब तो साफ़ तौर पर ऐसी प्रक्रिया ही अवैध है।"

ग़ौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी के एक अनुभवी नेता, जुएल ओराम, जो कुछ समय पहले तक जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री थे, इस क्षेत्र से संसद के निर्वाचित सदस्य भी हैं, लेकिन डेम ओरम के मुताबिक़ जुएल ओराम ने इस मुद्दे को उठाने में किसी तरह की कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। वह कहते हैं, “वह समुद्र में विष्णु की तरह लेटा है; जब से वह सांसद बने हैं, उन्हें हमारे मुद्दों से कोई सरोकार नहीं रहा है। अगर,उन्हें अपने मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने में दिलचस्पी नहीं है, तो बेहतर होगा कि वह इस्तीफ़ा दे दे !”

यह सब कहते हुए उन्हें डर है कि पुलिस जल्द ही उन्हें और विरोध प्रदर्शन में सक्रिय कई अन्य लोगों को गिरफ़्तार कर सकती है। ओराम कहते हैं,“इसके बाद जो कुछ भी होगा, उसके लिए अधिकारी ज़िम्मेदार होंगे। आख़िर उल्लंघन किये जाने की भी कोई सीमा होगी,और कितने उल्लंघन बर्दाश्त किये जा सकते हैं। अधिकारी अपने ही बयानों और राज्य सरकार के आदेश का उल्लंघन कर रहे हैं। हम आदिवासियों के साथ जो कुछ हो रहा है, उस पर देश का ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं।”

न्यूज़क्लिक,सुंदरगढ़ के एसपी,ज़िला प्रशासन, दक्षिण पूर्व रेलवे, और स्थानीय सांसद,जुएल ओराम की टिप्पणी को लेकर उनके कार्यालय पहुंच गया है।इन टिप्पणियों में जो कुछ भी मिलेगा,उन तथ्यों के साथ इस लेख को अपडेट किया जायेगा।

लेखक बेंगलुरु स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

In Odisha, Adivasis Face Displacement for Adani’s Godda Coal Supply

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