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'वन नेशन—वन इलेक्शन' यानी लोक बनाम तंत्र

भाजपा इसे एक प्रशासनिक मसले के तौर पर देख रही है। जबकि ये लोकतंत्र की नाभिनाल से जुड़ा केंद्रीय मसला है।
one nation one election
प्रतीकात्मक तस्वीर।

पूरे देश को 'वन नेशन—वन इलेक्शन' की बहस में झोंक दिया गया है। चूंकि सरकार ने 18-22 सिंतबर को संसद का विशेष-सत्र बुलाया है, तो इस बारे में तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं। लेकिन सरकार स्थिति को स्पष्ट नहीं कर रही है, न ही वन नेशन वन इलेक्शन के बारे में और न ही खुले सत्र के बारे में। एक अजीब सी गोपनीयता चल रही है।

इस बारे में आप भी कन्फ्यूज होंगे और आपके भी मन में कई सवाल उठ रहे होंगे। क्या है वन नेशन—वन इलेक्शन (एक राष्ट्र—एक चुनाव)? इससे देश के लोकतंत्र पर और आप पर क्या असर पड़ेगा? इसके पक्ष में सरकार जो तर्क दे रही है, क्या उनमें कोई दम है? आइये, पड़ताल करते हैं।

क्या है वन नेशन—वन इलेक्शन?

सबसे पहली बात तो ये है कि इसे 'वन नेशन—वन इलेक्शन' कहना ही नहीं चाहिए। क्योंकि इससे ऐसे इशारे जाते हैं कि शायद देश में बस एक ही तरह के चुनाव होने की बात हो रही है। जबकि ये सच नहीं है। तो फिर सरकार से लेकर गोदी मीडिया तक इसी नाम का प्रचार क्यों कर रहे हैं? क्या धीरे-धीरे देश की जनता को मानसिक तौर पर प्रेजिडेंशियल इलेक्शन के लिए तैयार किया जा रहा है? आपको बता दें कि किसी संसदीय दस्तावेज़ और सरकारी रिपोर्ट आदि में इस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। हर जगह इसे “साइमलटेनियस पोलिंग” या  “साइमलटेनियस वोटिंग” कहा गया है। यानी एक साथ चुनाव।

सरकार ने स्थिति स्पष्ट नहीं की है लेकिन अनुमान है कि देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने पर विचार हो रहा है। पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया है जो इस पर विचार कर रही है।

वन नेशन—वन इलेक्शन: सिस्टम बनाम डेमोक्रेसी

भारत ने 1950 में संविधान को अंगीकृत किया और उसके बाद पहले चुनाव हुए। गौरतलब है कि देश के ये पहले चुनाव एक साथ कराए गए थे। 1951 से लेकर 1967 तक इसी पैटर्न पर चुनाव होते रहे। यानी वन नेशन, वन इलेक्शन के पैटर्न पर। लेकिन जैसे-जैसे देश के लोकतंत्र ने विस्तार लिया और फलने लगा तो ये आइडिया फेल हो गया।1967 में देश की कुछ विधानसभाओं को भंग कर दिया गया और चुनावों का ये साइकिल टूट गया। उसके बाद भी कई बार विधानसभाओं और लोकसभा में स्थायी सरकारें नहीं बन पाई और चुनाव का ये साइकिल लगभग पूरी तरह बिखर गया।

हमारे लोकतंत्र और चुनाव का अब तक का इतिहास ये बताता है कि वन नेशन, वन इलेक्शन का ये पैटर्न सस्टेनेबल नहीं है। सबसे चिंताजनक बात ये है कि भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे एक आदर्श व्यवस्था के तौर पर पेश कर रहे हैं और लोकतंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव को बिल्कुल अनदेखा कर रहे हैं। भाजपा इसे एक प्रशासनिक मसले के तौर पर देख रही है। जबकि ये लोकतंत्र की नाभिनाल से जुड़ा केंद्रीय मसला है। लोकतंत्र में चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है। ये लोकतंत्र का केंद्र होते हैं, क्योंकि चुनाव में हम लोकतंत्र को अपनी आंखों के सामने घटित होते हुए देखते हैं। इसे मात्र प्रशासनिक समस्या की तरह देखना बिल्कुल गलत है।

हमें ये सोचना होगा कि हमारे लिए लोकतंत्र महत्वपूर्ण है या सिस्टम? भाजपा और गोदी मीडिया चुनाव कराने के सिस्टम को चुनाव से भी बड़ा करके देख रहे हैं और पेश कर रहे हैं।

पिछले 75 साल में विकसित होते हुए देश में डेमोक्रेसी ने अपनी एक लय ली है। क्या इसे सिस्टम की बेड़ियों में बांधना चाहिये और इसकी स्वाभाविक गति को डिक्टेट करना चाहिए? हमें अपनी डेमोक्रेसी के हिसाब से सिस्टम बनाना चाहिए या फिर एक सिस्टम बनाकर डेमोक्रेसी को ठोक-पीट कर उसमें फिट करना चाहिए?

वन नेशन—वन इलेक्शन और चुनावी ख़र्च

एक बहुत बड़ा दावा किया जा रहा है कि अगर ये लागू होता है तो चुनाव पर होने वाले सरकारी खर्च में भारी कमी आएगी। सबसे पहले देखते हैं कि चुनाव पर कितना खर्च होता है?

सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 60,000 करोड़ रुपया खर्च हुआ था। जिसमें चुनाव आयोग का कुल खर्च 10,000 करोड़ रुपये था और बाकी खर्च राजनीतिक पार्टियों ने किया था। इस चुनाव में सबसे ज्यादा खर्च भारतीय जनता पार्टी ने किया था।

नीति आयोग की एक रिपोर्ट है जिसे विवेक देबराय और किशोर देसाई ने तैयार किया था। ये वन नेशन, वन इलेक्शन के बारे में ही है। उसके अनुसार इलेक्शन कमीशन का ये दावा है कि अगर ये लागू होता है तो वो देश में लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय चुनाव, तीनों चुनावों को 4500 करोड़ रुपये में संपन्न करा सकता है। यानी स्पष्ट है कि अगर चुनाव आयोग की मानें तो खर्च में काफी कमी आएगी। लेकिन क्या सिर्फ कमी ही आएगी या कुछ खर्च बढ़ेगा भी?

नीति आयोग की रिपोर्ट के ही अनुसार चुनाव आयोग का कहना है कि अगर देश में एक साथ चुनाव कराए जाते हैं तो लगभग दोगुनी इवीएम और वीवी पैट मशीनें खरीदने पड़ेंगी। जिनपर लगभग 9284.15 करोड़ खर्च आएगा। इसके अलावा इन मशीनों के स्टोरिंग और रख-रखाव पर अतिरिक्त खर्च आएगा। इन मशीनों को सिर्फ पंद्रह साल ही इस्तेमाल किया जा सकता है और उसके बाद इनको नष्ट करना होता है। इस पर भी अलग से खर्च होगा और ये खर्च हर पंद्रह साल में होगा।

लेकिन अगर इस खर्च को भी जोड़ लें तो भी चुनाव आयोग के दावे के अनुसार लगता है कि खर्च में कमी आएगी। लेकिन कितनी कमी आएगी? स्थिति स्पष्ट नहीं है। यहां पर ये भी सोचना चाहिए कि क्या लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए होने वाले खर्च को प्राथमिकता पर नहीं रखना चाहिए? क्या चुनाव ही एकमात्र ऐसा मद है जिसपर फिजूलखर्ची हो रही है? देश में बाकी सब जगह सब प्रोजेक्ट पर सहीं ढंग से पैसा खर्च हो रहा है?

सवाल तो ये भी है कि जिस देश में एक मूर्ति बनाने के लिए 3,000 करोड़ रुपये खर्च कर दिया जाता है, क्या वो देश लोकतंत्र को सुचारू तौर पर चलाने के लिए होने वाले इस खर्च को वहन करने की स्थिति में नहीं है?ऐसा बिल्कुल नहीं है।

सरकार इसके अलावा भी कई तर्क दे रही है कि देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। विकास कार्य प्रभावित होते हैं क्योंकि किसी न किसी प्रांत में मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लगा होता है। सरकारी कर्मचारियों की चुनाव में ड्यूटी लगती है, जिससे उनके नियमित विभागीय कार्य प्रभावित होते हैं। लेकिन इन तर्कों में कोई दम नहीं है। सच्चाई ये है कि इससे राजनीतिक पार्टियों में जवाबदेही में कमी आएगी और स्थानीय मुद्दे व स्थानीय पार्टियां हाशिये पर चली जाएंगी। ये लोकतंत्र को विस्तार देने की बजाय उसे केंद्रीकृत कर देगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रेनर हैं। आप सरकारी योजनाओं से संबंधित दावों और वायरल संदेशों की पड़ताल भी करते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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