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एक अन्याय से दूसरा अन्याय दूर नहीं किया जा सकता

जो लोग इस कथित त्वरित 'न्याय' पर खुश हो रहे हैं क्या वे अपने आरोपी विधायक, सांसद और कथित संतों के लिए भी इसी इंसाफ़ की मांग करेंगे। क्या वे अपने लिए भी ऐसे ही मानदंड स्थापित करना चाहेंगे कि आरोप लगते ही उन्हें भी तुरंत फांसी चढ़ा दिया जाए या गोली मार दी जाए!
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Image Courtesy: NDTV

अजीब इत्तेफ़ाक़ है। आज ही के दिन संविधान बनाने वाले बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का देहांत हुआ। आज ही के दिन बार बार संविधान तोड़ा जा रहा है। क्या ये अनजाने में है या जानबूझकर! आज ही दिन 1992 में दिन के उजाले में एक चुनी हुई सरकार ने संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वस्त करा दी। और आज के ही दिन कानून और न्याय सभी को धता बताते हुए एनकाउंटर के नाम पर चार आरोपियों को तेलंगाना पुलिस ने मार गिराया। इस तरह आज के दिन एक बार फिर देश में न्याय, कानून और संविधान के ऊपर बहुसंख्यकवाद और जनभावना को तरजीह दी गई।

सन् 92 की बात है कि एक सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिए गए अपने ही शपथपत्र को इस संदर्भ में फाड़ दिया था कि विवादित स्थल पर यथास्थिति कायम रहेगी और फिर चुनाव के विज्ञापनों ने बड़ी बेशर्मी से ऐलान किया कि "जो कहा, वो किया"। 

यह वही भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी जो आज एक बार फिर यूपी और दिल्ली की कुर्सी पर काबिज़ है। उस समय उसके नुमांइदे के बतौर यूपी की गद्दी पर कल्याण सिंह बैठे थे, जिन्हें एक दिन की सज़ा भी मिली और उसके बाद भी वे राज्यपाल जैसे उच्च संवैधानिक पद पर विराजमान हुए। और अब उसके प्रतिनिधि के तौर पर यूपी में योगी आदित्यनाथ हैं, जिनके राज में भी नियम, कानून की धज्जियां रोज़ उड़ रही हैं। इसी पार्टी के नुमांइदे बतौर दिल्ली की गद्दी पर नरेंद्र मोदी बैठे हैं, जिनके नेतृत्व में सरकार आज संविधान की भावना के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) से लेकर नागरिकता संशोधन बिल (CAB) की तरफ़ बढ़ रही है। जिसमें इस देश के एक बड़े वर्ग मुसलमानों को निशाना बनाने का मंसूबा छिपा है। 

आज जनता हैदराबाद के आरोपियों के एनकाउंटर पर खुश है। सोशल मीडिया पर एक मैसेज मिला कि " अगर ये एनकाउंटर है तो पुलिस को दो सलाम और अगर ये फेक एनकाउंटर है तो पुलिस को सौ सलाम"। यह स्थिति क्यों आ रही है? हमें इस पर विचार करना होगा। 

इसे पढ़ें : क्या है तेलंगाना एनकाउंटर की गुत्थी और पुलिस कमिश्नर सज्जनार का इतिहास! 

क्यों आज हर कोई कानून को अपने हाथ में लेकर 'तुरंत न्याय' देने को लालायित है। क्यों जनता का विश्वास आम पुलिस वालों से उठ गया है। क्यों सिंघम, दबंग और सिंबा जैसे फिल्मी पुलिस वाले लोगों को पसंद आ रहे हैं। क्या हमारा सिस्टम फेल हो गया है? शायद ये सच है। वाकई हमारी पुलिसिया जांच और अदालती प्रक्रिया इतनी लंबी और खर्चीली है कि एक आम आदमी थक जाता है, लेकिन उसे न्याय नहीं मिलता।  
फिर भी अदालत एक बड़ी उम्मीद है। हालांकि अदालत पर भी उंगली उठी हैं। शीर्ष अदालत तक ने अफज़ल गुरु केस में कलेक्टिव कॉन्शस यानी सामूहिक भावना या जनभावना की बात कही थी और अभी अयोध्या केस में भी तथ्य और सुबूतों पर आस्था को तरजीह देने की बात उठ रही है। 

न्याय और कानून का ही तकाज़ा था कि हमने 26/11 के आरोपी कसाब को भी बचाव और सुनवाई के पूरा मौका देते हुए पूरी अदालती कार्यवाही के बाद फांसी पर चढ़ाया, लेकिन अफ़सोस आज हम मध्य युग में आ गए हैं जहाँ बिना सुनवाई बिना सफाई के मौके पर इंसाफ़ किया जाने लगा। 

जो लोग इस कथित त्वरित 'न्याय' पर खुश हो रहे हैं क्या वे अपने आरोपी विधायक, सांसद और कथित संतों के लिए भी इसी इंसाफ़ की मांग करेंगे। क्या वे अपने लिए भी ऐसे ही मानदंड स्थापित करना चाहेंगे कि आरोप लगते ही उन्हें भी तुरंत फांसी चढ़ा दिया जाए या गोली मार दी जाए!

शायद नहीं, अपने या अपनों के लिए कोई ऐसा 'त्वरित न्याय' नहीं चाहेगा। लेकिन अफसोस आज 'दूसरों' के लिए ऐसा न्याय चाहने वाले बड़ी संख्या में हो गए हैं, सड़क से लेकर संसद तक। क्या किया जाए...जब हम दंगों को 'क्रिया की प्रतिक्रिया' कहने वालों को सत्ता सौंप देते हैं, जब क़ब्र से लाश निकालकर बलात्कार करने का आह्वान करने वालों को चुन लेते हैं। जब हमारे मंत्री मॉब लिंचिंग करने वालों का फूल-माला पहनाकार सम्मान करने लगते हैं। 

आपको मालूम है कि हमारी संसद में बलात्कार समेत गंभीर आरोपों के कितने आरोपी हैं। और ये ग्राफ साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है। आप  Association for Democratic Reforms (ADR) का ये ग्राफ देखकर अंदाज़ा लगा सकते हैं कि स्थिति कितनी भयावह है। 

आप दूसरा आंकड़ा देखिए। देखिए हमारी सत्तारूढ़ पार्टी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) समेत अन्य पार्टियों से कितने गंभीर श्रेणी के अपराधों के आरोपी संसद पहुंच हैं। 

विधानसभाओं का भी यही हाल है। तभी तो उन्नाव का विधायक बलात्कार का आरोपी होने के बाद जेल में ऐश से रहता है और बाहर पीड़िता की चाची और मौसी एक संदिग्ध सड़क हादसे में मारी जाती हैं और पीड़िता गंभीर रूप से घायल होकर अस्पताल पहुंच जाती है। पीड़ित परिवार इसे हत्या कहता है, लेकिन कुछ नहीं होता। एक पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री चिन्मयानंद पीड़िता को ही जेल पहुंचा देता है और खुद अस्पताल में भर्ती हो जाता है। 

अब किसे दोष दीजिएगा? इन्हें टिकट देने वाली पार्टी को, या इन्हें वोट देने वाली जनता को यानी खुद को। बेशक दोनों को। अब बात कीजिए मौके पर न्याय की। फांसी की, लिंचिंग की, फर्जी एनकाउंटर की। इसलिए मैं कहता हूं कि हमारा गुस्सा बहुत सलेक्टिव है। कभी-कभार ही बाहर आता है!

इसे पढ़ें : नज़रिया : बलात्कार महिला की नहीं पुरुष की समस्या है  

इसी सिलसिले में समाज के एक दूसरे हिस्से की बात की जाए...जिसे बड़ा सम्मान, मर्तबा हासिल है। वो है हमारा साधु-संत समाज। क्या आसाराम, राम रहीम, नित्यानंद, रामपाल और ऐसे ही न जाने कितने कथित संत बलात्कार और हत्या के आरोपों में जेलों में हैं, या फरार हैं। यौन शोषण का आरोपी नित्यानंद तो न केवल देश से फरार हो गया है, बल्कि उसने लैटिन अमेरिकी देश इक्वाडोर से एक द्वीप खरीदकर 'कैलासा' नाम से अपना एक नया देश बना लिया है। अपना "हिन्दूराष्ट्र"। 

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इसके साथ ही आप एनसीआरबी का एक और डेटा चेक कर लीजिए, कि बलात्कार या यौन उत्पीड़न के मामलों में कितने प्रतिशत परिचित और अपने ही परिवार जन शामिल होते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की ओर से अक्टूबर, 2019 को जारी किए गए आंकड़ों में बताया गया है कि साल 2017 में भारत में 32,559 बलात्कार के मामले रिपोर्ट हुए और इनमें 93.1% मामलों में आरोपी, पीड़ित के परिचित या परिवारजनों में से हैं। 

इसे पढ़िए : हैदराबाद एनकाउंटरः #हमारेनामपरहत्यानहीं  

इसलिए ऐसे मामलों में गुस्सा कीजिए, ज़रूर कीजिए लेकिन जोश में होश कायम रखिए और सोचिए कि क्या एक अन्याय से दूसरा अन्याय दूर किया जा सकता? एक बलात्कार, दूसरे बलात्कार का बदला हो सकता? एक हत्या की वजह से दूसरी हत्या जायज ठहराई जा सकती?  इसलिए इंसाफ़ मांगिए बदला नहीं। 

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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