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सही क़दमों के जरिये ही ऑक्सीजन संकट से पार पाया जा सकता है

इस लेख में हम जारी संकट के विभिन्न आयाम देखेंगे और पड़ताल करेंगे कि इसका हल कैसे निकाला जा सकता है।
सही क़दमों के जरिये ही ऑक्सीजन संकट से पार पाया जा सकता है
Image courtesy : Times of India

यद्यपि सरकारें, कॉरपोरेट्स और नागरिक समाज युद्ध स्तर पर लग गए हैं, ऑक्सीजन संकट जारी है। इस लेख में हम जारी संकट के विभिन्न आयाम देखेंगे और पड़ताल करेंगे कि इसका हल कैसे निकाला जा सकता है।

क्यों पैदा हुआ ऑक्सीजन संकट और कितने समय तक चलेगा?

सबसे पहले हम यह समझें कि ऑक्सीजन का संकट उत्पादन संकट नहीं बल्कि वितरण का संकट है। ऑल इंडिया इंडस्ट्रियल गैसेस मैनुफैक्चरर्स ऐसोसिएशन के अनुसार कोरोना की दूसरी लहर के बाद भी देश में लिक्वड मेडिकल ऑक्सीजन की मांग करीब 8500 मीट्रिक टन प्रतिदिन है, जबकि कुल उत्पादन करीब 9000 मीट्रिक टन प्रतिदिन है।

तरल ऑक्सीजन का वितरण केवल क्रायोजेनिक टैंकरों के माध्यम से किया जा सकता है (यानी इनका तापमान -97 डिग्री सेल्सियस होता है) ‘सेकेंड वेव’ से पूर्व, पूरे देश में 1,200 क्रायोजेनिक टैंकर थे, और इनकी संख्या शहर के अस्पतालों और सुदूर के कस्बों तक ऑक्सीजन पहुंचाने के लिए पर्याप्त थी। पर जब सेकेंड वेव आई, लाख से कम कोविड केस से बढ़कर हम 4 लाख से अधिक केस तक पहुंच गए। कस्बों से लेकर गांव तक संक्रमण फैल गया। ऑक्सीजन का प्रयोग कर रहे स्वास्थ्य संस्थाओं और होम आइसोलेशन में उपचार कर रहे व्यक्तियों की संख्या 4 गुना बढ़ गई। भारत को अब 5000 क्रायोजेनिक टैंकरों की जरूरत है, पर पिछले साल में इनकी संख्या केवल 400 बढ़ाई जा सकी। 1600 टैंकर जरूरत का एक-तिहाई हिस्से से भी कम है।

विशेषज्ञ जब बता रहे हैं कि तीसरी लहर भी आएगी और केस तेजी से बढ़ेंगे, ऑक्सीजन की मांग भी बढ़ेगी। वितरण के पॉइंट भी बढ़ेंगे। लिक्विड ऑक्सीजन को पहले छोटे शहरों के ऑक्सीजन प्लांट्स ले जाया जाता है। वहां उन्हें गैस में परिवर्तित कर सिलिंडरों में भरा जाता है, जहां से स्वास्थ्य-सेवा संस्थाओं और व्यक्तियों को इस्तेमाल हेतु मिलता है। ऐसे ऑक्सीजन प्लांट्स की संख्या में व्यापक वृद्धि की जरूरत है।

रोड से टैंकर ढुलाई करने में देर भी लगती है और लॉरियों की संख्या काफी कम है। भारतीय रेल ने इस कमी को पूरा करने के लिए ऑक्सीजन एक्सप्रेस की शुरुआत की है। पहली ऑक्सीजन एक्सप्रेस 22 अप्रैल 2021 को विशाखापट्नम से चली थी, और 9 मई 2021 तक उसने 4200 मीट्रिक टन लिक्विड ऑक्सीजन का वितरण किया। 268 लिक्विड ऑक्सीजन टैंकर 68 ऑक्सीजन एक्सप्रेस रेल गाड़ियों के माध्यम से पहुंचाए गए। भले ही मात्रा कम लगती हो, इस सेवा से भारी मदद मिली है क्योंकि रोड से वितरण में औसत 72 घंटे लगते थे और रेल से केवल 30 घंटे। अब भारतीय रेल ऑक्सीजन एक्सप्रेस गाड़ियों की संख्या बढ़कर वितरण का संकट खत्म कर सकती है। दूसरी बात कि प्राइवेट वितरक बढ़ती मांग के मद्देनज़र टैंकर के दाम को मनमाने ढंग से बढ़ा सकते हैं, रेल सेवा में कालाबाज़ारी संभव नहीं है।

अधिक क्रायोजेनिक टैंकर निर्मित करना वित्तीय बोझ नहीं बनेगा। टाटा मोटर्स और अशोक लेलैंड जैसी कंपनियां चेसिस 6-8 लाख से शुरू करकें अधिक तक में बेचती हैं। तो उसपर क्रायोजेनिक टैंकर निर्मित करने के मायने होगा 35-40 लाख रुपये लगाना। मतलब 5000 करोड़ रुपये में 10,000 नए टैंकर निर्मित किये जा सकते हैं। पर हज़ारों टैंकर निर्मित करना कुछ समय की बात नहीं होगी; इसमें काफी समय लगेगा।  भारत 1 साल में केवल 400 टैंकर बढ़ा सका, जिनमें से अधिकतर सऊदी अरेबिया, यूएई और इंडोनीशिया से एयरलिफ्ट किये गये। इसलिए क्रायोजेनिक टैंकर संकट जल्दी हल होने वाला नहीं है, और यदि युद्ध स्तर पर आयात न किया गया जो जरूरत पूरा करने के लिए 2-3 साल लग जाएंगे।

इसके अलावा ऑक्सीजन सिलिंडरों की किल्लत भी है। ऑक्सीजन निर्माण तो बढ़ाया जा सकता है, पर सिलिंडर निर्माण में समय लगेगा। क्योंकि ऑक्सीजन अत्यधिक ज्वलनशील और विस्फोटक पदार्थ होता है, उसे केवल भारी लोहे के सिंलिंडरों में, न कि दस्ते या प्लास्टिक सिलिंडरों में वितरित किया जा सकता है। वर्तमान समय में देश की सिंलिंडर निर्मित करने की क्षमता 1 लाख प्रतिमाह है। 42 देशों ने भारत को एक लाख से अधिक सिलिंडर दिये हैं। पर जिस रफ्तार से कोविड केस बढ़ रहे हैं, भारत को कई गुना अधिक सिंलिंडरों की जरूरत है। इस आपात्कालीन डिमांड को पूरा करने के लिए आयात हो रहा है। कुछ लोगों ने हास्यास्पद किस्म के सुझाव दिये कि इंडस्ट्रियल या एलपीजी सिलिंडर का प्रयोग किया जाए, पर इनमें मीथेन व अन्य अशु़द्धियों के अवशेष होंगे, जो जानलेवा होंगे।

तात्कालिक रूप से सरकार ने ऑक्सीजन निर्माताओं पर ऑक्सीजन के औद्योगिक इस्तेमाल के लिए प्रतिबंध लगा दिया और अब मेडिकल प्रयोग के लिए ऑक्सीजन प्राथमिकता बन गई है। इन निर्माताओं को ऑक्सीजन की शुद्धता की गारंटी भी करनी पड़ेगी ताकि उसका मेडिकल इस्तेमाल हो सके। निश्चित रूप से इसके कारण सप्लाई बढ़ी। सरकार चीन से 20,000 खाली सिलिंडर भी आयातित कर रही है, पर सिलिंडर संकट तभी हल हो सकता है जब आयात को 20 गुना बढ़ा दिया जाए। क्या सरकार इस स्तर पर सोचने को तक तैयार है। कैश-अभाव झेल रही सरकार अधिक व्यय से बचना चाहती है, तो वह इस संकट को बनाए रखना चाहती है।

कालाबाज़ारी बहुत बड़ी समस्या। शुरुआत में जो सिलिंडर 1500 रुपये का बिकता था, कोविड-19 संकट के बाद उत्तर प्रदेश में 8000 रुपये, और दिल्ली में जिस किस्म का संकट है, एक सिलिंडर 20,000 तक का बिका है। सिलंडर के अलावा ऑक्सीजन को निश्चित मात्रा में रोगी के फेफड़े में पहुंचाने के लिए एक रेगुलेटर की जरूरत होती है। 1000 रुपये से कम का यह उपकरण अब 5000 रुपये तक में बिक रहा है। और, अब तो वह भी नहीं मिल रहा है।

ऑक्सीजन संकट कॉरपोरेट्स के लिए अवसर बन गया है

जामनगर और अन्य फैसिलिटीज़ में रिलायंस प्रतिदिन 1000 मीट्रिक टन मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन बना रहा है, जो भारत के कुल उत्पादन का 11 प्रतिशत है। मुकेश अंबानी भी ऑक्सीजन निर्माण को बढ़ाकर देश के सबसे बड़े ऑक्सीजन निर्माता बनने का सपना देखते हैं। अडानी ग्रुप ने 48 क्रायोजेनिक ऑक्सीजन टैंकर हासिल किये हैं और वे इनका प्रयोग कर ऑक्सीजन बेच रहे हैं। पेटीएम दिल्ली में 1 करोड़ रुपये प्रति प्लांट के खर्च पर 6 ऑक्सीजन प्लांट लगाने वाला है। यदि सरकार 10,000 करोड़ आवंटित करे तो 10,000 नए प्लांट लगाए जा सकते हैं। केवल प्राइवेट कॉरपोरेट ही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयां और डीआरडीओ जैसी सरकारी एजेंसियां व राज्य सरकारें तक ऑक्सीजन प्लांट लगाने जा रही हैं। दिल्ली सरकार 18 संपूर्ण ऑक्सीजन प्लांट फ्रास से आयातित कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी प्रमुख अस्पतालों और स्वास्थ्य शिक्षा संस्थानों को अपने ऑक्सीजन प्लांट लगाने का निर्देश दिया है। यह भी अच्छी बात है कि कॉरपोरेट्स भी ऑक्सीजन प्लांट लगा रहे हैं। पर सरकार को ऑक्सीजन-संबंधित उपकरणों का दाम उसी तरह फिक्स कर देना होगा जैसे टेस्ट किट्स और दवाओं के लिए किया गया था। कॉरपोरट घराने साधारण लाभ तो कमा ही लेंगे पर कॉरपोरेट लूट को रोकने के लिए कदम उठाए जाने चाहिये।

अन्य ऑक्सीजन सप्लाई उपकरणों का अभाव

ऑक्सीजन सिलिंडरों के अलावा ऑक्सीजन देने के लिए अन्य उपकरणों का प्रयोग भी किया जाता है, जैसे वेंटिलेटर और बायपैप मशीन। इसके अलावा ऑक्सीजन कॉन्सेंट्रेटरों का प्रयोग भी होता है।

वर्तमान समय में भारत के पास 40,000 वेंटिलेटर हैं और यदि हालात बहुत बिगड़ते हैं, करीब 80 से 100 गुना अधिक वेंटिलेटरों की आवश्यकता होगी क्योंकि प्रत्येक रोगी को 21 दिन के लिए वेंटिलेटर की जरूरत होती है। जब 4 लाख से अधिक केस प्रतिदिन के हिसाब से रोगी बढ़ रहे हों, हम अनुमान लगा सकते हैं कि स्थिति क्या होगी। भारत में एक वेंटिलेटर निर्मित करने की कीमत 5-7 लाख रुपये होगी और आयातित वेंटिलेटर का 11-18 लाख रुपये पड़ेगा। चेन्नई जैसे शहरों में किराए पर वेंटिलेटर लें तो 3500-4000 रुपये प्रतिदिन का खर्च आएगा। इसके मायने हैं कि एक कोविड रोगी के लिए कुल किराया 1 लाख होगा। गरीबों के लिए तो इतना खर्च करना संभव ही नहीं है। यदि सरकार अपने खर्च पर वेंटिलेटर लेकर 100-200 रुपये के सब्सिडाइज़्ड रेट पर रोगी को मुहय्या कराए तभी यह संभव है। तमिलनाडु के स्टालिन सरकार ने एक मॉडल पेश किया है। उसने घोषणा की है कि वेंटिलेटर का किराया सरकारी स्वास्थ्य बीमे में शामिल किया जाएगा।

दिल्ली और अन्य उत्तर भारतीय राज्यों में ऑक्सीजन संकट बहुत गहरा है। जबकि बेंगलुरु नए कोविड मामलों में दिल्ली और मुम्बई को मात दे चुका है, वह किसी तरह से रोगियों के लिए ऑक्सीजन की व्यवस्था कर पा रहा है, पर वहां भी कुछ छोटे शहरों में संकट है, जैसे मैसुरु जिले के चामराजनगर में ऑक्सीजन न मिलने से 24 रोगी दम तोड़ दिये। केवल ऑक्सीजन ही नहीं, अस्पतालों में बेड और दवाओं का अभाव एक क्रूर सत्य है। यद्यपि यह संकट मुख्यः केंद्र और राज्य सरकारों की लापरवाही का नतीजा है, यह समय नहीं है कि हम ‘ब्लेम-गेम’ में उलझे रहें, बल्कि इस संकट पर एकताबद्ध कार्यवाही की आवश्यकता है।

आरबीआई की ओर से अच्छी पहल

आरबीआई ने ऑक्सीजन और ऑक्सीजन संबंधी उपकरणों का निर्माण कर रहे नए प्लांट्स के लिए 50,000 रुपये करोड़ क्रेडिट एक्सपैंशन की लिक्विडिटी जारी कर दी। आरबीआई ने यह आशा भी व्यक्त की है कि कि इस पैसे से स्टार्ट अप्स और एमएसएमईज़ को मदद मिलेगी, पर यह सच है कि अंत में इस पैसे को बड़े कॉरपोरेट ही हड़प लेंगे। वीएसएस शास्त्री, जो कर्नाटक के एक बैंकर हैं, और जिनका नए उद्योगों को बैंक लोन दिलाने का काफी अनुभव है, कहते हैं कि ‘‘50,000 करोड़ रुपये एक बड़ी रकम लग सकती है पर इसे परिणाम देने में भी लगभग एक साल लगेंगे।’’ उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि आरबीआई ने केवल संकेत दिया था कि वह कमर्शियल बैंकों को किस हद तक रिफाइनैंस कर सकेगी। 20 अलग-अलग पब्लिक सेक्टर बैंकों के बोर्ड्स को मिलकर तय करना होगा कि वे कितना क्रेडिट एक्सपैंशन दे पाएंगे; यह इनके व्यक्तिगत वित्तीय स्थिति पर निर्भर करेगा। फिर पर्याप्त संख्या में आवेदन होने पड़ेंगे और हरेक आवेदन की अच्छी तरह से जांच-पड़ताल करनी पड़ेगी, क्योंकि अब बैंक नहीं चाहते कि नए सिरे से उनकी वर्तमान अनिश्चित स्थिति में उनपर एनपीएज़ का बोझ हो।

यदि वे तत्काल लोन देना चालू कर दें, भूमि अधिग्रहण करने लगें, सुनिश्चित पावर सप्लाई की क्लियरेंस, एनवायरेन्मेंटल क्लियरेंस और क्रायोजेनिक स्टोरेज कपैसिटी को आयातित करना और स्थापित करना, आदि से नए प्लांट लगाने में कम से कम 6 माह से 1 साल लगेंगे। तो आरबीआई क्रेडिट एक्सपैंशन का लाभ कम से कम एक साल से पहले जमीनी स्तर पर महसूस नहीं किया जा सकेगा।’’

यह संकट ऐक्टिविस्टों के लिए भी एक अवसर है। नागरिक समाज और राजनीतिक दलों को जन-सेवा के मॉडल स्थापित करने चाहिये। एक वाम राजनीतिक दल दिल्ली में ऑटोरिक्शा वाले एम्बंलेंस चला रही है। सीमित संसाधनों के बावजूद वे लोगों से संसाधन जुटाकर आपातकालीन राहत केंद्र शुरू कर सकते हैं और ऐक्टिविस्टों को राहत देने का प्रशिक्षण दे सकते हैं। नागरिक समाज से जुड़े कई युवक-युवतियां कम्युनिटी नेटवर्क बना रहे हैं और वाट्सऐप व सोशल मीडिया का बेहतर इस्तेमाल करके गरीब व मरणसन्न लोगों के लिए दवा, ऑक्सीजन और आईसीयू बेड की व्यवस्था कर रहे हैं। वे रोगियों को स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचा रहे हैं, जो कि गरीबों के लिए प्रमुख चुनौती बनी हुई है। गुरुद्वारे भी बहुत तन्मयता से सेवा कार्य में लगे हैं। ‘मानवता की सेवा में लगो’,  यही आज का राजनीतिक आह्वान होगा।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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