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गर्भवती महिलाओं की मददगार ही मातृत्व के अधिकार से वंचित!

महिला रोगी सहायकों के लिए मातृत्व अवकाश का कोई प्रावधान नहीं है। मातृत्व के लिए कइयों को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है।
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Image courtesy: Google

पहले यह धारणा थी कि कामगारों का शोषण निजी क्षेत्र में है, जबकि सरकारी क्षेत्र में काम करनेवालों को उनके सभी अधिकार व पूरी सामाजिक सुरक्षा मिलती है। लेकिन अब सरकार भी शोषक पूंजीपतियों के रास्ते पर चल रही है। प्राथमिक शिक्षा मामूली मानदेय पर काम करनेवाले पैरा-टीचरों के सहारे चल रही है। स्वास्थ्य क्षेत्र में नर्सों व अन्य पैरा-मेडिकल स्टॉफ को ठेके पर रखा जा रहा है और समान काम करनेवाले नियमित कर्मचारियों के वेतन के एक-तिहाई से भी कम का उन्हें भुगतान किया जा रहा है।

सन 2007 में केंद्र की राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत अन्य राज्यों की तरह पश्चिम बंगाल में भी 'रोगी सहायक' रखे जाने शुरू किये गये। अभी राज्य के 146 सरकारी अस्पतालों में लगभग 1300 रोगी सहायक काम कर रहे हैं। विभिन्न एनजीओ के माध्यम से रखे गये इन स्वास्थ्य कर्मियों को आज भी केवल 7122 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं। इसके अलावा इन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा प्राप्त नहीं है। छुट्टी तक नहीं मिलती। रोगी सहायकों में बड़ी संख्या में महिलाएं भी हैं। विडंबना है कि जो कर्मी गर्भवती महिलाओं की मददगार के रूप में काम करती हैं उन्हें ही मातृत्व के अधिकार से वंचित रखा गया है। इन महिला रोगी सहायकों के लिए मातृत्व अवकाश का कोई प्रावधान नहीं है। मातृत्व के लिए कइयों को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है।

रोगी सहायकों का मूल काम राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना से जुड़े मरीजों की विभिन्न तरह से मदद करना था। यही लोग बीमा की रकम दिलवाने के लिए उनका कागज-पत्र का काम करवाते थे। केंद्र की ओर से राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना खत्म कर दिये जाने के बाद अब ये लोग राज्य सरकार की 'स्वास्थ्य साथी' योजना के लिए काम कर रहे हैं। इसके अलावा इन्हें शिकायत कोषांग, रेफर मरीजों की सहायता के काम में भी लगाया गया है। इतना ही नहीं, कई अस्पतालों में तो इन्हें मरीजों की भर्ती, प्रसूता महिलाओं को प्रसव के बाद एंबुलेंस में चढ़ाने, नवजात का जन्म प्रमाणपत्र दिलाने जैसे काम भी करने पड़ते हैं।

इनका संगठन रोगी सहायक समिति समय-समय पर नौकरी के स्थायीकरण की मांग को लेकर आंदोलन करता रहता है, पर सुननेवाला कोई नहीं है। रोगी सहायकों की विभिन्न मांगों को लेकर बीते अगस्त महीने में विधानसभा में सीपीएम विधायक दल के नेता सुजन चक्रवर्ती ने राज्य की स्वास्थ्य मंत्री तथा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पत्र लिखा था, लेकिन अभी तक कुछ होता नजर नहीं आ रहा है।

रोगी सहायक का काम करनेवाली महिलाओं का कहना है कि वे गर्भवती महिलाओं के खून की जांच, अल्ट्रासोनोग्राफी, दवा दिलाने इत्यादि में मदद करती हैं। लेकिन अपने मातृत्व के लिए उन्हें नौकरी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है। निरूपमा राज ने सन 2013 में कोलकाता के लेडी डफरिन अस्पताल में रोगी सहायक का काम शुरू किया था, लेकिन मातृत्व की इच्छा पूरी करने के लिए उन्हें लगभग चार महीने पहले काम छोड़ना पड़ा।

वैसे एक प्रावधान है कि अगर रोगी सहायक अपने एवज में किसी को काम करने के लिए मुहैया कराये तो उसे छुट्टी मिल सकती है। मातृत्व के लिए छह-सात महीने की छुट्टी चाहिए होती है और इतने लंबे समय तक किसी को अपने एवज में काम करने के लिए खोज पाना काफी मुश्किल होता है। साथ ही, यह चिंता भी सताती रहती है कि अगर उस व्यक्ति ने बाद में हटना मंजूर नहीं किया तो नौकरी छिन जायेगी। ऐसे में रोगी सहायकों को मां बनने के फैसले से पहले अपने किसी सगे-संबंधी की मिन्नत कर उन्हें अपना एवजी बनने के लिए राजी करना पड़ता है।

रोगी सहायकों का कहना है कि उनके साथ जरा भी मानवता नहीं दिखायी जाती। अलीपुरद्वार की एक रोगी सहायक मालविका बर्मन का कहना है कि गर्भावस्था के दौरान कुछ शारीरिक तकलीफ के कारण वह 12 दिन काम पर नहीं आ पायीं। इसका नतीजा यह हुआ कि जिस एनजीओ ने उन्हें रखा था उसने बीते जुलाई महीने में बरखास्तगी की चिट्ठी पकड़ा दी।

रोगी सहायकों को नियुक्त करनेवाले एनजीओ के प्रतिनिधियों से पूछे जाने पर उनका जवाब होता है कि उन्हें मातृत्वकालीन अवकाश देने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन जिस राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत रोगी सहायक काम करते हैं उसकी नियमावली में इस तरह का कोई प्रावधान ही नहीं है। अगर एनजीओ उनको छुट्टी दे भी दे तो अस्पताल प्रशासन इसे मानेगा नहीं। वहीं इस बार में अस्पताल प्रबंधन कहते हैं कि रोगी सहायक विभागीय कर्मचारी नहीं हैं। अस्पताल प्रशासन उनके बारे में कुछ नहीं कर सकता। ये लोग आउटसोर्स कर्मी हैं और इनके हितों का ध्यान रखना इन्हें नियुक्त करनेवाले एनजीओ की जिम्मेदारी है।

एनजीओ और अस्पताल प्रशासन के एक-दूसरे पर जिम्मेदारी थोपने के बीच पश्चिम बंग रोगी सहायक समिति के राज्य सचिव मिठुन घोष कहते हैं कि रोगी सहायकों को नौकरी में मिलनेवाले बुनियादी अधिकारों व सुविधाओं से वंचित रखा गया है। एक महिला को मातृत्वकालीन अवकाश नहीं मिलना दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ अमानवीय है।

इस मामले में बंगाल और केंद्र की दोनों सरकारों को केरल सरकार से सबक लेना चाहिए। केरल सरकार के नये कानून के बाद वह देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है, जहां पर गैर अनुदान-प्राप्त निजी शिक्षा संस्थानों समेत निजी शिक्षा क्षेत्र में काम करनेवाली शिक्षिकाओं एवं अन्य महिला कर्मचारियों को मातृत्व लाभ कानून के तहत अवकाश मिलेगा। यानी वे सरकारी कर्मचारियों की तरह 26 हफ्ते का सवैतनिक मातृत्व अवकाश ले सकेंगी। साथ ही नियोक्ता को प्रति माह 1000 रुपये चिकित्सा भत्ता भी देना होगा।

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