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इतिहास की राजनीति : क्या पाठ्यपुस्तकें कोई मायने रखती हैं?

पाठ्यपुस्तकों में जो ऐतिहासिक मोड़ आया है उसके तहत, आपातकाल, 1984 और 2002 के दंगों को पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया है। और सत्तावादी/शक्तिशाली लोग इस बात का दिखावा कर रहे हैं कि जैसे किताबें युवा दिमाग़ को नियंत्रित करती हैं।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: Unsplash

हाल ही में, इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने एक रिपोर्ट को चार-भाग में प्रकाशित किया जिसमें  नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा स्कूल स्तर की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में किए गए संशोधनों का विवरण दिया गया है। अपने आठ साल के शासन के दौरान, यह तीसरा मौका है जब इस तरह के बदलाव पेश किए गए हैं, पहले ये बदलाव 2017 और 2019 में किए गए थे।  अटल बिहारी वाजपेयी (1998 से 2004) के पिछले भाजपा शासन की तुलना में पाठ्यपुस्तकों में संशोधन किए गए संसोधनों की तुलना में, हालिया दो बदलावों मे विलोपन अधिक है न कि पुनर्लेखन शामिल है।

इसके माध्यम से पार्टी के हिंदुत्व के एजेंडे को बढ़ावा देने के अलावा, रणनीति कांग्रेस पार्टी को बेअसर करने की भी है, जिसकी खुद की अलमारी में कंकाल भरे पड़े हैं। उदाहरण के लिए, न केवल 2002 के गुजरात दंगों के सभी संदर्भ हटा दिए गए हैं जिसमें एक हजार से अधिक मुस्लिम मारे गए थे, बल्कि 1984 के दिल्ली दंगों से संबंधित पाठ भी हटा दिए गए हैं, जिसमें लगभग इतनी ही संख्या में सिखों का नरसंहार हुआ था। जिस तरह मोदी पर लगात्र तानाशाह होने आरोप लगाया जाता है, इसकी काट के लिए पुस्तकों से इंदिरा गांधी के आपातकाल को भी हटा दिया गया है, संभवतः कांग्रेस को यह संदेश दिया जा रहा है: न तुम  हमारी कहो न हम तुम्हारी कहेंगे। 

इस लेखन का उद्देश्य वर्षों से पाठ्यपुस्तक में हो रहे बदलावों का विश्लेषण करना नहीं है, बल्कि उन्हें राजनीतिक और इतिहास लेखन के पेशेवर दृष्टिकोण से देखना है। आइए हम केवल तीन प्रश्न लेते हैं। एक, क्या इतिहास इतना महत्वपूर्ण विषय है कि इस प्रक्रिया में छात्रों को केवल गिनी पिग माना जाए, और इसमें निरंतर हस्तक्षेप होना चाहिए? दूसरा, क्या इस तरह की दखल सिर्फ बीजेपी का प्रोजेक्ट है? और तीसरा, इतिहास या कोई इतिहास नहीं, क्या यह बहस पेशेवरता की कीमत पर, हिंदू राष्ट्रवाद के पक्ष में एक शक्तिशाली राजनीतिक ताकत बनाने में मदद नहीं करती है?

क्या इतिहास, एक विषय के रूप में इतना महत्वपूर्ण है? क्या स्कूली पाठ्यपुस्तकों, विशेष रूप से इतिहास की पाठ्यपुस्तकों का चुनाव वास्तव में मायने रखता है? छात्रों के लिए, निश्चित रूप से चुनाव मायने नहीं रखता है। वे बस वही करते हैं जो तय किया गया है, उनका मुख्य ध्यान परीक्षाओं को पास करना है। जैसे ही परीक्षा समाप्त होती है, किताबें या तो कबाड़ में डाल दी जाती हैं या छोटे भाई-बहनों या परिचितों को दे दी जाती हैं। निश्चित रूप से, जब तक तब तक कि उन्हें "अपडेट" नहीं किया जाता है।

पाठ्यपुस्तकों में क्या है, इस बारे में न तो छात्र और न ही शिक्षक विशेष रूप से चिंतित हैं। मुझे अभी भी अपनी आठवीं कक्षा के इतिहास के शिक्षक (1950 के दशक के उत्तरार्ध में) स्पष्ट रूप से याद हैं, जिन्होंने हमें सलाह दी थी कि इतिहास की किताब के प्रकाशन की तारीख जितनी पुरानी होगी, उसकी प्रामाणिकता उतनी ही अधिक होगी। क्यों? क्योंकि यह वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं के करीब होती है। मुझे याद है कि मैं पूरी दोपहर बिहार की भीषण गर्मी में अलमारियों की खाख छानता रहा, तब जाकर मुझे 1936 का एक संस्करण मिला जो कभी मेरी सबसे बड़ी बहन का था। मुझे संदेह है कि आने वाले दशकों में भारत के अधिकांश स्कूलों में एक औसत शिक्षक का स्तर बहुत ज्यादा नहीं बदला है।

जहां तक छात्रों का सवाल है, ज्यादा से ज्यादा छात्र अब कम से कम पढ़ रहे हैं। ओब्जेक्टिव इम्तिहान वाली प्रणाली ने आलोचनात्मक सोच के विचार को पूरी तरह से मार दिया है, जिस पर अविजित पाठक जैसे समाजशास्त्री तकलीफ महसूस करते हैं। स्कूलों के बाहर, बड़े पैमाने पर समाज में, व्हाट्सएप विश्वविद्यालय, जिसे भारत के सबसे सम्मानित टीवी एंकरों में से एक, रवीश कुमार ने गढ़ा था, लाखों भारतीयों को नकली ऐतिहासिक ज्ञान देना जारी रखे हुए है। यह वह बड़ा समुदाय है जिसे इतिहास का पाठ्यपुस्तक विवाद वास्तव में लक्षित कर रहा है, न कि छात्रों को निशाना बना रहा है।

इस लक्ष्य को वास्तव में जनता पार्टी के शासन (1977-79) के दौरान गढ़ा गया था, जब  भारतीय जनसंघ घटक के पास महत्वपूर्ण मंत्रालय थे। इन मंत्रियों का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से कनेक्शन जगजाहिर था। उन दिनों कई आरोप लगे थे कि 'इतिहास फिर से लिखा जा रहा है'। इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, 1981 पुलिस आयोग की रिपोर्ट ने पूर्वाग्रह से ग्रसित पुलिस हस्तक्षेप के कई उदाहरणों का उल्लेख किया था, जिनमें से अधिकांश स्पष्ट रूप से मुस्लिम विरोधी थे। इसके अलावा, नब्बे के दशक की शुरुआत में मसूरी में आईएएस प्रशिक्षण अकादमी में किए गए एक सर्वेक्षण ने इस खबर का खुलासा किया था कि बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने के अवसर को बड़े धूमधाम से मनाया गया था। इस सर्वेक्षण का कारण यह था कि इनके अधिकांश कर्मियों ने इतिहास 'नेहरूवादी' सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से सीखा था।

निश्चित रूप से यदि विवाद बहुत पुराना नहीं है तो भारतीय राष्ट्र जितना पुराना तो है। मोटे तौर पर, यह एक हिंदू राष्ट्रवादी परियोजना है। पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय में भी, उनकी पार्टी के भीतर एक शक्तिशाली हिंदू लॉबी थी, जिसने पाठ्यक्रमों को एक विशिष्ट हिंदू पहचान देने पर जोर देने के लिए पाठ्यपुस्तक संशोधन का समर्थन किया था। तब तर्क यह था कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में हिंदू ऐतिहासिक महानता का पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं किया गया है, क्योंकि अधिकांश पाठ्यपुस्तकों को ब्रिटिश शासन के तहत लिखा गया था।

1954 से 1960 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ संपूर्णानंद, एक प्रख्यात कांग्रेसी राजनेता को डर था कि हिंदुओं और मुसलमानों का भावनात्मक एकीकरण तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि मुसलमान भी "हिंदू इतिहास" के नायकों अर्जुन, भीम, अशोक और हर्षवर्धन जैसे वीरों पर गर्व नहीं करेंगे। आखिरकार, हिंदुओं और मुसलमानों की "न केवल एक सामान्य संस्कृति थी, बल्कि एक समान वंश" (भी) था। "अगर इस तर्क को एक बार स्वीकार कर लिया जाता है, तो मैं वास्तव में ऐसा कुछ नहीं देखता कि एक सही सोच वाला व्यक्ति इसे स्वीकार करने से कैसे इनकार कर सकता है, यह देखते हुए कि इस्लाम धर्मांतरण करने वाला धर्म है, और भारतीय मुसलमानों का भारी बहुमत हिंदू धर्मातंत्रण से बना है, बहुत सारी बातें [पाठ्यपुस्तकों के] मुस्लिमीकरण के बारे में अपने आप बंद हो जाएगी।” क्या यह आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की बहस से अलग है?

1950 और 1960 के दशक में, जब भाजपा की अग्रदूत, जनसंघ, राजनीतिक सत्ता की दूर की दावेदार भी नहीं थी, कई हिंदी भाषी राज्यों में स्कूली पाठ्यपुस्तकों को फिर से लिखने और उनके पक्ष में लिखने तथा मुस्लिम समर्थक पूर्वाग्रह को सुधारने और उन्हे हिन्दू समर्थक बनाने की प्रवृत्ति दिखी थी। इसे व्यंजनापूर्ण रिकॉर्ड को सीधा करने के रूप में लेबल किया गया था। लेकिन इस प्रवृत्ति को पूरी तरह से चुनौती नहीं दी गई थी और वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक शोध से समझौता करने के लिए इसकी आलोचना की गई थी।

1966 में, इस मामले पर संसद में बहस हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप जेपी नाइक (बाद में भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद या आईसीएसएसआर के सदस्य-सचिव), केजी सैय्यदैन, गोपीनाथ अमन और अन्य लोगों की एक समिति का गठन किया गया था। समिति ने कुछ राज्यों की पाठ्यपुस्तकों में हिंदू पूर्वाग्रह के ठोस सबूत पाए थे। उन पाठ्यपुस्तकों में, कुछ ऐतिहासिक घटनाओं को "कुछ धार्मिक समूहों के खिलाफ पूर्वाग्रह को जगाने और कायम रखने के तरीके के रूप में प्रस्तुत किया गया था"।

ध्यान रहे कि, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी, जिसे 1956 में स्थापित किया गया था) और शिक्षा आयोग की 1964 की रिपोर्ट ने नेहरूवादी वैज्ञानिक स्वभाव के महत्व का समर्थन किया था, यदपि कई प्रतिष्ठित कांग्रेसियों के लिए, इतिहास और पौराणिक कथाएं अक्सर कोई अलग मामला नहीं लगता था।

आइए अब हम व्यावसायिकता के प्रश्न की ओर मुड़ें। वाजपेयी शासन के दौरान, रोमिला थापर, आरएस शर्मा, बिपन चंद्र, बरुण डे, और अन्य प्रख्यात इतिहासकारों द्वारा लिखित स्कूली पाठ्यपुस्तकों को विशेष रूप से उनके हिंदू विरोधी पूर्वाग्रह के लिए लक्षित किया था और उन्हे  प्रतिबंधित कर दिया गया था। क्या पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने के बजाय, अन्य पुस्तकों को पेश करना अधिक उचित नहीं होगा जो एक वैकल्पिक तर्क प्रस्तुत कर सकती हैं?

इस बिंदु पर, मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं शायद इस तरह के मामूली विषय पर नहीं लिखता, यदि मुझे मेरे बचपन के दोस्त ने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों की राजनीति के बारे में  उकसाया नहीं होता। हमारी बातचीत के दौरान, मेरे दोस्त ने रोमिला थापर के बारे में एक टिप्पणी की जो चौंकाने वाली और भ्रामक थी।

उन्होंने दुस्साहस के साथ बताया कि अगर उन्हें पुस्तकालय जाने के लिए सिर्फ पंद्रह दिन का समय दिया गया होता, तो वे थापर के सारे शोध को रद्दी की टोकरी में डाल देते। मेरे मित्र ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उसे समय निकालने से किसने रोका था। चूंकि मैं जानता हूं कि मेरे दोस्त के तर्क को मानने वाले भारत में आज लाखों लोग हैं, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे अपने विचार व्यक्त करने चाहिए। स्पष्ट रूप से हमारी राजनीति में सड़ांध बहुत गहराई तक घुस चुकी है। यह सबसे अधिक ध्यान वाली बात है कि किस तरह से पूरे भारत में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है।

भारत ने, विशेष रूप से तीन शक्तिशाली प्रधानमंत्री दिए हैं, जिनमें पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी शामिल हैं। प्रत्येक की अपनी ताकत और खामियां हैं। मोदी की गंभीर रूप से महत्वपूर्ण खामियों में से एक यह है कि वे अक्सर गलत ऐतिहासिक तथ्यों का हवाला देकर या पूरी तरह से निराधार वैज्ञानिक सिद्धांतों का सहारा लेकर अपने दर्शकों को गुमराह करते हैं। उनकी व्यापक लोकप्रियता इसे सबसे खतरनाक बनाती है, क्योंकि उनके झूठ, झूठ की संस्कृति को वैधता प्रदान करते हैं जिसे किसी भी किस्म की "सही" पाठ्यपुस्तक सुधार नहीं सकेगी। 

पोस्टस्क्रिप्ट: ईएच कैर, जो 1961 की पुस्तक, ‘इतिहास क्या है’ के महान लेखक हैं, के मुताबिक इतिहास अतीत और वर्तमान के बीच एक निरंतर संवाद है, और इतिहासकार और तथ्यों के बीच एक अंतहीन बातचीत है, ताकि सभी तथ्यों की सही व्याख्या की जा सके और उन्हे रिकॉर्ड किया जा सके। अगर कैर आज जीवित होते, तो उन्हें नियमित रूप से बुरे सपने आते और तथ्यों और "फर्जी तथ्यों" (वास्तव में, शब्दों में एक विरोधाभास) को सुलझाने की कोशिश की जाती। जो इतिहास की राजनीति करते हैं उन्हे अक्सर बड़े पैमाने पर हुकूमत का संरक्षण प्राप्त होता है और इस प्रकार वे इनकी व्यापक बढ़ती लोकप्रियता पर वे खिन्न हुए होते।

वाशिंगटन पोस्ट के लंबे समय तक संपादक रहे मार्टी बैरन, जिन्होंने राष्ट्रपति पद के चुनाव दौरान डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा किए गए 30,573 झूठे या भ्रामक दावों को प्रसिद्ध रूप से दर्ज किया था, और जिन्हें द गार्जियन ने "पुराने स्कूल के सर्वश्रेष्ठ टोलीसंपादक" के रूप में नवाजा था, ने इंडियन एक्सप्रेस को फरवरी 2021 में दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि, “तथ्य जैसी चीजें होती हैं। यह केवल राय की बात नहीं है, न केवल सत्ता किसके पास है न उसकी बात है, बात यह भी नहीं है कि सबसे बड़ा मेगाफोन किसके पास है। वास्तव में बात यह है कि वस्तुनिष्ठ तथ्य और वस्तुनिष्ठ वास्तविकता नाम की भी कोई चीज होती है।" 

लेखक सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं। वे जेएनयू में आईसीएसएसआर नेशनल फेलो और साउथ एशियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर रह चुके हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Politics of History: As If Textbooks Matter

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