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सियासत: उत्तर प्रदेश चुनाव में दलित एजेंडा कहां है?

तथ्य यह है कि  डबल इंजन  सरकार की चौतरफ़ा तबाही का जो तबका सबसे बदतरीन शिकार हुआ है,  सबसे बड़ी मार जिस तबके पर पड़ी है, वे दलित ही हैं।
mayawati
फोटो साभार: पीटीआई

उत्तर प्रदेश में सभी पार्टियों का चुनाव अभियान शुरू हो चुका है। तरह तरह के मुद्दे चर्चा में हैं, पर इन सब के बीच आश्चर्यजनक ढंग से जो मुद्दा गायब है, वह है दलित एजेंडा।

वाम पार्टियां और लोकतान्त्रिक मंच जरूर उनके सवाल उठाते हैं, पर मुख्यधारा की पार्टियों के लिए लगता है यह कोई मुद्दा ही नहीं है। जबकि तथ्य यह है कि  डबल इंजन  सरकार की चौतरफ़ा तबाही का जो तबका सबसे बदतरीन शिकार हुआ है,  सबसे बड़ी मार जिस तबके पर पड़ी है, वे दलित ही हैं- उनके मान-सम्मान, सुरक्षा रोजी-रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य सब पर।

मायावती जी की राजनीति को लेकर तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। दरअसल, यह एक ऐसा दौर चल रहा है जब नेताओं के लिए विचारधारा का प्रश्न तो अर्थहीन हो ही गया है, मुद्दा-आधारित राजनीति अथवा सत्ता में हिस्सेदारी जैसे प्रश्न भी अवसरवादी गठजोड़ के लिए हथकंडा (ploy) भर रह गए हैं। अपने कुनबे के लिए सत्ता-सुख ही परम सत्य है, राजनीति का नियामक तत्व है। नेताओं का दलों के बीच इस तरह सहज अबाध आवागमन हो रहा है जैसे ये सब एक ही दल के अलग अलग डिपार्टमेंट हों अथवा एक ही घर के अलग अलग कमरे हों !

ऐसे दौर में मायावती जी की राजनीति को जानने वाले समझते हैं कि उनके लिए कोई दल अछूत नहीं है। भाजपा, कांग्रेस, सपा सबसे अतीत में उनके रिश्ते रह चुके हैं, यहां तक कि गोधरा के तुरंत बाद के चुनावों में भी वे नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार कर चुकी हैं।

जाहिर है आने वाले महीनों में उनके political moves पूरी तरह pragmatic considerations से ही तय होंगे। उनके लिए शायद best bet यही होगा कि एक hung assembly बन जाय और उनके पास इतनी सीटें हों कि भाजपा ( या अंतिम विकल्प के रूप मे सपा-कांग्रेस ) उन्हें मुख्यमंत्री बना दे।

सचमुच क्या घटित होगा वह तो अभी भविष्य के गर्भ में है, पर मायावती जी का क्या होगा, उससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि दलितों का क्या होगा और दलित राजनीति का क्या होगा। 

पिछले दिनों मायावती जी ने लखनऊ के ब्राह्मण सम्मेलन में SC-ST Act को लेकर सफाई दी। यह एक ऐसा  कानून है जिसे दलित-आदिवासी अपने ऊपर गैर-दलित प्रभुत्वशाली  तबकों द्वारा होने वाले अत्याचार के ख़िलाफ़ सबसे बड़ा रक्षा-कवच मानते हैं,  इस कानून की रक्षा के लिए 2 अप्रैल 2018 को उत्तर भारत का दलितों का सबसे बड़ा प्रतिरोध हुआ था जिसमें अनेक नौजवान मारे गए, हजारों जेल में डाले गए, अनेक अब भी हैं। ऐसे कानून को, यह ठीक है कि जब आपकी सरकार बने तो उसे judicious ढंग से लागू करिये, पर उसके बारे में आप ब्राह्मण सम्मेलन में सफाई पेश करें तो उससे दलितों पर जुल्म करने वाले तत्वों का मनोबल बढ़ता है और उसे वैधता मिलती है ,उसी अनुपात में दलित demoralise होते हैं, और अधिक असुरक्षित हो जाते हैं, यह उस संघर्ष का एक तरह से अपमान है। 

डॉ. आंबेडकर समेत सामाजिक समता और मुक्ति के तमाम icons के जो स्मारक और मूर्तियां मायावती जी ने बनवाई थीं, उस पर भी उसी सम्मेलन में उन्होने वायदा किया कि अब वे सत्ता में आएंगी तो अब यह सब नहीं बनवाएंगी। ऐसी आपकी कोई स्वतः अनुभूति एक बात है, लेकिन ब्राह्मण सम्मेलन में जब आप यह वचन देती हैं तो साफ लगता है कि यह आप  दबाव में कर रही हैं, दलितों को कहीं न कहीं लगता है कि चुनावी फायदे के लिए आप उनके आत्मसम्मान के प्रतीकों के साथ समझौता कर रही हैं।

Pragmatic ढंग से इसे देखने वाले बसपा के कतिपय समर्थक इसे 2007 की तरह ब्राह्मण power groups का समर्थन पुनः हासिल करने की tactics के बतौर justify करते हैं। अव्वलन तो इस रणनीति का विफल होना तय है क्योंकि परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं, पर अगर इसे कुछ सीमित चुनावी सफलता मिल भी जाय तो भी अपनी इस रणनीति से वे दलित एजेंडा को जरूर कमजोर कर रही हैं। जाहिर है, ईमानदार दलित कार्यकर्ताओं, शुभचिन्तकों के बीच इसे लेकर गहरी निराशा है। ब्राह्मणवादी विचारधारा के खिलाफ आजीवन लड़ते हुए डॉ. आंबेडकर ने दलित चेतना के निर्माण के लिए अंततः हिन्दू धर्म का भी परित्याग कर दिया था, पर आज जिस तरह जय श्रीराम ( जो दरअसल भाजपा का चुनावी युद्धघोष बन गया है ) तथा जय परशुराम के नारों और मंत्रोच्चार के बीच मायावती जी ने त्रिशूल धारण कर उस दलित चेतना को सर के बल खड़ा कर दिया है, उसने दलित समुदाय को वैचारिक रूप से निरस्त्र कर दिया है और उन्हें हिंदुत्व की विचारधारा के हमले के सामने निष्कवच बना दिया है।

जाहिर है दलितों के अगुआ हिस्से के अंदर गहरी चिंता है कि अम्बेडकरवादी धारा तथा कम्युनिस्टों के संघर्षों के फलस्वरूप दलितों का शासकवर्गीय पार्टियों से जो अलगाव हुआ था, और वे स्वतन्त्र राजनीतिक दावेदारी की ओर बढ़े थे, बसपा कहीं उस पूरी प्रक्रिया को 180 डिग्री उल्टी दिशा में तो नहीं ले जा रही है, बसपा कहीं मनुवादी संस्कृति और भाजपा/कांग्रेस की राजनीति में absorb तो नहीं होने जा रही है!

डॉ. आंबेडकर ने जिस पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई की बात की थी, आज संकटग्रस्त नवउदारवाद के रूप में पूंजीवाद का सबसे भयावह रूप हमारे सामने है, तो हिंदुत्व के रूप में ब्राह्मणवाद और फासीवाद के सबसे नग्न स्वरूप से हम रूबरू हैं। जाहिर है नवउदारवाद और फासीवाद के खतरनाक कॉकटेल की सबसे भयानक मार जिन मेहनतकश वर्गों, वंचितों पर पड़ रही है, उसकी विराट बहुसंख्या दलित-आदिवासी समुदाय की ही है। ब्राह्मणवाद के पुनरुत्थान के दौर में उनके ऊपर हमले और सामाजिक उत्पीड़न कई गुना बढ़ गया है।  दलित महिलाओं, बेटियों के ऊपर यौन हमलों की तो जैसे बाढ़ आ गयी है। ऐसे सारे मामलों में राज्य मशीनरी बिना किसी अपवाद दबंगों के पक्ष में खड़ी होती है। दूसरी ओर अर्थव्यवस्था के ध्वंस और कारपोरेटीकरण के चलते रोजगार के अवसर, सरकारी नौकरियां, आरक्षण सब खत्म होता जा रहा है, जो जमीन-जायदाद से वंचित दलितों के लिए सशक्तीकरण, जीवन मे बेहतरी और यहां तक कि आजीविका का एकमात्र साधन रहा है। अंधाधुंध निजीकरण के दौर में बेहद महंगी होती गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं उनकी पहुँच से बाहर होती जा रही हैं।

महज 6% दलित नौकरीपेशा हैं, ( जिनमें मात्र 2.93% सरकारी नौकरी में हैं), 94% manual labour या अन्य पेशों में है। 42% दलित भूमिहीन हैं, जिनके पास मेहनत-मजूरी के अलावा आजीविका का कोई साधन नहीं है। जिनके पास जमीन है भी, वे सीमांत या गरीब किसान हैं। ठीक इसी तरह मात्र 8% आदिवासी नौकरीपेशा हैं, ( जिनमें मात्र 3.54% सरकारी नौकरी में हैं), 92% मेहनत मजूरी या अन्य पेशों से अपनी जीविका चलाते हैं।

हाल ही में मजदूर किसान मंच ने दिल्ली, कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में एक कन्वेंशन करके यह मांग की कि " ग्रामसभा की ऊसर, परती, मठ व ट्रस्ट की जमीन भूमिहीन गरीबों में वितरित की जाए। सभी गरीबों और आवासविहीनों को आवासीय जमीन दी जाए। जंगल की अतिरिक्त (खाली) भूमि को गरीबों को आवंटित किया जाए और अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परम्परागत वन निवासी (वनाधिकारों की मान्यता) कानून 2006 के तहत आदिवासियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों के अधिकार की रक्षा की जाए। "

दलितों, आदिवासियों की भूमिहीनता उनकी बहुआयामी शोषण, अपमान और संकटों के मूल में है। डॉ. आंबेडकर ने कभी कहा था, " My rural brothers are subjected to atrocities because they do not have land. That is why now I will fight for the land for them.”  कम्युनिस्ट पार्टियों तथा नक्सल आंदोलन ने एक दौर में इसे प्रमुख प्रश्न बनाया और अनेक बहादुराना लड़ाइयां लड़ी। डॉ. अम्बेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ने भी इसको लेकर आंदोलन किया। पर आज यह प्रश्न चर्चा से ही गायब हो गया है, बसपा समेत कोई मुख्यधारा-दल इसे मुद्दा बनाने को तैयार नहीं है।

भारतीय समाज के आखिरी पायदान पर खड़ी देश की लगभग चौथाई आबादी- जो दरअसल हमारा विराट उत्पादक मेहनतकश वर्ग है- के सम्मान, आजीविका, शिक्षा-स्वास्थ्य-मानव विकास की गारंटी देश के आधुनिक विकास की पूर्व शर्त है और हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी परीक्षा है।

कारपोरेट फासीवाद और हिंदुत्व के खिलाफ लोकतन्त्र की लड़ाई में दलित-आदिवासी प्रश्न को गम्भीरता से सम्बोधित करना होगा, वे उस लड़ाई की प्रमुख ताकत हैं और उनकी मुक्ति इस लड़ाई का सबसे बड़ा अभीष्ट है। दूसरी ओर जिन दलों ने ब्राह्मणवाद और नवउदारवाद के आगे घुटने टेक दिए हैं, वे दलित-आदिवासी हितों की रक्षा नहीं कर सकते।

आगामी चुनावों में  दलित-आदिवासी एजेंडा, उनके सवालों-सरोकारों, concerns को मजबूती से address करके ही भाजपा को शिकस्त दी जा सकती है। 

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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