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सियासत: अमित शाह का चुनावी शंखनाद सीमांचल से ही क्यों?

बिहार की धरती पर 2024 के लोकसभा चुनाव का शंखनाद करने पहुंचे गृह मंत्री अमित शाह ने सीधे तौर पर नीतीश-लालू को निशाने पर लिया। बोले- नीतीश कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे और लालू को धोखा देंगे।
amit shah
फ़ोटो साभार: ट्विटर

बीते कुछ वक़्त में अगर भारतीय राजनीति पर ग़ौर करेंगे तो देखेंगे कि यह काफ़ी हद तक देश के मुसलमानों के ख़िलाफ़ होती दिखाई दी है। चाहे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में दिया गया 80 बनाम 20 वाला बयान हो, दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाक़े में समुदाय विशेष के मकानों-दुकानों पर बुल्डोज़र चला कर उनकी ज़िंदगी बर्बाद करने का मामला हो, राजस्थान में हिंदू-मुस्लिम के बीच झगड़ा कराना हो या भाजपा की प्रवक्ता नूपुर शर्मा का मुस्लिमों के पैग़ंबर पर दिया गया बयान हो।

इन तमाम बवालों के बावजूद केंद्र की सत्ता में मौजूद भारतीय जनता पार्टी ऐसी घटनाओं के लिए बार-बार ज़िम्मेदारी लेने से बचती रही है। लेकिन मुस्लिमों के भीतर भाजपा के ख़िलाफ नाराज़गी फिलहाल अब जगज़ाहिर होने लगी है। ये बात करने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि गृह मंत्री और भाजपा के कथित चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ने बिहार के मुस्लिम बहुल क्षेत्र सीमांचल के पूर्णियां ज़िले से 2024 के लिए शंखनाद किया है।

अमित शाह बखूबी जानते हैं कि सीमांचल के महज़ चार ज़िलों में बिहार की 50 फ़ीसदी से ज़्यादा मुस्लिम आबादी रहती है और बग़ैर इनके वो सत्ता में वापसी नहीं कर सकते हैं, जिसका उदाहरण पिछला या उससे पहले का लोकसभा चुनाव है।

बात अगर पिछले यानी 2019 लोकसभा चुनाव की करें तो एनडीए का प्रदर्शन बेहतरीन रहा था, जिसमें जेडीयू, भाजपा और लोजपा शामिल थे। लेकिन भाजपा के खाते में महज़ एक ही सीट अररिया आई थी और यहां से प्रदीप कुमार सिंह सांसद चुने गए थे, लेकिन बाक़ी की दो सीटें कटिहार और पूर्णियां जेडीयू के खाते में रही थी, जबकि किशनगंज में कांग्रेस की जीत हुई थी।

अररिया यानी जिस सीट पर इस वक्त भाजपा का सांसद है वहां 2014 में आरजेडी के तस्लीमुद्दीन जीते थे, कुछ वक़्त के बाद उनका इंतकाल हो गया तो 2018 में उपचुनाव हुए। फिर यहां से आरजेडी के सरफ़राज़ जीते। मगर 2019 के आमचुनाव में भाजपा के प्रदीप कुमार सिंह जीते। उस वक़्त जेडीयू भाजपा एक साथ थी।

जानकार बताते हैं कि अररिया की मुस्लिम आबादी क़रीब 40 फ़ीसदी है, यानी यह मुस्लिम बहुल इलाक़ा है। अब यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि जब तक भाजपा के साथ जेडीयू नहीं थी, तब तक इस सीट से आरजेडी का सांसद बनता आया है, वो भी कोई मुस्लिम। लेकिन जैसे ही भाजपा, जेडीयू यानी नीतीश कुमार के साथ हाथ मिलाती है, उसका सांसद वहां से जीत जाता है। लेकिन इस बार ये सीट मुश्किल से ही भाजपा के हाथ आने वाली है। इसका पहला कारण ये है कि पूरे बिहार में भाजपा अकेली है और दूसरा ये कि राज्य की दो सबसे बड़ी पार्टियां आरजेडी और जेडीयू साथ आ गई हैं।

इसके अलावा सीमांचल की बाक़ी तीनों सीट की बात करें तो किशनगंज की मुस्लिम आबादी 67.70 प्रतिशत, कटिहार में 43 प्रतिशत और पूर्णिया की मुस्लिम आबादी 38 फ़ीसदी है। बाक़ी यादवों के साथ मिली-जुली जातियों के लोग रहते हैं।

जैसा कि हमने आपको बताया कि साल 2019 के आम चुनावों में अररिया की सीट से भाजपा की जीत हुई थी, इसके अलावा पूर्णिया से जेडीयू के संतोष कुशवाहा, कटिहार से जेडीयू के दलाल चंद्र गोस्वामी और किशनगंज से कांग्रेस के डॉ. मो.जावेद सांसद हैं, जो अब महागठबंधन का हिस्सा बन गए हैं।

वहीं इससे पहले की भी बात करें तो साल 2014 के लोकसभा चुनावों में नीतीश और भाजपा की राहें अलग-अलग थीं, तब भी बिहार के अंदर एनडीए ने 40 में से 31 सीटें जीत लीं, लेकिन सीमांचल की एक भी सीट उसके हाथ नहीं लगी थी।

इन्हीं तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए अमित शाह ने अपना डेरा पूर्णिया के आस-पास के इलाक़ों में ही डाला है, क्योंकि ख़बर है कि शाह इसके बाद सीमांचल के आसपास वाले इलाक़ों जैसे कोशी, भागलपुर और बांका में भी रैली को संबोधित कर सकते है।

वहीं अगर सीमांचल छोड़ कर पूरे बिहार की विधानसभा पर नज़र डालें तो भाजपा कभी भी अकेले दम पर बहुमत हासिल नहीं कर सकी है, उसे हमेशा दूसरी पार्टी का सहारा लेना ही पड़ा है। जैसे साल 2015 में आरजेडी-जेडीयू और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 178 सीटें जीत लीं, नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन साल 2017 के बीच में भाजपा ने महागठबंधन तोड़कर नीतीश को एनडीए में शामिल करवा लिया, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहे।

नीतीश के और जेडीयू के साथ रहने का नतीजा सबने देखा कि एनडीए ने 2019 के लोकसभा में ज़बरदस्त जीत दर्ज की।

लेकिन साल 2022 में जैसे ही नीतीश कुमार एनडीए से अलग होते हैं, भाजपा की हालत फिर पतली हो जाती है। कहने का मतलब ये है कि बिहार के अंदर भाजपा अकेले दम पर अभी तक अपनी ज़मीन ढूंढ नहीं पाई है, और वो फ़िलहाल इसी की तलाश में है, क्योंकि पूर्णिया में भाषण देते वक्त अमित शाह ने ये बात कई बार दोहराई कि 2024 दे दीजिए, 2025 भी देख लेंगे।

यानी ये कहना ग़लत नहीं होगा कि बिहार में भाजपा को नीतीश का साथ छूट जाने से बहुत तगड़ा झटका लगा है, जिसमें सबसे बड़ी बात ये है कि एनडीए से अलग होने के बाद नीतीश कुमार जिस तरह से सक्रिय हुए हैं, और विपक्षी नेताओं से लगातार मुलाक़ात कर रहे हैं, इससे ज़रूर भाजपा की नींद हराम हो गई होंगी। क्योंकि इसमें भाजपा को दो टेंशन हैं, एक तो नीतीश कुमार और उनकी पार्टी उन्हें केंद्र की मुख्यधारा में ले जाने की तैयारी कर रही है, जिसका समर्थन अब बिहार में सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी भी खुलकर कर रही है, यानी नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के दावेदार न भी हों, लेकिन अगर 40 में 25 लोकसभा सीट भी गठबंधन ने क़ब्ज़ा कर ली, तो भाजपा के लिए खाने और निगलने के लिए शायद ही कुछ बचे। इसके अलावा विधानसभा में जिस तरह से नीतीश कुमार लालू के लाल तेजस्वी को आगे कर रहे हैं, और तेजस्वी को उसी तरह का जनसमर्थन भी मिलता दिख रहा है, तो ऐसे में यहां भी भाजपा के लिए 2025 उतना आसान नहीं होने वाला है।

हालांकि भाजपा का एक हथियार बग़ैर कहे उनके लिए काम कर जाता है, जैसे हम बात अगर सिर्फ़ सीमांचल के चार ज़िलों की करें, तो पिछले चुनावों में यहां पांच सीटों पर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने जीत हासिल की थी, सिर्फ़ इतना ही नहीं बाक़ी सीटों पर उन्होंने आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू के वोट भी ख़ूब काटे थे।

कहने का मतलब ये है कि अगर भाजपा मुस्लिम और हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो गई तो ओवैसी की पार्टी उनके लिए बहुत बड़ा तोहफा पेश कर सकती है। इस बात को लालू प्रसाद यादव भी पहले दोहराते रहे हैं।

अमित शाह का 2024 के शंखनाद के लिए सीधा बिहार आना, ये बताता है कि मामला थोड़ा पेचीदा ज़रूर हो गया है। क्योंकि अमित शाह अपनी रैली में शायद कोई ऐसी बात की हो जो बिहार के विकास से जुड़ी हो। उन्होंने वही अपने पुराने अंदाज़ में ‘’हाथ उठाकर बोलो’’, ‘’ करेंगे या नहीं नहीं करेंगे’’, ‘’सिर्फ़ मोदी जी को ही वोट देंगे’’ टाइप भाषण दिए।

इस दौरान उन्होंने नीतीश कुमार पर सीधा हमला बोला और कहा कि आप सिर्फ़ प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब देखिए। इतना ही नहीं अमित शाह ने लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के रिश्तों को फिर से उलझाने वाले बयान दिए, और कहा कि नीतीश पहले भी लालू को धोखा दे चुके हैं, एक बार फिर देंगे।

कहने का मतलब ये है कि इतना ज़रूर साफ़ हो गया है, कि भाजपा एक बार फिर विपक्षी पार्टियों का, जातियों का, धर्म का ध्रुवीकरण करके ही चुनावी मैदान में उतर गई है। अब देखना ये होगा कि इस बार बिहार के साथ-साथ देश की जनता इसे कितना स्वीकारती है।

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