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भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
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Image courtesy : Business Standard

वाणिज्य मंत्रालय के कुछ अधिकारी हैरान रह गए जब 12 मई 2022 को वाणिज्य मंत्रालय ने घोषणा की कि भारत 2022-23 में 12 मिलियन टन गेहूं का निर्यात करेगा। अधिकारियों ने यह भी घोषणा की कि वे भारत के गेहूं निर्यात को बढ़ावा देने के लिए नौ देशों में प्रतिनिधिमंडल भेजेंगे। अगले ही दिन 13 मई 2022 को मोदी सरकार ने उसी मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले विदेश व्यापार महानिदेशालय (DGFT) द्वारा एक अधिसूचना के माध्यम से गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की। विदेश व्यापार (विकास और विनियमन) अधिनियम 1992 और विदेश व्यापार नीति 2015-20 को लागू करते हुए अधिसूचना ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया।

इस प्रतिबंध के पीछे दो मुख्य कारण थे।यूक्रेन में युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय बाजारों में गेहूं की आपूर्ति में भारी कटौती की। वैश्विक गेहूं की कीमतों में तेज वृद्धि हुई। नतीजतन भारत से अनियंत्रित और अत्यधिक गेहूं का निर्यात गेहूं की कीमतों में  तेज वृद्धि पैदा कर सकता था।  खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकता था। यह गरीबों के लिए मुफ्त खाद्यान्न आपूर्ति कार्यक्रम को वित्तीय रूप से अरक्षणीय (unsustainable) बना देता।

दूसरे गेहूं उगाने वाले उत्तर भारत में पिछले 122 वर्षों में पहली बार अभूतपूर्व गर्मी की लहर ने गेहूं की फसल को लगभग झुलसा दिया।  जिससे उत्पादन में तेज गिरावट का खतरा बन गया। यदि घरेलू बाजार में गेहूं की आपूर्ति प्रभावित होती है, तो वह भी कीमतों में वृद्धि को गति प्रदान करेग और कमी की स्थिति में निर्यात अवहनीय हो जाएगा।

पिछले एक साल में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में गेहूं की कीमत में 30-40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। अधिकांश वृद्धि यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में हुई। इससे भारत के गेहूं निर्यात में तेज उछाल आया। भारत का गेहूं निर्यात जो 2020-21 में केवल 2.21 मिलियन टन था, 2021-22 में बढ़कर 7.85 मिलियन टन हो गया; यह लगभग चार गुना वृद्धि है। भारत में  आटा (गेहूं का आटा) की कीमत में 20% की वृद्धि हुई, जो 2021-22 में गेहूं के ताबड़तोड़ निर्यात के बाद 30 रुपये प्रति किलो से 36 रुपये प्रति किलो हो गयी।

चीन के बाद भारत गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और रूस तीसरे स्थान पर है। अब रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण रूस के निर्यात का बड़ा हिस्सा अवरुद्ध है। ऐसी पृष्ठभूमि में जिस दिन भारत ने गेहूं निर्यात प्रतिबंध की घोषणा की। शिकागो में गेहूं वायदा सूचकांक (wheat futures index) 5.9% बढ़कर 12.7 डॉलर प्रति बुशल (27.21 किलोग्राम) हो गया। यह भारतीय निर्यात के वैश्विक गेहूं निर्यात का केवल 5% हिस्सा होने के बावजूद हुआ।

खैर भारत एक संप्रभु देश है। अपनी बहुपक्षीय व्यापार संधियों की शर्तों के अधीन अपनी जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए भारत यह तय कर सकता है कि क्या निर्यात किया जाए और क्या नहीं? लेकिन भारत के निर्यात प्रतिबंध ने विकसित देशों के भारी दबाव को जन्म दिया जो नव-औपनिवेशिक हस्तक्षेप जैसा था।

16 मई 2022 को जर्मनी में G7 की बैठक के बाद बोलते हुए अमेरिकी कृषि सचिव टॉम विल्सैक ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के भारत के कदम पर "गहरी चिंता" व्यक्त की। उन्होंने कहा कि इससे वैश्विक बाजार में पहले से बढ़े हुए गेहूं की कीमतों में और इजाफा होगा। जी-7 के अन्य नेताओं ने भी भारत की आलोचना की। पुराने शाही लहजे में जर्मन कृषि मंत्री केम ओजडेमिर ने कहा कि इस कदम से भारतीय किसानों को नुकसान होगा क्योंकि निर्यात प्रतिबंध "कीमतों के मामले में एक रोलर-कोस्टर सवारी" (उतार-चढ़ाव वाला) होगा।

16 मई 2022 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक की पूर्व संध्या पर, संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत सुश्री लिंडा थॉमस-ग्रीनफील्ड ने एक प्रेस वार्ता के दौरान टिप्पणी की कि, “भारत सुरक्षा परिषद की बैठक में भाग लेने वालों में से एक होगा। हमें उम्मीद है कि जब वे अन्य देशों द्वारा उठाई गई चिंताओं को सुनेंगे तो वे गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे।“

26 मई 2022 को अमेरिकी ट्रेजरी में सहायक सचिव एलिजाबेथ रोसेनबर्ग ने रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद उससे कच्चे तेल की भारत की खरीद पर चर्चा करने के लिए भारत का दौरा किया। उन्होंने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध का सवाल भी उठाया।

लेकिन भारत अमेरिका और यूरोप के बढ़ते दबाव के आगे नहीं झुका। मुद्रास्फीति भारत में शीर्ष राजनीतिक मुद्दों में से एक बन गई है। मोदी को लगभग 2 साल में आम चुनाव और इस साल गुजरात विधानसभा चुनाव का सामना करना पड़ेगा; ऐसे में महंगाई को नियंत्रण से बाहर जाने देना राजनीतिक रूप से आत्मघाती होता।

राजनीतिक कारणों के अलावा यूएसडीए (अमेरिकी कृषि विभाग) ने खुद अनुमान लगाया है कि गर्मी की लहर के कारण गेहूं की उपज 10-20% कम हो जाएगी और 2021-22 में भारत का कुल गेहूं उत्पादन 111 मिलियन टन की रिकॉर्ड बम्पर फसल से कम होकर 2022-23 में लगभग 99 मिलियन टन हो सकता है। भारत ने 2021-22 में 8.5 मिलियन टन गेहूं का निर्यात किया और यूएसडीए ने 2022-23 में भारत से 1 करोड़ टन गेहूं के निर्यात का अनुमान लगाया था लेकिन हीटवेव के बाद अनुमान को घटाकर केवल 6 मिलियन टन गेहूं निर्यात किया गया। इसलिए ऐसी पृष्ठभूमि में भारत के गेहूं निर्यात प्रतिबंध की अमेरिकी आलोचना का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन शाही आदतें मुश्किल से जाती हैं!

24 मई 2022 को विदेश व्यापार महानिदेशालय ने अधिसूचित किया कि 1 जून 2022 से चीनी निर्यात को प्रतिबंधित श्रेणी में लाया जाएगा। इस फैसले की महाराष्ट्र में समृद्ध गन्ना उत्पादकों की लॉबी ने आलोचना की। एनसीपी और शिवसेना नेताओं ने कहा कि निर्णय विपक्ष शासित महाराष्ट्र पर लक्षित था और किसान नेता राजू शेट्टी ने निर्णय को "मूर्खतापूर्ण" भी कहा। लेकिन वास्तविकता यह है कि न केवल विपक्ष शासित मुख्य चीनी उत्पादक राज्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु प्रभावित होंगे बल्कि अगले साल विधानसभा चुनाव का सामना कर रहे कर्नाटक और भाजपा शासित यूपी भी प्रभावित होंगे।

चीनी की कीमतों में 25-30% की वृद्धि से भाजपा को चुनावों में कड़वे घूंट पीने पड़ सकते हैं। कृषि माल (agricultural commodities) में अनियंत्रित मुक्त व्यापार की राजनीतिक मजबूरियां ऐसी हैं। अगर मोदी के 3 कृषि कानून पारित हो गए होते तो सरकार आसानी से निर्यात प्रतिबंध नहीं लगा पाती, क्योंकि खाद्य पदार्थों के व्यापार पर हावी होने वाले शक्तिशाली कॉर्पोरेट हित प्रबल होते।

गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है। अफवाहों को खारिज करने के बजाय, सरकारी सूत्रों ने एनडीटीवी को बताया कि सरकार 26 मई 2022 को चावल के निर्यात पर " संयत " दृष्टिकोण अपनाएगी। उत्तर में मुख्य खाद्य फसल गेहूं के विपरीत धान मुख्य रूप से दक्षिण में उगाया जाता है।

मोदी सरकार कृषि माल पर अपने निर्यात प्रतिबंध में चयनात्मक रही है। भारत से कपास का निर्यात भी बढ़ रहा था। कॉटन की कीमतें भी 2021-22 के दौरान अभूतपूर्व स्तर तक पहुंच गई थीं। तमिलनाडु में कताई मिलों के मालिकों की संस्था साउथ इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन (South India Spinner’s Association)और तिरुपुर होजरी यूनिट्स एसोसिएशन (Thirupur Hoisery Units’ Association) आदि ने बार-बार केंद्र सरकार से कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की अपील की। लेकिन ऐसी अपीलें बहरी सरकार को न जगा पाईं।

साउथ इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन के एक प्रेस नोट के अनुसार, "जनवरी में, कपास की कीमत 75,000 रुपये प्रति कैंडी (356 किग्रा) थी जो मई में 53% बढ़कर 1.15 लाख रुपये प्रति कैंडी हो गई। प्रति किलो यार्न की कीमत 328 रुपये थी और यह केवल 21% बढ़कर 399 रुपये प्रति किलो हो गया है।" नतीजतन, कताई मिलें अपनी परिचालन लागत को तक निकाल नहीं कर पा रही हैं, लाभ की बात तो छोड़ ही दीजिये। इसलिए तमिलनाडु में कताई मिलों ने 23 मई 2022 से उत्पादन बंद करने का फैसला किया। तमिलनाडु में 57 लाख किलोग्राम सूती धागे का दैनिक उत्पादन, जो कि 120 लाख किलोग्राम के कुल राष्ट्रीय उत्पादन का लगभग 50% था, बंद हो गया। .

तमिलनाडु में लगभग 1700 कताई मिलें हैं जो देश में यार्न उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा संभालती हैं और गुजरात और महाराष्ट्र  के लिये यार्न के मुख्य आपूर्तिकर्ता हैं। कताई मिलों के अलावा, पावरलूम और होजरी इकाइयाँ भी कताई मिलों द्वारा आपूर्ति किए गए सूत पर निर्भर हैं।

अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों की कताई मिलें भी उत्पादन  की बन्दी में शामिल हो गईं। कपड़ा इकाइयों की अखिल भारतीय शीर्ष संस्था, भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ ने भी प्रतिरोध में बंदी का समर्थन किया।

मोदी दक्षिण भारतीय कताई मिल मालिकों की याचना को संबोधित करने में विफल हो ही सकते हैं। लेकिन, विडंबना यह है कि यह समस्या उनके गृह राज्य गुजरात पर हावी हो गई। अहमदाबाद में लगभग 50 बुनाई मिलों ने काम बंद कर दिया क्योंकि उन्हें दक्षिण से धागा नहीं मिल रहा था। और गुजरात में इस साल चुनाव हैं। तमिलनाडु में लाखों श्रमिक- हथकरघा, पावरलूम, होजरी, और बुनाई मिल के श्रमिकों के अलावा कताई मिलों के श्रमिक पहले से ही प्रभावित हैं क्योंकि उत्पादन एक सप्ताह से बंद है और कई दिहाड़ी मजदूरों को कोई भुगतान नहीं मिल रहा है।

बंद के एक हफ्ते बाद भी केंद्र ने कपास पर निर्यात प्रतिबंध की घोषणा नहीं की है और लाखों कपड़ा श्रमिकों के लिए काम बंद होने के गंभीर सामाजिक प्रभाव को देखते हुए विरोध कर रहे मिल मालिकों को बातचीत के लिए आमंत्रित भी नहीं किया। गेहूं और कपास के प्रति इस भेदभावपूर्ण रवय्ये के पीछे क्या रहस्य है? इसका उत्तर इस तथ्य में निहित है कि भारत से कपास निर्यात में गुजरात का योगदान 45% है, हालांकि यह भारत के कुल कपास उत्पादन में केवल 25% का योगदान  है। तमिलनाडु और यहां तक कि गुजरात में कपड़ा श्रमिकों की पीड़ा की तुलना में केंद्र गुजरात निर्यातकों की लॉबी के हितों के प्रति अधिक संवेदनशील प्रतीत होता है और वह भी चुनावी वर्ष में। कारण का अनुमान लगाना आसान है।

हैरानी की बात है कि जब मोदी ने इस संकट के बीच तमिलनाडु का दौरा किया तो (डीएमके के) तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन तमिलनाडु को नीट परीक्षा से छूट दिलाने की पुरानी, घिसी-पिटी थीम पर ही चिल्लाते रहे और इस उभरते हुए कपड़ा संकट पर एक शब्द भी नहीं बोले। कैसा कठोर सहकारी संघवाद है यह!

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