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एक आधी-अधूरी योजना के साथ लॉकडाउन नयी चुनौतियों को जन्म देता है

यदि सरकार अब भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश को नज़रअंदाज़ करती है, तो इसका संदेश तो यही होगा कि उसे भी कोई परवाह नहीं है।
लॉकडाउन

कोविड-19 महामारी और इससे जुडी चिंताओं से निपटने के लिए केंद्र सरकार की उदासीनता इस हक़ीक़त से साफ़ तौर पर सामने आयी है कि 21 दिन के देशव्यापी लॉकडाउन के बीच भी प्रवासी श्रमिकों और उनके परिवारों को नुकसान और मौत का सामना करना पड़ा, जिन मौतों में एक अति उत्साही पुलिस बल के हाथों हुई मौत भी शामिल हैं। इसका कारण अचानक शुरू किया गया वह लॉकडाउन है, जिससे लोगों को मुश्किल से चार घंटे का समय मिल पाया।

इस अचानक हुई घोषणा के बाद, अफ़सरों को उन प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा को भांपने में 48 घंटे लग गये, जो अपने-अपने मूल स्थानों के लिए जाना शुरू कर चुके थे। यह इस हक़ीक़त को और पुख़्ता करता है कि अपने सभी तरह के बढ़ा-चढ़ाकर किये जाने वाले दावों के बीच सरकार इस स्थिति की गंभीरता से बेख़बर रही।

अफ़सरों ने लॉकडाउन की घोषणा से पहले न तो किसी तरह की तैयारी की और न ही कोई योजना बनायी, इसलिए, जब उन्हें लगा कि इतनी देर हो गयी है कि कोविड-19 को फैलने से रोकने के लिए कुछ सख़्त किये जाने की ज़रूरत है, तो उन्होंने एक झटके वाले अंदाज़ में यह फ़ैसला कर लिया। इस प्रक्रिया में वे भूल गये कि एक और मानव त्रासदी सामने आने वाली थी, क्योंकि लोग अपनी नौकरी गंवा चुके थे या वे अपने आश्रयों के बाहर क़ैद थे, जहां सुरक्षा का कोई सहारा नहीं था, और उनके पास इस बात के अलावा कोई चारा भी नहीं था कि वे सैकड़ों मील दूर अपने-अपने गांवों स्थित घर लौट जायें। और फिर उनका सामना जब परिवहन के स्थगन यानी बस और ट्रेन बंद होने से हुआ, तब तो उनके पास पैदल सफ़र करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा।

सबसे अच्छे समय में भी भारत के श्रमिक वर्गों ने सबसे ख़राब दौर को देखा है, उनसे घंटों-घंटों काम लिया जाता रहा है, कम मज़दूरी दी जाती रही है, उनके रहने-सहने की स्थिति बेहद ख़राब रही है, ख़राब पोषण मिलता रहा है, पूंजी और प्रशासन, दोनों मिलकर उनके अधिकारों का दमन करते रहे हैं। नतीजतन, उनके लिए कथित आर्थिक उदारीकरण के बाद से जितना ज़्यादा बदलाव आया, उनके लिए उतना ही कोई बदलाव नहीं दिखा। ऐसे में वे उन्हीं संस्थानों के रहमो-करम पर कैसे रहेंगे, जिन्होंने योजना बनाने और तैयार करने में नाकाम होने के कारण उनके लिए यह नवीनतम संकट पैदा कर दिया है ?

याद कीजिए कि उत्तर प्रदेश सहित भाजपा शासित राज्य की सरकारें और केंद्रीय मंत्री किस तरह या तो किसी प्रकार की कार्रवाई करने को लेकर नदारद थे या फिर फैल रहे वायरस के चमत्कारी इलाज के रूप में गऊ-गोबर-गौमूत्र के तिकड़ी को बढ़ावा देने में व्यस्त थे। दरअसल, प्रधानमंत्री द्वारा लॉकडाउन की घोषणा किये जाने के बाद भी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के दो मुख्यमंत्रियों ने उनके निर्देशों की अवहेलना की और भीड़ को इकट्ठा किया या भीड़ भरे कार्यक्रमों का आयोजन किया, इस प्रकार लॉकडाउन के पीछे बहुत ही महत्वपूर्ण उद्देश्य- सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ा दी गयीं।

इस बीच, कई केंद्रीय मंत्री कार्रवाई नहीं करते रहे या तंग तक़रारों में व्यस्त रहे। एक मंत्री तो भारत के घरेलू एयरलाइंस में उड़ान के दौरान एक लोकप्रिय स्टैंड-अप कॉमेडियन पर प्रतिबंध लगाने के अपने स्वधर्म के बचाव करने में व्यस्त था, क्योंकि उस कॉमेडियन ने उड़ान के दौरान सरकार के पसंदीदा एंकर को छेड़ने का दु:साहस किया था। एक अन्य मंत्री टीवी पर प्रसारित हो रहे ‘रामायण’ श्रृंखला देखने में व्यस्त था, जबकि लाखों प्रवासी मज़दूर और उनके परिवार राजमार्गों पर फंस हुए थे। और, यह आम बात नहीं है कि सत्तारूढ़ दल के कई बदज़बान डींगें हांकने वाले लोग, इस संकट की घड़ी में भी नागरिक-प्रदर्शनकारियों पर बदला भांजने का अवसर ढूंढ रहे थे। दिल्ली के शाहीन बाग़ में चल रहे धरना को राष्ट्रद्रोह बताकर पुलिस की निगरानी में उपद्रव मचाया गया।

इस सरकार में सत्ता की केंद्रीयता इस हद तक है कि जब तक प्रधानमंत्री ने स्थिति की गंभीरता के बारे में बात नहीं की, सत्तारूढ़ भाजपा ने इस ख़तरे को गंभीरता से नहीं लिया। सम्मानजनक अपवादों को छोड़ दिया जाय, तो मीडिया का एक बड़ा तबका इलाज के बजाय तुच्छ उपचारों से अपनी बुनियादी प्रकृति के हिसाब से ही अपने-अपने काम में व्यस्त रहा और ऐसा करते हुए इस ख़तरे की गंभीरता को भी छोटा बनाता रहा।

इसका नतीजा यह हुआ कि क़रीब दो महीने की अग्रिम चेतावनी के बावजूद, केंद्र सरकार ने सुरक्षात्मक व्यक्तिगत उपकरण (PPE), N95 मास्क, दस्ताने, टेस्ट-किट और वेंटिलेटर हासिल करने में आख़िरकार नाकाम रही। जिस तरह सैनिकों को बंदूकों और सुरक्षात्मक साज़-ओ-सामान के बिना किसी युद्ध पर लड़ने के लिए नहीं भेजा जा सकता है, उसी तरह, नोवेल कोरोनावायरस के ख़िलाफ़ इस लड़ाई में भी चिकित्सा कर्मियों को तत्काल पीपीई, एन 95 मास्क और दस्ताने की ज़रूरत होती है।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अब जाकर कहा है कि चिकित्सा कर्मियों तक पीपीई को पहुंचने में 25 से 30 दिन का समय लगेगा, जिसकी उन्हें तुरंत ज़रूरत है। उनका कहना है कि भारत को 7.25 लाख पीपीई, 60 लाख N95 मास्क और 1 करोड़ तीन-स्तरीय फेस मास्क की ज़रूरत है। हालांकि, अब जाकर आदेश दिये गये हैं। ऑर्डर देने में हुई इस देरी से जो कुछ जुड़ा हुआ है, वह है, प्रशिक्षित जनशक्ति का अभाव होना। अगर संक्षेप में कहा जाय,तो कहा जा सकता है कि इस देरी से की गयी पहल मानव निर्मित त्रुटियों को दर्शाती है,जो स्थिति को पहले से ही बिगाड़ कर रख चुकी है।

इस बीच, सरकार, भारत के बाहर से आने वाले लोगों की स्क्रीनिंग को लेकर सतर्क थी, और विदेश में फंसे लोगों के लिए उड़ानों का इंतज़ाम कर रही थी। लेकिन, देश के भीतर फंसे लाखों दिहाड़ी मज़दूरों, ठेका मज़दूरों, स्वनियोजित लोगों और उनके परिवारों के लिए सरकार सोचने का समय बिल्कुल नहीं निकाल पायी। सच्चाई तो यह है कि सभी परिवहन को अचानक रोक दिया गया और उनके रहने, भोजन और गंवा चुकी मज़दूरी के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गयी, ये हालात बताते हैं कि एक परतों में बंटे और वर्ग को लेकर सचेत समाज में "वे लोग,जो हमारे जैसे नहीं हैं" सरकार की नज़र में बहुत कम अहमियत रखते हैं। वे हुक़्मरानों की चेतना में तभी जगह बना पाते हैं, जब किसी त्रासदी से वास्ता पड़ता है या जब वोट लेने का समय आता है।

लगातार हुए मीडिया कवरेज की वजह से सरकार हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर हुई। यहां तक कि इस मानव निर्मित त्रासदी के बीच भी उत्तर प्रदेश और बिहार में अधिकारियों ने लॉकडाउन को लागू करने के क्रूर तरीक़े अपनाये, पहले तो प्रवासी श्रमिकों (कुछ अपने परिवारों के साथ) को एक ख़ास जगह पर आने का लालच दिया गया और फिर उन्हें अंदर कर दिया गया। मगर, स्वतंत्र मीडिया ने ख़ुद को बहुत जोखिम में डालकर ग्राउंड रिपोर्टिंग नहीं की होती, तो भारत के लोगों को सामने आयी इस मानव त्रासदी की पूरी तस्वीर के बारे में पता भी नहीं चल पाता।

यह अलग बात है कि किसी महामारी के दौरान कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है, लेकिन तब यह किसी अपराध से कम नहीं माना जाता है, जब ख़राब योजना और आधी-अधूरी तैयारी के कारण लोगों की मौत हो। इससे भी बदतर किसी पुलिस बल के हाथों मरना है या सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने की कोशिश में भूख और / या थकावट के कारण मर जाना है। इससे होने वाली मौत का आंकड़ा चौबीस तक पहुंच गया है और वो अभी बढ़ ही रहा है।

फिर भी, हमें इस बात से ख़ुश होना चाहिए कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, जो महामारी को लेकर इनकार करते रहे, यहां तक कि इसे एक धोखा कहते रहे, या ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोल्सनारो, जो अब भी इस बात पर ज़ोर देते हैं कि यह कोई महामारी ही नहीं है, या ब्रिटिश पीएम, जिन्होंने "समूह प्रतिरक्षा (herd immunity) " की बात की थी, इन सबके विपरीत भारतीय प्रधानमंत्री इस गंभीर ख़तरे को ख़ारिज नहीं कर रहे हैं। हालांकि, यह एक बहुत बड़ी हक़ीक़त है कि पूरे देश को आधिकारिक तौर पर उनकी घोषणा का लम्बा इंतज़ार करना पड़ा, और इससे पहले कि कुछ भी आधिकारिक नहीं कहा जा रहा था, निर्णय लेने और नीति-निर्माण की ऐसे केंद्रीकरण के नुकसान खुलकर सामने आने लगी है।

यह सरकार के भीतर की आवाज़ नहीं है,जिसने उन्हें सावधान किया। बल्कि ख़तरे के इन हालात को चिकित्सा पेशेवरों और विशेषज्ञों द्वारा सामने लाया गया है, जिसने सरकार को कार्य करने के लिए मजबूर कर दिया। कोई शक नहीं कि यह सरकार इस संकट को लेकर सबसे ज़्यादा बेपरवाह रही है। सरकार ने अच्छा-खासा समय बर्बाद कर दिया है और विपक्षी दलों और नागरिक-प्रदर्शनकारियों के साथ धिंगामुस्ती करने, अपना पसंदीदा खेल खेलने और विपक्ष शासित राज्यों को अस्थिर करने में अपना बहुत ही अहम समय गंवा दिया है।

इस लिहाज से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि चीन के ख़िलाफ़ कोई भी डॉक्टर कितना कुछ सुनाता है और कोई एंकर कितना मज़ाक उड़ाता है और महामारी को नियंत्रित करने के लिए चीन के उठाये गये कठोर उपायों की शिकायत करता है, भारत सहित दूसरे देशों की सरकारों ने भी यह अपराध किया है, उन्होंने दूर से ही चीन की दुर्दशा को देखा है और उसका मज़ा भी लिया है, लेकिन अब तो उनके ही लिए यह संकट एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है।

वे भूल गये कि उनके पास तैयारी के लिए क़ीमती समय था, जबकि चीन ने हुबेई प्रांत में लॉकडाउन लागू करने के लिए कठोर क़दम उठाये, ताकि वायरस को बाहर फैलने से रोका जा सके। संक्रमित व्यक्तियों का पता लगाने, परीक्षण करने, अलग-थलग करने और उपचार करने का चीन का रिकॉर्ड उल्लेखनीय है और किसी भी तरह की शुरुआती गड़बड़ियों के बावजूद कहीं अधिक अहम है। पश्चिमी मीडिया, जो चीन का आलोचक था, और वहां जो कुछ हो रहा था, उसका बारीकी से नज़र रखते हुए अपनी ही सरकार से यह पूछने में देरी कर रहा था कि जो ख़तरा दिख रहा, उससे निपटने के लिए वहां की सरकारें क्या कर रही हैं।

मुद्दा तो यह भी है कि दुनिया को इस बात की जानकारी थी कि हुबेई में क्या कुछ हुआ था और इस वायरस को लेकर ख़बरों के शुरुआती छिपाव ने एक सख़्त लॉकडाउन की ज़रूरत को कैसे बढ़ा दिया था। इससे सीखने और इसके लिए तैयारी में वही ग़लती नहीं दोहराये जाने के बजाय, जैसा कि दक्षिण कोरिया जैसे कुछ देशों ने किया है, भारत सहित अधिकांश देश घरेलू तक़रारों में व्यस्त रहे और / या सामाजिक विभाजन को लागू करने में अपना क़ीमती समय बर्बाद कर दिया, जिसने इस महामारी से होने वाले ख़तरे की गंभीरता कम दिखती रही।

भारत, विशेष रूप से इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जहां विभाजनकारी क़ानूनों और नीतियों को बढ़ावा दिया गया और नागरिक-प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ पुलिस की क्रूरता,उभरते हुए "नये" मध्ययुगीन हुक़ूमत की सांकेतिक धुन बन गयी। इसलिए, भाजपा के नेता, यहां तक कि लॉकडाउन के दरम्यान भी भीड़ इकट्ठा करते रहे और उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई तक नहीं की गयी, लेकिन अगर आम नागरिक उसी तरह अवहेलना करते पाये गये, तो उन सभी को खदेड़ दिया जाता रहा है। कुल मिलाकर, भारत ने अपना क़ीमती समय खो दिया है। यह चूक सही मायने में एक आपराधिक कृत्य है, जिसके नतीजे उच्च मृत्यु दर और वायरस के अधिक जल्दी फैलने के सिलसिले में महसूस किये जायेंगे।

ऐसी स्थिति में लॉकडाउन क्रूर और सख़्त हो जाता है। यह भारतीय राज्य और समाज के बारे में कुछ कड़वी सचाइयों को उजागर करता है, जिसकी गहरी जड़ों में दारारें हैं और जिसके भीतर घोर असहमति है और जिसमें दया और सहानुभूति की कमी है। उत्तर प्रदेश में, सीएए, एनआरसी और एनपीआर के ख़िलाफ़ बोलने वाले नागरिक-प्रदर्शनकारियों की तलाश में अधिकारियों ने असाधारण स्थिति का उपयोग किया है। इसके लिए किसी को फटकार का एक शब्द नहीं कहा गया, या भाजपा नेताओं की ओर से लॉकडाउन की अवहेलना पर किसी तरह की कोई बात नहीं तक नहीं हुई है, अफ़सोसनाक है कि भाजपा केवल एक ही व्यक्ति की सुनती है, और वह हैं ख़ुद प्रधानमंत्री।

नतीजतन, जब नव-मध्ययुगीन प्रवृत्तियां हुक़ूमत करती हैं, तो पुलिस बल भी अपनी वास्तविक औपनिवेशिक जड़ों और चरित्र के साथ सामने आता है। वह वही हैं, जिसे ऐसा होने के लिए तैयार किया गया था: भारतीयों को अधीन रखने और जंजीरों में जकड़ने के लिए। साफ़ है कि लॉकडाउन को लागू करने के लिए पुलिस के निचले कर्मचारियों को निर्देश दे दिया गया था, उसी तरह जैसे कि उन्हें सरकार के आलोचकों और असंतुष्टों के पीछे पड़ने के लिए कहा जा रहा है। यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि सरकार ने तैयारी ही नहीं की थी और इस गंभीर स्थिति के पैदा होने के प्रति उदासीन बनी हुई थी, जहां प्रवासी श्रमिकों को ख़ुद के बचाव के सहारे लिए छोड़ दिया गया। यह चूक उस स्वास्थ्य प्रणाली के ऊपर से आती है, जिसका कल्याणकारी उपायों को लेकर नव-उदारवादी पलटाव का तीन दशकों का सामना रहा है, जिसने उस सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को पूंजी निवेश से वंचित कर दिया है, जिसे अब तक हर भारतीय तक उसके जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में पहुंचना चाहिए था।

अब तो भारत सरकार का प्रतिगामी मिजाज़ हमें चुभ रहा है और चोट पहुँचा रहा है। हालांकि, वह निष्ठावान,जो अपनी अज्ञानता और अंधविश्वास का समर्थन करते हैं, और विज्ञान और तार्किक सोच के साथ असहज हैं, पिछले लगभग 70 वर्षों के हासिल को ख़त्म करने में अभी तक सफल नहीं हुए हैं। लेकिन, इसे लेकर भारत की स्थिति और खराब होती और शायद उसी नाव में होता, जिस तरह की नाव में इस वक्त अमेरिका सवार है।

इसलिए,यहां सरकार को स्वास्थ्य प्रणाली के जीवन को नष्ट करने वाले निजीकरण के दुस्साहसी रास्ते से दूर जाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में निवेश करने और उसके विस्तार की दिशा में आगे बढ़ने की संभावना है, ताकि स्वास्थ्य सेवा हर भारतीय तक पहुंच सके। स्पेन में, सरकार कोविड-19 से लड़ने के लिए निजी स्वास्थ्य प्रणाली का राष्ट्रीयकरण करने के लिए तत्पर है। यहां तक कि पूंजीवाद के केंद्रीय स्थल, संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक-वित्त पोषित स्वास्थ्य सेवा को लेकर लोकप्रिय समर्थन बढ़ रहा है। ब्रिटेन में राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली को खोखला करने के लिए कुख्यात सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी अब उसकी प्रशंसा के गीत गा रही है। चूंकि भारतीय संभ्रांत अंग्रेज़ों की दुनिया से ही अपनी प्रेरणा लेते, इसलिए, अब समय आ गया है कि वे यह महसूस करें कि भारत में भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में निवेश एक अपरिहार्य, लेकिन समझदारी वाला विकल्प बन गया है।

सरकार अगर इस मोर्चे पर अपना दमखम नहीं दिखाती है और प्रभावी तरीक़े से महामारी से नहीं निपट पाती है, और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों में निवेश नहीं करती है, तब, जब हम इस महामारी से बाहर आ चुके होंगे, तो भविष्य में इस तरह की चुनौतियों का सामना करने की हमारी क्षमता, अकेले इस बुराई को और अधिक बुरी होने से रोकेगी, इससे हमेशा की तरह एक स्वाभाविक संदेश जायेगा: अगर स्वास्थ्य सेवाओं पर जो ख़र्च नहीं कर सकता और सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल तक जिसकी पहुंच नहीं होगी, वे नष्ट हो जायेंगे। इस बार ही अगर सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के पुकार को अनसुनी करती है, तो स्वास्थ्य सेवाओं की तरफ़ से भी एक स्पष्ट संदेश मिलेगा कि उन्हें भी लोगों की परवाह नहीं है।

(लेखक एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

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