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विशेष सक्षमता (दिव्यांगता) अधिनियम में प्रस्तावित बदलाव को क्यों छोड़ा जाना चाहिए

इन संशोधनों से शारीरिक या मानसिक रूप से विशेष सक्षम व्यक्तियों (सरकारी भाषा में दिव्यांगों) की क़ीमत पर ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नस (व्यवसाय करने में सहूलियत) बढ़ावा मिलेगा।
Disabilities Act Must be Dropped

कोविड-19 संकट की शुरुआत के बाद से ही यह तर्क बार-बार दिया जाता रहा है कि पीडब्लूडी यानी विशेष सक्षम व्यक्ति (PWDs : persons with disabilities) ख़ास तौर पर इस वायरस को लेकर संवेदनशील हैं और इसलिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के आर्थिक और सामाजिक प्रभावों और सक्षम नीतियों से ज़्यादा पीड़ित होने की आशंका के अलावा उनके संक्रमित होने की संभावना ज़्यादा है।

हालांकि विशेष सक्षमता वाले लोगों के अधिकार को लेकर काम करने वाले कार्यकर्ता भारत में इस महामारी को लेकर इन्हें अलग-थलग करने की ओर इशारा कर रहे थे, इसी बीच सरकार ने विशेष सक्षम लोगों के अधिकार अधिनियम (RPWD), 2016 पर एक और प्रहार कर दिया है।

विशेष सक्षम व्यक्तियों के अधिकारिता विभाग या डीईपीडब्ल्यूडी और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय (एमएसजेई) ने एक संशोधन पर सुझाव और टिप्पणियां मांगी हैं, जिसका उद्देश्य इस अधिनियम की धारा 89, 92 और 93 में दिये गये अपराधों में कटौती करना है।

धारा 89 उन लोगों पर 10,000 रुपये का जुर्माना लगाती है,जो इस क़ानून का एक बार उल्लंघन करते हैं और बार-बार उल्लंघन करने वालों पर यह क़ानून 50,000 रुपये से लेकर 5,00,000 रुपये का जुर्माना लगाता है। धारा 92 में छह महीने की सज़ा का प्रावधान है,जो पांच साल तक की हो सकती है और साथ ही साथ उनके ख़िलाफ़ जुर्माना भी लगाया जा सकता है, जो सार्वजनिक रूप से विशेष सक्षम व्यक्तियों का अपमान या तिरस्कार करते हैं। धारा 93 क़ानूनी रूप से अनिवार्य सूचना दिये जाने से इंकार करने वाले व्यक्ति के ख़िलाफ़ 25,000 रुपये के जुर्माने का प्रावधान करता है।

डीईपीडब्ल्यूडी एक और प्रावधान जोड़ना चाहता है, जो कि धारा 95A है, जिसके तहत उपरोक्त सभी अपराधों को इस अधिनियम के तहत कार्यवाही शुरू होने से पहले ही या बाद में एक साथ क्षमादान (या माफ़ी) दिया जा सके। ऐसा पीड़ित व्यक्तियों की सहमति मिल जाने के बाद पीडब्ल्यूडी के मुख्य आयुक्त या राज्य आयुक्त द्वारा किया जा सकता है। यह अधिनियम आगे कहता है कि अगर इनमें से किसी भी अपराध से मुक्त किया जाता है, तो अपराधी को हिरासत से छोड़ा जा सकता है और उसके बाद कार्यवाही को भी स्थगित किया जा सकता है।

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम एक अधिकार-आधारित क़ानून है, जिसके बारे में यह सोचा गया था कि यह उन पीडब्ल्यूडी की गरिमा को बहाल कर सकता है, जिन्हें रोज़गार और शिक्षा में समान अवसरों से वंचित कर दिया गया था। इस अधिनियम की कुछ सबसे चर्चित विशिष्टताओं में से यह भी है कि यह सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में इनके लिए सीटों के आरक्षण को लागू करता है, पीडब्ल्यूडी के लिए सुलभ बुनियादी ढांचा और अनुकूल माहौल देता है और आम तौर पर उनके विकास और समावेशन की सुविधा मुहैया कराता है। यह क़ानून महत्वपूर्ण रूप से निजी संस्थाओं पर समान अवसर की नीतियां बनाने, भेदभाव को रोकने और उचित आवास मुहैया कराने जैसी कुछ बाध्यतायें भी लागू करता है।

इस सब को देखते हुए इस अधिनियम की धारा 89 को निरस्त करना, जो इसके उल्लंघन के लिए दंड और जुर्माने का प्रावधान करता है, ख़ास तौर पर एक बहुत ही ख़तरनाक क़दम है, क्योंकि इसके ठोस प्रावधानों को सरकारी और निजी दोनों ही संस्थाओं द्वारा गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था।

यह इस तथ्य से साफ़ होता है कि आधे से ज़्यादा राज्यों ने इस अधिनियम को अधिसूचित तक नहीं किया है, 22 में से बारह राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों ने पीडब्ल्यूडी के लिए 5% आरक्षण नहीं दिया है (जैसा कि धारा 32 द्वारा अनिवार्य है), सिर्फ़ नौ राज्यों ने धारा 72 द्वारा अनिवार्य दिव्यांगता पर राज्य सलाहकार बोर्ड का गठन किया है और सिर्फ़ छह राज्यों ने इस दिव्यांगता के लिए राज्य कोष (धारा 88) बनाये रखने के सिलसिले में कुछ प्रगति की है ।

निजी क्षेत्र में भेदभाव को रोकने और उचित आवास मुहैया कराये जाने जैसे वैधानिक दायित्वों को शायद ही कभी गंभीरता से लिया जाता हो। इस हक़ीक़त का आसानी से अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में शीर्ष कंपनियों में जितने पीडब्ल्यूडी नौकरी करते हैं,उनकी संख्या 0.5% से भी कम है।

अब अगर सज़ा को पूरी तरह से हटा दिया जाता है, तो सरकारी और निजी संस्थाओं को किसी भी तरह से इस अधिनियम का उल्लंघन करने से नहीं रोका जा सकेगा। इससे इस अधिनियम के तहत दिये गये सभी अधिकार बेमानी हो जायेंगे।

इसके अलावा, धारा 92 (सार्वजनिक दृष्टि से पीडब्ल्यूडी के ख़िलाफ़ अत्याचार की सज़ा) के तहत होने वाले अपराधों के क्षमादान के लिए अनुमति देना विकलांगों के हितों के लिए बेहद नुकसानदेह है। "सार्वजनिक दृष्टि" शब्द किसी भी मामले में इस तबके के दायरे को सीमित करता है। इसका मतलब यह है कि निजी तौर पर या नज़र बचाकर किये गये अपराध यानी अपमान, धमकी और इसी तरह के दूसरे अपराधों को पहले से ही इस क़ानून के तहत बाहर रखा गया है। यह प्रावधान पहले से ही इस अधिनियम की उस भावना और उद्देश्य का उल्लंघन करता है, जो कि पीडब्ल्यूडी के अधिकारों और सम्मान को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है। व्यक्तिगत रूप से किए जाने वाले अत्याचारों या दिये गये असंवेदनशील बयानों के लिए अनुमति देना, उन पीडब्ल्यूडी पर एक अतिरिक्त बोझ डालता है, जो पहले से ही बुनियादी ढांचे की कमियों और सामाजिक भेदभाव के कारण भावनात्मक या मानसिक दबाव में हैं।

इस प्रकार,पहले से ही सीमित प्रावधान,जो इस अधिनियम के ख़िलाफ़ है, अब व्यावहारिक तौर पर निजी और सरकारी घटकों को अत्याचार करने की अनुमति देकर इस अधिनियम को आगे और कमज़ोर किया जा रहा है।

डब्ल्यूईपीडब्ल्यूडी और एमएसजेई के सुझावों का एक अजीब पहलू यह है कि एनसीआरबी ने पीडब्ल्यूडी के ख़िलाफ़ अत्याचार से सम्बन्धित कोई भी विशिष्ट आंकड़ा कभी प्रकाशित किया ही नहीं गया है। इस प्रकार, किसी ठोस व्यावहारिक आंकड़ों के बिना,सिर्फ़ एक धारणा कि इस तरह के अत्याचार नहीं होते हैं या नगण्य होते हैं,इस आधार पर इस क़ानून में संशोधन किया जा रहा है। राज्य की ओर से पीडब्ल्यूडी की रक्षा करने वाले इस अधिनियम के दंडात्मक प्रावधानों को प्रभावी ढंग से अपराध से बाहर किया जाना एकदम से अतार्किक है।

इसके अलावा, पीड़ितों की "सहमति" के साथ अपराधों के क्षमादान के प्रस्ताव में पीडब्ल्यूडी के अपराधों की उस गंभीरता और सिद्धांत को ध्यान में नहीं रखा गया है कि ऐसे अपराधियों को निरापद रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इससे भी बदतर तो यह है कि यह संशोधन इस बात को भी नज़रअंदाज कर देता है कि जब पीड़ित सीमित संसाधनों वाला पीडब्लूडी हो और अपराध करने वाला भारी भरकम आर्थिक पूंजी और बाहुबल वाला राज्य या निजी संस्था हो, तो "सहमति" हासिल करना कितना मुश्किल हो सकता है।

इसलिए, धारा 95A को जोड़े जाने के इस प्रस्ताव को सक्षम राज्य द्वारा इस अधिनियम को शक्तिहीन बनाये जाने वाले एक प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। अगर यह संशोधन क़ानूनी तौर पर प्रभावी हो जाता है, तो कोई शक नहीं कि यह पीडब्ल्यूडी के अधिकारों की क़ीमत पर ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नस (व्यवसाय करने में सहूलियत) को बढ़ावा मिलेगा। इस तरह की संज्ञात्मक रियायत संवैधानिक रूप से अनुचित होगी।

यहां तक कि इस संशोधन को लेकर सूचित किये जाने का तरीक़ा भी कई मायनों में संदेह पैदा करता है। विशेष सक्षम व्यक्तियों के अधिकार के लिए लड़ने वाले जिन सात संगठनों को पत्र भेजा गया था, उन्हें मनमाने ढंग से चुना गया है, क्योंकि उनके चुने जाने के आधार का ख़ुलासा नहीं किया गया है।

समावेशी नीतियों को बनाते हुए प्रभावित होने वालों से विचार-विमर्श करना एक महत्वपूर्ण क़दम होता है। पीडब्ल्यूडी के जीवंत अनुभवों को सक्षम लोगों द्वारा बिल्कुल नहीं समझा जा सकता है। सरकार को अपने विचारों को प्रसारित करने के लिए विभिन्न मंचों को चुनने के बजाय, विशेष रूप से इस तरह के संशोधनों को लेकर बड़े पैमाने पर आम लोगों,और ख़ासकर विशेष सक्षम समुदाय को सूचित करना चाहिए था और सभी प्रारूपों और कई भाषाओं में इन प्रस्तावों को सुलभ कराना चाहिए था। लेकिन, डीईपीडब्ल्यूडी ने इन संशोधनों को अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किया है। इस प्रकार, वह स्वयं ही लोगों तक पहुंच बनाने के परीक्षण में नाकाम रहा है।

राज्य प्रभावी रूप से पीडब्ल्यूडी को निष्पक्ष सुनवाई के उसके अधिकार से वंचित कर रहा है, वह भी तब,जब उनके अधिकारों की रक्षा करने वाले एकमात्र क़ानून का मूल तत्व ही ख़तरे में हो। हम यूएनसीआरपीडी मॉडल की नक़ल नहीं कर सकते, जब तक कि हम यह नहीं समझते कि पीडब्ल्यूडी के लिए उसके ख़ुद की सूचना या जानकारी को  शामिल किये बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता है। न्याय और निष्पक्षता के हित में इस प्रस्तावित धारा, 95 A को हटा दिया जाना चाहिए।

लेखिका नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU), बैंगलोर की छात्रा हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Why Proposed Changes to Disabilities Act Must be Dropped

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