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भारत जोड़ो यात्रा का नफ़ा और नुकसान 

इस ज़हरीले वातावरण में कांग्रेस की यात्रा कुछ राहत देने का काम तो कर सकती है, लेकिन सिर्फ नौकरी, कीमतें, या अमूर्त मुद्दों को उठाने से वह सांस्कृतिक संवेदनाओं को नहीं बदल पाएगी – जिसे भाजपा के नेरेटिव ने घर-घर पहुंचा दिया है।
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देश की सबसे पुरानी पार्टी का भारत जोड़ो यात्रा का आयोजन खुद को पुनर्जीवित करने का समयबद्ध कदम है। यह यात्रा देश का मिजाज बदलने के साथ-साथ कांग्रेस के कैडर और उससे इससे जुड़े युवाओं में जोश पैदा करेगी। यात्रा सद्भाव, एकता और करुणा के व्यापक संदेश के साथ शुरू हुई है। सोशल मीडिया पर जारी किए जा रहे वीडियो, राहुल गांधी को एक अच्छे, सभ्य और दयालु व्यक्ति के रूप में पेश कर रहे हैं। यह यात्रा जहरीले और अराजक वातावरण में कुछ राहत तो पेश करती है। ऐसे देश में भावनाओं और नैतिकता के विकल्पों को पेश करना, एक ऐसे वातावरण में ताजी हवा का झोंका है, जो एक हिंसक हुकूमत द्वारा शासित है और जो मर्दाना बहुसंख्यक विचार को प्रोत्साहित करती है।

कांग्रेस पार्टी ने भाजपा हुकूमत पर आरोप जड़ने के बजाय एक सकारात्मक अभियान चलाने  का विकल्प चुना है। यह मुझे चिली के फिल्म निर्माता पाब्लो लारैन की 2012 की फिल्म 'NO' की याद दिलाती है। यह फिल्म 1988 के जनमत-संग्रह में इस्तेमाल की जाने वाली विज्ञापन रणनीति पर आधारित है कि क्या ऑगस्टो पिनोशेट को एक बार फिर आठ वर्षों तक सत्ता में रहना चाहिए, भारत में 2024 में आने वाले आम चुनाव में भी कुछ ऐसे ही स्थिति है। फिल्म में 'नो' पक्ष वाले लोगों के बारे में एक 'विज्ञापन उप-समिति' गठित की जाती है जो  "हल्के-फुल्के' प्रोत्साहन वाला रुख अपनाती है और 'आनंद' जैसी अमूर्त अवधारणाओं पर जोर देकर प्रचार करती है कि एक कुख्यात क्रूर सैन्य जुंटा के तहत एक जनमत संग्रह में मतदान करना राजनीतिक रूप से अर्थहीन और खतरनाक है”। यह रणनीति भरत जोड़ो यात्रा के समान है, जो घृणा के बदले मोहब्बत पर जोर देती है।

चिली में यह अभियान सफल हुआ, जिसमें पिनोशे की खूंखार तानाशाही के खिलाफ भारी वोट पड़ा। फिर से, हम एक समान संदर्भ से गुजर रहे हैं, खुशी सूचकांक में बड़ी और खड़ी गिरावट है, मुद्रास्फीति बढ़ रही है, भय और अराजकता चरम पर है और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ रही है। तो, क्या भरत जोड़ो यात्रा चिली की तरह का परिणाम देगी? या क्या हमारी स्थिति काफी अलग है?

भाजपा-आरएसएस के गठजोड़ ने उन सामाजिक समूहों को सफलतापूर्वक छोटे धड़ों में बांट दिया है जो बड़े पैमाने पर विखंडित थे और टकरावपूर्ण थे, और उन्हें हिंदुओं के सामूहिक रूप के साथ जोड़ दिया है। स्थानीय स्तर पर छोटी पहचान वाले समुदायों के बहिष्कार और भेदभाव के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें धार्मिक समावेश, यहां तक कि सशक्तिकरण की भावना के साथ जोड़ दिया है। भरत जोड़ो यात्रा विकास के मुद्दे के साथ, एकजुटता, भारतीयता, शांति और सद्भाव के अमूर्त संदेश का सहारा ले रही है। हालांकि, यह खास किस्म के सामाजिक निर्वाचन क्षेत्रों के लिए स्थानीय और लक्षित संदेश नहीं है। इसने अभी तक कोई ठोस वादे नहीं किए है या न ही यह पता लगा है कि भविष्य में कांग्रेस हुकूमत को कैसे चलाएगी। क्या अमूर्त संदेश वर्तमान शासन की ठोस विफलताओं को उजागर कर पाएगा? क्या यह स्थानीय स्तर की चिंताओं का कोई हल पेश कर पाएगा? अब तक, यह बढ़ते डर और पूर्वाग्रहों के खिलाफ चुनौती देने वाली यात्रा लग रही है जो डर अब काफी गहरा हो चला है। 

समस्या यह है कि अगर कांग्रेस पार्टी सार्वभौमिक रूप से समावेशी निराकार संदेश नहीं देती है, तो उसके पास संयुक्त हिंदू संवेदनाओं का कोई अन्य प्रभावी विकल्प नहीं है। इसके अलावा, यह स्पष्ट न करना कि किसे क्या मिलेगा, एक निराकार-सार्वभौमिक संदेश स्थानीय चिंताओं को दूर करने के बजाय उन्हें बढ़ा देगा। क्या मोहब्बत और अमन का सार्वभौमिक संदेश छलावा नहीं है? क्या यह उप-जातियों और कमजोर और जनसांख्यिकीय रूप से महत्वहीन सामाजिक समूहों को कमजोर नहीं करेगा? ये सवाल प्रासंगिक हैं, खासकर जब भाजपा, कुछ खास हितों को एक समान हिंदू पहचान के साथ जोड़ने में सक्षम हो गई है। भले ही यात्रा से कुछ मूड हल्का हो जाए, लेकिन क्या यह, चिली की तरह, 2024 में कांग्रेस के लिए वोटों में तब्दील हो पाएगा, विशेष रूप से यात्रा के चुने गए मार्ग को देखते हुए?

चिली में, डर और तानाशाही के खिलाफ ज़मीनी स्तर का समर्थन था। लेकिन भारत में, जनता की चिंताओं को एक सांस्कृतिक और धार्मिक नेरेटिव से जोड़ा गया है, जिसने लोगों को भ्रमित कर दिया है और वे भूल गए हैं कि वे कौन हैं। यह नेरेटिव उन्हें अपनेपन की एक मजबूत भावना देता है, जिसका आधार सभ्यता की निरंतरता और अल्पसंख्यक बहिष्करण है। यह उत्तर प्रदेश में चुनावी परिणामों में स्पष्ट हुआ था, जहां सुरक्षा और गुज़र-बसर की भाषा ने, हिंदू वर्चस्ववाद पर सवारी करते हुए, खराब शासन को एक ओर मौका दे दिया था। 

भाजपा की ताक़त के पीछे, बहिष्करण और समावेशन के माध्यम से लोगों में सुरक्षा की भावना पैदा करना रहा है, और कमजोर वर्गों के खिलाफ भेदभाव को जताते हुए उन्हें सशक्तिकरण करने का प्रचार रहा है। यह सामाजिक डार्विनवाद का एक क्लासिक मामला है, जिसका इतिहास 2002 में गुजरात में जाता है। लेकिन क्या अधिकारों, बेरोजगारी और मुद्रास्फीति से संबंधित मुद्दों को उठाने से कोई ऐसी समानता दिखाई देती है जो सभी सामाजिक समूहों के लिए सामन हो? क्या कांग्रेस अपने विश्वसनीयता के उस नुकसान को पूरा कर पाएगी, जिसका सामना सामाजिक रूप से नीचे और ऊपर के तबकों से उसे करना पड़ रहा है, जो मानते हैं है कि बह अपनी सामाजिक-लोकतांत्रिक दृष्टि को छोड़ रही है?

राहुल गांधी संस्कृति को संस्थानों की भाषा और आरएसएस द्वारा कब्जा करने की कोशिश के बारे में कह रहे हैं। हालांकि एक उदार लोकतंत्र में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्या यह भावनाओं को जुटा पाएगा और क्या यह बिना किसी शक के लोगों को उसके साथ जोड़ पाएगा? यहां कांग्रेस पार्टी को वर्तमान विचार के मुक़ाबले किसी बड़े नेरेटिव की जरूरत है। पार्टी भाजपा द्वारा थोपे गए विचार को संबोधित करने से कतरा नहीं सकती है। इसे बेरोजगारी और मुद्रास्फीति की समस्याओं को, एक सशक्त हिंदू होने से जोड़कर हिंदू सशक्तिकरण के मिथक का पर्दाफाश करना होगा-यहां तक कि इसे हिंदुओं की कथित चिंताओं को भी संबोधित करन होगा। यह केवल रूढ़िवादी और प्रगतिविरोधी इस्लामी ताकतों के खिलाफ और संभावित विस्तारवाद के खिलाफ एक स्टैंड लेने से संभव होगा, जबकि बिलकिस बानो और उमर खालिद के अधिकारों के लिए दृढ़ता से खड़े रहना होगा। पूर्व के बिना, आप बाद वाले पर अमल नहीं कर सकते हैं, यदि करेंगे तो इस तरह प्रयास तुष्टिकरण की तरह लगेगा, जो केवल बहुसंख्यक समुदाय की अस्थिर चिंताओं को बढ़ाएगा और मीडिया की बमबारी को न्यौता देगा। 

जब तक इन बुनियादी प्रवृत्तियों को संबोधित नहीं किया जाता है, तब तक मोहब्बत या विकास का संदेश काम नहीं करेगा, ठीक उसी तरह जैसे विकास या आर्थिक विकास के बिना हिंदुओं का मुखर जुटान भाजपा के लिए अच्छी तरह से काम नहीं करेगा। आज, मतदाता मोदी सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के बारे में आश्वस्त है, लेकिन सांस्कृतिक प्रतिवाद की गहरी भावना महसूस करता है। आम आदमी पार्टी, ध्रुवीकरण के मुद्दों पर चुप रहने और सामाजिक विकास के साथ एक शांत हिंदू चेहरे को बनाए रखने की जटिल स्थिति का प्रबंधन कर रही है। लेकिन राहुल गांधी के तहत कांग्रेस पार्टी ने अपने स्पष्ट वैचारिक संघर्ष को बिना किसी जुड़ाव के पेश किया है। नौकरियों और महंगाई के बारे में बात करना सांस्कृतिक संवेदनाओं को दूर नहीं कर सकता है।

अंत में, क्या भरत जोड़ो यात्रा कांग्रेस को पुनर्जीवित करने और उसके संगठन और आंतरिक संस्कृति को बदलने में मदद करेगी? शायद इसमें सबसे खराब पार्टी की संगठनात्मक संस्कृति है जो कि कॉटरी, चिंताओं, आंतरिक प्रतिस्पर्धा और असुरक्षाओं से भरी हुई है। कांग्रेस में कोई एकजुटता नहीं है, केवल एक व्यक्ति सर्व्वोत्तम है। यह पार्टी को तबाह करने वाली संस्कृति के रूप में आई, कम से कम 1980 के दशक के बाद से, जब पैसे और बाहुबलियों को टिकट आउटसोर्सिंग का मॉडल लाया गया था। इस तरह के नेता भाजपा-आरएसएस नेताओं तथा कैडर के खिलाफ वैचारिक लोहा नहीं ले सकते हैं।

अपनी सभी सीमाओं को देखते हुए, आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं को एक बड़े उद्देश्य की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करती है। आप पाएंगे कि उनके कितने प्रचारक निस्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं, बदले में उन्हें क्या मिलता है। जबकि कांग्रेस पार्टी में, यह हमेशा एक सौदेबाजी की प्रणाली रही है, जो मोहभंग और निराशा को जन्म देती है। यह वंशवादी शासन का एक ऑफ-शूट भी हो सकता है। राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष के लिए आंतरिक चुनाव का रास्ता खोल दिया है, जिसे अपेक्षाकृत रूप से ओबीसी समुदाय से होना चाहिए, भले ही गांधी परिवार एक बाध्यकारी नैतिक शक्ति हो। राहुल का व्यक्तित्व, जितना सोनिया का है, इस व्यवस्था में फिट बैठता है। लेकिन दो साल से भी कम समय में इन सबका प्रबंधन करना निस्संदेह एक कठिन कार्य है।

लेखक सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उनकी पुस्तक, पॉलिटिक्स, एथिक्स एंड इमोशन्स इन 'न्यू इंडिया' है, जिसे रूटलेज, लंदन ने 2022 में प्रकाशित किया था। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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