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घुमन्तू समाज के बिना पुष्कर का मेला मर जाएगा

पुष्कर के बिना घुमन्तू समाज का जीवन रुक जाएगा तो घुमन्तू के बिना पुष्कर भी बेरंग हो जाएगा। ये घुमन्तू समाजों का मेला है, हमे उनके ज्ञान से सीखना होगा न कि उनको अपना किताबी ज्ञान थोपना है। हमें उनके सहज और उपयोगी ज्ञान से वर्तमान समस्याओं का समाधान तलाशना हैं।
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इस बार विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेले ने अपनी रही- सही आभा खो दी, ऊँट पालक मेले को बीच मे ही छोड़ वापस लौट गए, घुमन्तू समाजों के लोग कहीं दिखलाई नही पड़े, जो दिखे भी वे फटेहाल थे। जिनको ऊपर इस आभा को बनाने की जिम्मेदारी थी, वे नाम गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में चमकाने में व्यस्त थे।

विश्व मे पुष्कर की पहचान अंतरराष्ट्रीय पशु मेले के तौर पर है। लेकिन यह केवल पशु- मेला नहीं है बल्कि इसके साथ घुमन्तू समाजों के मिलने- मिलाने का और उनके अपने दुःख- सुख साझा करने का अवसर भी है। वर्ष भर घूमने वाले घुमन्तू लोगों के लिए यही एक मौका है, जहां वे अपने ज्ञान, कला और परम्परा से नई पीढ़ी का परिचय करवाते हैं, अपने ज्ञान को साझा करते हैं, उसे सहेजते हैं।

इस मेले में ओड़ घुमन्तू जाति के लोग ख़ास नस्ल के ख़च्चर लेकर आते थे, कुचबन्दा और बंजारों के गधे प्रसिद्व थे। बागरी की भेड़- बकरियां, साठिया एवं गाड़िया लुहार के गाय और बैल को खरीदने हेतु दूर- दराज से लोग यहां आते थे। रायका- रैबारी के ऊँट तो विश्व मे प्रसिद्ध है।

ऊंट- पालकों का वापस लौटना

भारत मे ऊँट पशुपालन तो सभी समाज करते हैं किंतु उसकी ब्रीडिंग करवाने का काम केवल रायका- रैबारी घुमन्तू समाज ही करते हैं। ये लोग अपने ऊँटों के काफिलें के साथ मेले के 15-20 दिन पहले ही घरों से निकल लेते हैं, जंगल, नदी- नालों, पहाड़, खेत- खलिहानों से गुजरते हुए। मेला- मैदान से दूर, मिट्टी के धोरों पर अपना डेरा जमाते हैं। नजदीक जंगल है तो सुबह- शाम ऊँटों को चरा लेते हैं। वहीं मिट्टी पर सो जाते हैं, ऊंट की मिंगण की आंच पर खाना बना लेते हैं।

लेकिन प्रशासन की असंवेदनशीलता और कारगुजारियों ने उनको लौटने पर मजबूर कर दिया, प्रशासन ने उस मिट्टी के धोरों की बाड़ाबंदी कर दी, जहां पर ये ऊंट बैठा करते थे, ये लोग ऊंट को बाहर लेकर नहीं जा सकते।
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वन-विभाग ने जंगल में घुसने पर रोक लगा दी लेकिन ये नहीं सोचा कि अब उनके ऊंट खायेंगे क्या ? ऊंट को दिन भर का 20 किलो चारा चाहिए। मेले में पशु चारे की कीमत 10 से 15 रु किलो है। बारिश ने इस चारे के दामों को दोगुने से भी ज्यादा कर दिया।

मेला मैदान के नजदीक, हेलीपैड बनाने के नाम पर जमीन को कंक्रीट कर दिया, लेकिन यह नही सोचा कि ऊंट बैठेंगे कहाँ पर ? कंक्रीट पर बैठने से ऊँटों की खाल छिल गई, वे जमीन पर बैठ नही पा रहे। रहने के लिए जो कपड़े का तम्बू का किराया बहुत ऊंचा है, जो इनके पहुँच से बाहर है।

इसी बीच पिछले 10 दिन में 4 बार बारिश हो चुकी है, बारिश में ये लोग कहां जायें? निरंतर नमी की वजह से ऊँटों में एक बीमारी 'पाँव- खुजली' फैलती है, जिसमें ऊंट के पहले बाल उड़ते हैं, फिर वहां पर घाव बन जाता है और कुछ दिन में कीड़े पड़कर उस ऊंट की मृत्यु हो जाती है।

यही इन  ऊँटों के साथ हुआ और कितने ऊंट इस बीमारी की चपेट में हैं। इस बीमारी के इलाज पर 700 से 1000 रु लगते हैं, वे लोग जो दवाई अपने साथ लाये हैं वो बारिश मे भीग गई। मेले में कहने को इतने डॉक्टर है लेकिन कोई चिकित्सिय सहायता नहीं है। पशु चिकित्सक धड़ल्ले से पैसा लेकर बिक्री के घोड़ों की गाड़ियां पास करने में व्यस्त है।

नीतिगत विफलता ने डूबोया जहाज़

वर्षों से पशुपालन के क्षेत्र में कार्यरत 'लोक हित पशुपालन संस्थान, पाली के निदेशक हनवंत सिंह राठौड़ का कहना है कि रेगिस्तान के जहाज को डुबोने में हमारी सरकारों ने प्रयाप्त भूमिका निभाई है। ऊंट को राजकीय पशु का दर्जा देना, जिसके कारण ऊंट को सीमापार नही ले जा सकते। इसके कारण अन्य राज्यों से व्यापारी ऊंट खरीदने नहीं आ रहे।

एक रायका- रैबारी का पिछले एक महीने का औसत खर्चा 8 से 10 हज़ार हो गया। जबकि उनके ऊंट को कोई 1500 रूपये में भी खरीदने को तैयार नही है। इस स्थिति में उनके पास वापस लौटने के अलावा कोई और चारा नही हैं।

हनवंत आगे कहते हैं कि ऊँटनी का गर्भावस्था का समय 13 महीने का होता है, जिसके अंतिम 3 महीने में उससे कोई काम नही ले सकते, सरकार ने उस ऊंटनी के बच्चे के पालन के 10 हज़ार रुपये देने का वादा किया था, लेकिन उसको रोक दिया। ऊँटों का बीमा किया करवाया गया था, उस पर भी रोक लगा दी।

ऊंट क्यों है खास ?

ऊंट भारत की जलवायु के अनुरूप है। भारत में ऊँटों की तीन नस्लें पाई जाती हैं। ये जमीन की बजाय सीधे पेड़ से खाना लेना ज्यादा पसंद करता है और ये किसी भी पेड़ की तरफ एक-दो बार मुँह कर अगले पेड़ की तरफ चल देता है। जिससे वनस्पति बची रहती है। ये कई दिनों बिना पानी के तो रह ही सकता है, इसकी एक खासियत यह भी है कि रेगिस्तान में ये अपना पानी अपने आप तलाश लेता है।
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आज भी जैसलमेर, जोधपुर के रेतीले मैदान की सुरक्षा का मुख्य आधार ऊँट है। जैसे कि कृषि गतिविधियों के मुख्य सहयोगी, मिट्टी लाने, ईंट- पत्थर ढोने, ऊंट के मिंगणो का जैविक खाद के रूप में उपयोग। ऊंटनी का दूध बहुत गुणकारी है।

घुमन्तू समाजों को मेले से बाहर रखा

पिछले कुछ वर्षों से इन परम्पराओं को निरन्तर समाप्त किया जा रहा है। मौजूदा  वर्ष भी उसी कड़ी का अंतिम पड़ाव था, जहां घुमन्तू समाजों के लिए, जिनका यह मेला था। वे ही लोग इस मेले से बाहर थे।

मेला मैदान से दूर, गौतम आश्रम धर्मशाला के नजदीक मोरेसिंग भील अपनी औषदियों का पिटारा लेकर बैठे थे, उनके पास तरह- तरह की जड़ी- बूटियां थीं। उनके पास खास प्रकार के नुख्शे ओर दवाइयां हैं। उनकी जड़ी- बूटियों में बहेड़ा, सनय की पत्ती, टाटरी, हरेरा, सफेद मूसली, पाक दही जैसी सैंकड़ों जड़ी - बूटी हैं।

मोरेसिंग भील मध्य- प्रेदेश से आये हैं, उन्होंने बताया कि वे पिछले 30 वर्षों से इस मेले में आते हैं किंतु इस बार के मेले को देखकर वे हताश हैं। यहां जमीन पर कोई बैठने ही नही दे रहा, जहां बैठो वहीं से पुलिस वाले भगा देते हैं।

हम तो वर्षों से यही बैठते थे, यहां के भीलों से मिलते, सिंगीवाल समाज के लोगों से अपनी जड़ी- बूटियां साझा करते, कालबेलिया की जड़ी- बूटी सबसे ताकतवर है। सब लोग अपने नए नुख्शे बताते।

मोरेसिंग आगे बताते हैं कि हमारे बाप- दादा वर्षों से यहां आते रहे हैं, हम तो कोई गलत काम भी नही करते फिर भी हमें इस मेले से दूर क्यों कर रहे हैं? हमारे इस ज्ञान को क्यों खत्म कर रहे हैं। हमें जंगल में भी नही जाने देते अब यहां पर ये स्थिति है।

पुष्कर के गनेड़ा गांव के पास पुलिस और प्रशासन की आंखों से बचकर, जैसलमेर से आये मूकनाथ कालबेलिया अपने साथियों के साथ बीन की धुन पर लहरिया बजा रहे हैं, उनके पास कोबरा सांप है। कुछ विदेशी सैलानी उनकी तस्वीर ले रहे हैं।

मूकनाथ कालबेलिया कहते हैं कि मेले में हमारी पहले प्रतियोगिता होती थी, हम लहरिया बजाते थे, लहरिया की खास बात ये है कि उसमें 50- 60 कालबेलिया बीन और ढपली की धुन पर एक सुर में बजाते हैं, कहीं भी सांस टूटने नही दी जाती। हम मेले में अतिथियों के सूरमा निकालते थे। हमारी महिलाएं घूमर नृत्य करती थी। हमारे लाये सूरमा, जो- हरड़ की फांकी और जन्म- घुट्टी को लेने के लिए लोग दूर- दूर से यहां आते थे।
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मूकनाथ अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं उनके लिए ये मेला इसलिए भी खास है कि उनकी शादी इसी मेले में तय हुई थी। उस वर्ष उसने सबसे अच्छा लहरिया बजाया था। लेकिन इस बार तो हमे मेला- मैदान के नजदीक भी नही जाने दिया जा रहा। सुना है अंग्रेज लोग घूमर नृत्य कर रहे हैं।

मिट्टी के धोरों के पास, जमीन पर दो बांस लगाकर, जमीन की सतह से करीब साढ़े छह फीट की ऊंचाई पर बंधी रस्सी, उस रस्सी पर एक सात साल की बच्ची, सर पर लौटे रखकर, हाथ मे डंडा किये, बेखौफ करतब दिखला रही है। वो कभी पैर में चक्का फंसाकर चलती है तो कभी थाली पर घुटनो के बल चलती है। उसके चेहरे पर न तो कोई डर है और न कोई थकान है।

नीचे एक व्यक्ति ढपली बजा रहे हैं और एक महिला निरन्तर उस बच्ची के करतब के बारे में बता रही है। रस्सी पर चलने वाली बच्ची का नाम अंतरा है वो 7 साल की है, उसके पिता अशोक ढपली बजाते हैं और उसकी माँ फिरजु बाई उस करतबों के बारे में बताती है।

अशोक नट समाज से सम्बंधित है जो छत्तीसगढ़ के चापा ज़िलें से आये हैं, वहां नटों को दंडचग्गा बोला जाता है। अशोक के पास एक साईकल है उसी पर एक गुदड़ी, 4 बांस, रस्सी, ढपली, एक झोले में खाना बनाने के बर्तन और कुछ कपड़े, ये ही है उनकी कुल जमा पूंजी।

अशोक आगे कहते हैं कि हमारे बच्चे जन्म से ही कलाकार पैदा होते हैं, हम उन्हें दो साल से करतब सिखाने सुरु कर देते हैं। यहां हर वर्ष आते हैं, हम दो महीने पहले ही छत्तीसगढ़ से निकल लेते हैं, रास्ते मे करतब दिखलाते हुए आते हैं। जहां रुकते हैं वहां करतब दिखाते हैं तो हमारे रास्ते का गुजारा चल जाता है।

लेकिन अब ध्यान रखना पड़ता है, पुलिस पकड़ लेती है, करतब नही दिखाने देते कुछ लोग कहते हैं कि बच्चों से काम करवाते हो, तुम्हे यहां करतब दिखाने नही देंगे। हमारे बच्चों को थोड़ी सी सरकारी सहायता मिल जाये तो हमारे बच्चे भी खेलों में बहुत अच्छा करेंगे। लेकिन अब तो ये मेला भी हमसे दूर हो गया, एक समय था जब भारत भर से नट लोग यहां एकत्रित होते थे।

गुजरात राज घराने से सम्बंधित महाराणा पुष्पेंद्र सिंह, लुनावड़ा बताते हैं कि पुष्कर का इतिहास कई सदियों का इतिहास रहा है, ये मेला स्वतः स्फूर्त था जहां हिंदुस्तान के कोने- कोने से घुमन्तू समाज के लोग आते।

मेले कि परम्परा क्या थी ?

मेले की शुरुआत में, आरती होने के बाद ऊंट पर नगाड़ा चलता था, ऊँटों की दौड़ से लेकर उनके श्रंगार की प्रतियोगिता होती थी, ऊँटों की शोभा यात्रा निकलती थी जिसमे रायका- रैबारी उनके साथ चलते थ। रात को भोपे रावनहत्थे पर पाबूजी की फड़ सुनाते थे। सैंकड़ों की संख्या में कालबेलिया बीन की धुन पर लहरिया सुनाते थे, कालबेलिया महिलाएं नृत्य करती थी।कठपुतली के खेल होते थे। कितने ही बहरूपिए होते थे।

ओढ़ लोग अपने ख़च्चर और कुचबन्दा गधों को सजाकर लाते थे, उनकी प्रतियोगिता होती थी। बंजारन गोदना और कसीदाकारी करती थी। सिंगीवाल और पेरना अपने जड़ी- बूटियों के ज्ञान और नुख्शे को सबसे साझा करते। नट लोग रस्सी पर करतब दिखलाते।

इन सब गतिविधियों की खास बात यह थी कि इनका प्रबंधन और नियंत्रण घुमन्तू समाज के पास था। ये मेला घुमन्तू समाज के सहज और उपयोगी ज्ञान का प्रतीक था। जो स्वतः स्फूर्त था। इस मेले को राजे- रजवाड़ों का आश्रय मिलता था।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था का डूबना

पशुधन के नाम पर इस साल 80 गाय, 61 भैंस ही शामिल की गई जबकि गधा, भेड़- बकरी और ख़च्चर एक भी नही आया। घोड़ों की संख्या 3556 है, इसमे देशी घोड़े नाम मात्र को हैं। इस वर्ष ऊँटों की संख्या में भारी गिरावट आई है। जहां 2001 में 15460 ऊंट आए थे, 2019 में वो आंकड़ा महज 3298 पर आकर सिमट गया और जो लोग आए भी वे भी अपने ऊँटों को लेकर वापस लौट गये।
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कितने ही ऊंटों ने दम तोड़ दिया और कितने ही ऊंट मरने की स्थिति में हैं। जिन ऊंटों की कीमत 30 से 70 हजार हुआ करती थी, उसे 1500 रुपये मे भी कोई खरीदने वाला नही हैं। 2001 में जहां पशुओं की बिक्री से 20- 25 करोड़ उगाहे जाते थे, वो आंकड़ा 2019 में महज 4.21 करोड़ पर सिमट गया, जबकि इन 18 साल में इसे 90- 95 करोड़ होना चाहिए था।

पुष्कर के मायने

पुष्कर का मेला हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का पैमाना है। इस मेले में असंख्य घुमन्तू समाज आते, अपनी गौरवशाली परम्पराओं, मूल्यों और ज्ञान को दुनिया से अवगत करवाते, वे अपने अतीत से वर्तमान को जोड़ते, नया सर्जन करते।

 ये मेला इस बात का पैमाना है कि वो जीवन - शैली कितनी शेष है। सभ्यता की एक खूबी यह भी है कि उसमें अतीत की महक शेष है। ये लोग हमारे उसी अतीत की महक है। इस मेले से उस जुगलबन्दी का पता चलता है जो हमारी इन घुमन्तू समाजों के साथ हुआ करती थी। ये लोग समाज को चलाने वाले रहे हैं, इन्होंने समाज को जोड़ा है।

इन समाजों के क्रियाकलापों से हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति का पता चलता है कि वो किस स्थिति में है, हमारे इतिहासकारों ने घुमन्तू जीवन शैली, खाद्य संग्रहण जीवन और झूम कृषि को हमेशा इतिहास में नजर अंदाज किया है। ये पशुधन उसी ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था के सूचक हैं।

ये मेला आज के समय मे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गया है जब समाज जाति, धर्म मे बंटा है, चारों ओर हिंसा का बोलबाला है। चारागाह सिमट रहे हैं, पर्यावरणीय निम्नीकरण से लेकर, लोक स्वास्थ्य का संकट, कृषि की पैदावार और मिट्टी की उर्वरता में कमी। पानी का कुप्रबंधन मुख्य समस्या के रूप में हमारे सामने मौजूद है।

दिल- धड़कन के रिश्ते को सहेजना होगा

यदि पुष्कर को दिल माने तो उसकी धड़कन घुमन्तू समाज हैं जैसे दिल के बिना धड़कन का कोई अस्तित्व नही है ठीक वैसे ही धड़कन के बिना दिल का भी कोई वजूद नही है।

पुष्कर के बिना घुमन्तू समाज का जीवन रुक जाएगा तो घुमन्तू के बिना पुष्कर भी बेरंग हो जाएगा। ये घुमन्तू समाजों का मेला है, हमे उनके ज्ञान से सीखना होगा न कि उनको अपना किताबी ज्ञान थोपना है। हमें उनके सहज और उपयोगी ज्ञान से वर्तमान समस्याओं का समाधान तलाशना हैं।

हमे यह ध्यान रखना होगा कि पवित्र स्नान और पशुधन दोनो अलग हैं। पशुधन के साथ घुमन्तू समाज जुड़ा है। इसी के ऊपर यहां की 90 फीसदी अर्थव्यवस्था टिकी है। इसी को देखने देश- दुनिया के लोग आते हैं। उनको विदेशी लोगों के फुटबॉल या घूमर से कोई वास्ता नही है। हमे उन्ही परंपराओं को दोबारा से जीवित करनी होंगी जो देखने वाले को रोमांच से और उसको करने वाले को गौरव से भर दे। यदि हमें पर्यटन और अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी देखना है तो भी हमे यह सब बदलना होगा।

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