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आरबीआई ने फिर बढ़ाई ब्याज़ दरें, क्या गिरते रुपये को रोकने में नाकामी है इसकी वजह?

त्योहार के सीजन के दौरान नक़दी पर नकेल कसना, वह भी ऊंची ब्याज दरों के साथ, साल के इस दौर में वार्षिक मांग में उछाल को निश्चित रूप से कम करेगा।
RBI
फ़ोटो साभार: पीटीआई

जिस बात की सबको आशंका थी, कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) अपनी मौद्रिक नीति समिति (MPC) की बहुप्रतीक्षित बैठक में शुक्रवार की सुबह फ्लोर ब्याज दर में आधा प्रतिशत की वृद्धि करेगा, जिसे रेपो दर भी कहा जाता है। जबकि प्रत्यक्ष रूप से वृद्धि का मतलब मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के आरबीआई के कड़े दृष्टिकोण के मामले में बाजारों को एक संकेत देना था, जबकि वास्तविकता यह है कि वह अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले रुपये में भारी गिरावट को रोकने का हताश प्रयास अधिक नज़र आता है।

इस नई वृद्धि का मतलब यह है कि न्यूनतम ब्याज दर, जिस पर अन्य सभी उधार दरें निर्भर करती हैं, अब 5.9 प्रतिशत पर तय की गई है। नई वृद्धि का मतलब है कि आधार दर अब मई की तुलना में 1.9 प्रतिशत अधिक है, जब आरबीआई ने एमपीसी की अभूतपूर्व अनिर्धारित बैठक में दर में 0.4 प्रतिशत की वृद्धि की थी। तब और अब के बीच जून और अगस्त में दरों में आधा-आधा प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। नवीनतम कदम को एमपीसी के छह सदस्यों में से पांच ने मंजूरी दी थी।

यूएस फेड नियम निर्धारित करता है

आरबीआई, दुनिया भर के अधिकांश अन्य केंद्रीय बैंकों की तरह, तब से ब्याज दर बढ़ा रहा है, जब से अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने महामारी के मद्देनजर अपनी ढीली मौद्रिक नीति को आक्रामक बना दिया था। नई वृद्धि हाल ही में घोषित 75 आधार अंकों (एक आधार बिंदु एक प्रतिशत का सौवां हिस्सा) थी।

तब से दुनिया भर में लगभग हर प्रमुख केंद्रीय बैंक ने अनिच्छा से और हिचकिचाहट के बावजूद इस मार्ग का ही पालन किया है, क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं था। इसका कारण यह है कि बाजारों का जो तर्क है वह कहता है कि मुद्रा बहाव वाली है- जिसका सबसे अधिक भयानक रूप पूंजी के देशों से बाहर निकलना है- यदि वे भी अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा निर्धारित दरों के बीच साथ अंतर को नहीं पाटते हैं और दरों में वृद्धि नहीं करते हैं तो परिणामस्वरूप पूंजी उनके देशों से निकल जाएगी। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो, आरबीआई के पास वास्तव में इस मामले में कोई विकल्प नहीं था, विशेष रूप से हाल के दिनों और हफ्तों में क्योंकि रुपये पर भारी दबाव था। 

3 सितंबर, 2021 को, भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार 642 बिलियन डॉलर से थोड़ा अधिक था। 23 सितंबर, 2022 तक, यह लगभग 545 बिलियन डॉलर तक गिर गया था- यानि 97 बिलियन डॉलर की गिरावट, जिसका एक बड़ा हिस्सा रुपये की गिरावट का को रोकने में इस्तेमाल किया गया है। वास्तव में, मई के अंत के बाद से, विदेशी मुद्रा भंडार बहुत तेजी से गिरा है - ये अब मई के अंत की तुलना में 50 बिलियन डॉलर कम है।

हाल के हफ्तों में, एक डॉलर के मुक़ाबले रुपये का मूल्य 80 रुपये के "मनोवैज्ञानिक बाधा" को पार कर गया है - जो कुछ भी हो सकता है - और अब डॉलर के मुक़ाबले  रुपया 82 रुपये होने के नजदीक है। वास्तव में, रुपये में वर्ष की शुरुआत के बाद से डॉलर के मुकाबले लगभग 8 प्रतिशत की गिरावट आई है। दरअसल, एमपीसी की बैठक से दो दिन पहले 28 सितंबर को बाजारों में चहल-पहल (इसे मुद्रा व्यापारी पढ़ें) ने संकेत दिया कि आरबीआई रुपये को गिरने से रोकने के लिए इसे 81.90 रुपये पर डॉलर बेच रहा था। सिर्फ पांच दिन पहले, आरबीआई ने 81.20 रुपये प्रति डॉलर के मूल्य बिंदु पर हस्तक्षेप किया था, जो गिरावट की गति को दर्शाता है।

हालांकि, विदेशी मुद्रा का भंडार लगभग 15-18 महीनों तक आयात की लागत को कवर करने के लिए पर्याप्त लगता है, लेकिन यह गंभीर रूप से भ्रामक भी हो सकता है। चूंकि इस भंडार को अल्पकालिक ऋण के लिए भी कवर करने की जरूरत होती है, जो कि ज्यादातर निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र के कारण पैदा होता है, इससे भंडार में अचानक गिरावट आ सकती है। तथ्य यह है कि इस तरह के ऋण का लगभग 44 प्रतिशत मुद्रा में उतार-चढ़ाव के लिए खुला होता है, इसका मतलब है कि भंडार का एक बड़ा हिस्सा रुपये की कम होते मूल्य से जुड़े जोखिमों के प्रति संवेदनशील है।

अवमूल्यन का भ्रामक तर्क

हर कोई केंद्रीय बैंक के बारे में यह महसूस करता है क्योंकि यह सार्वजनिक रूप से डॉलर के मुकाबले रुपये के लक्षित मूल्य की "घोषणा" नहीं कर सकता है, ऐसा न हो कि इसकी विश्वसनीयता बाजार के तर्क की क्रूर ताक़त से खराब हो जाए। यह खुद के कुछ हिमातियों द्वारा दिए जा रहे तर्क की व्याख्या भी करता है, कि आरबीआई को "लक्ष्य" निर्धारित करने के बजाय रुपये के क्रमबद्ध अवमूल्यन पर नज़र रखनी चाहिए, इसका मतलब कुछ भी हो सकता है।

रुपये के अवमूल्यन का तर्क देने वाले, अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों से परिचित लेकिन बदनाम धारणाओं का हवाला देते हैं (और क्या अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष इससे बहुत पीछे रह सकता है?) वे यह भी सुझाव देते हैं कि, चूंकि आयात महंगा हो जाता है, इससे आयात पर लगाम लगेगी।

यह तर्क उस दुनिया से पूरी तरह बेखबर है जिसमें हम रहते हैं। पहला, दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के बारे में एक गंभीर पूर्वानुमान है। वास्तव में, अमेरिका और यूरोजोन से लेकर चीन तक - यदि कोई गंभीर मंदी नहीं तो पूरी तरह से मंदी की खुली चर्चा हो रही है। ऐसी स्थिति में अपने उत्पादों की सीमित रेंज के लिए खुले बाजार के अवसरों को पुरस्कृत करने के लिए भारतीय निर्यातकों की क्षमता बेहद सीमित है।

दूसरा, भारतीय आईटी सेवा उद्योग, जो 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट से अपेक्षाकृत अप्रभावित रहा, को अब कम राजस्व की चिंता खा रही है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि आईटी उद्योग ने अपनी डॉलर रूपी कमाई, जो भारतीय हुकूमत के लिए डॉलर का कुछ हद तक बफर प्रदान करता है।

तीसरा, चूंकि भारतीय आयात बिल का एक बड़ा हिस्सा कच्चे तेल के लिए है, यह तुरंत "आयात" मुद्रास्फीति में तब्दील हो जाएगा।

चौथा, उदारीकरण के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था की बढ़ती आयात निर्भरता का मतलब यह है कि आर्थिक सुधार की कोई भी संभावना आयातित इनपुट/कच्चे माल और अन्य लागतों के अनुपातिक रूप से ऊंचे हिस्से को भी अनिवार्य रूप से दर्शाती है। इसका मतलब यह है कि कोई भी अवमूल्यन संभावित रूप से महामारी की सबसे खराब स्थिति के बाद अर्थव्यवस्था के ठीक होने की संभावना को विफल कर देता है।

बढ़ोतरी पर प्रभाव

शुक्रवार को एमपीसी के फैसलों की घोषणा करते हुए, आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने विकास को बढ़ावा देने के प्रति प्रतिबद्धता को दोहराते हुए कोरी बायानबाजी की, भले ही उनके बयान यह स्पष्ट हो गया कि निवेश, विशेष रूप से निजी निवेश, वास्तविक गतिविधि का कोई संकेत नहीं दे रहा है।

निजी उद्योगपति जो कुछ कर रहे हैं, वह योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं और शोर मचा रहे हैं, कि कैसे भारतीय "विकास की कहानी" बरकरार रखा जा सकता है। दरअसल, हताश और निराश वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल में शिकायत की थी कि निजी निवेश अपनी ‘एनिमल स्पिरिट’ को नहीं दिखा रहा है, बावजूद इसके कि सरकार ने निजी निवेश के लिए बहुत कुछ किया है - विशेष रूप से बड़े पैमाने पर टैक्स में रियायत और प्रोत्साहन दिए हैं – यह मंत्री की हताशा की ओर इशारा करते हैं। ब्याज दरों में लगातार बढ़ोतरी - और इस बारे में अनिश्चितता - कि यह अंततः कहाँ तक जा सकती है - निवेश के मामले में एक निरुत्साही सोच है।

अब जब भारत त्योहार के सीजन में प्रवेश कर रहा है, तब हालात निराशा भरा लग रहा है। पहले से ही, आरबीआई की रुपये की रक्षा करने में असमर्थता का मतलब है कि उसने वित्तीय प्रणाली से नक़दी को चूस लिया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आरबीआई डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट को दबाने के लिए सिस्टम में डॉलर इंजेक्ट करते समय रुपये के लगभग बराबर मूल्य को चूसता है। त्योहारी सीजन के दौरान नक़दी की तंगी, वह भी ऊंची उच्च ब्याज दरों के साथ, मांग में वार्षिक उछाल को निश्चित रूप से कम करेगी, जो आमतौर पर वर्ष के इस समय में उछाल का समय होता है।

यह महत्वपूर्ण है कि नई बढ़ोतरी इस श्रृंखला में केवल एक कदम है, यह संकेत देता है कि दिसंबर में एमपीसी की बैठक में बाजार में कुछ अनुमान के मुताबिक कम से कम 35 आधार अंकों की एक और बढ़ोतरी हो सकती है। बेशक, यह सब अटकलबाजी है क्योंकि सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व अपनी आधार दर के साथ क्या करता है। इसका मतलब स्पष्ट रूप से यह है कि निकट भविष्य में वित्त की लागत क्या होने वाली है, इस बारे में बड़ी अनिश्चितता बनी रहेगी। ऐसी स्थिति में निवेशक केवल हिचकिचाहट के साथ ही आगे बढ़ सकते हैं।

महंगाई का खतरा

मई के बाद से दरों में लगातार वृद्धि ने पहले से ही छोटे पैमाने की इकाइयों की धन जुटाने की क्षमता को प्रभावित किया है, खासकर उनकी कार्यशील पूंजी की जरूरतों के लिए मुश्किल पैदा हुई है। इसके अलावा, आवास बाजार, जो कि घर खरीदने वालों के लिए दीर्घकालिक ऋण पर गंभीर रूप से निर्भर करता है, ब्याज दरों पर अनिश्चितता के कारण उसमें मंदी आने की संभावना है। स्वाभाविक रूप से, अगर उधार लेने वालों को डर है कि उनके 25-30 साल के ऋण पर दरों में कुछ महीनों में वृद्धि होने की संभावना है, तो वे उधार लेने के निर्णयों को स्थगित कर सकते हैं।

महंगाई का सवाल गंभीर बना हुआ है। एमपीसी का अनुमान है कि मुद्रास्फीति चालू तिमाही (आज, 30 सितंबर को समाप्त) में 7.1 प्रतिशत से कम होकर अगली तिमाही में 6.5 प्रतिशत और चालू वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही में आशावादी 5 प्रतिशत हो जाएगी। ये अनुमान पानी पर भी लिखे गे लगते हैं। कच्चे तेल और कमोडिटी की कीमतों (विशेष रूप से धातु के साथ-साथ कोयले जैसे कच्चे माल) के बारे में मौजूदा अनिश्चितता - भले ही हाल के हफ्तों में कुछ हद तक ठंडी हो गई हो, लेकिन विनिमय दरों का क्या होगा, इससे काफी प्रभावित होने की संभावना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि विनिमय दर इन महत्वपूर्ण आदानों की लागत निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

लेकिन, इसका एक कारण और है, जिसके लिए न तो आरबीआई और न ही नरेंद्र मोदी शासन खुद के नियंत्रण से परे "वैश्विक" कारणों को दोष दे सकता है, और वह है खाद्यान्न आपूर्ति की स्थिति को मजबूत करना। चावल की फसल के मुक़ाबले गेहूं की फसल की कमी पहले से ही स्पष्ट है, जिसे जल्द ही काटा जाएगा। दिसंबर तक गरीब परिवारों को 5 किलो अनाज के प्रावधान को "विस्तारित" करने का मोदी सरकार का निंदक कदम खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के समय खाद्य सुरक्षा के लिए किसी चिंता के बजाय एक चुनावी चाल लगती है।

खाद्य सुरक्षा से जुड़े अहम मुद्दों के अलावा इससे जुड़ा एक गंभीर आर्थिक सवाल भी है। चूंकि खाद्यान्न क्लासिक वेज़ के लिए अच्छा है, एक ही समय में गेहूं और चावल की कीमतों में तेजी से वृद्धि, पूरी अर्थव्यवस्था की लागत पर प्रभाव पड़ेगा। चालू सीजन में चावल की फसल में भी गिरावट का अनुमान है, इसलिए सरकार को  राज्यों के साथ समन्वय कर, सार्वजनिक खरीद की लोजीस्टिक्स को स्थापित करने और मजबूत करने से न केवल खाद्य सुरक्षा की रक्षा होगी बल्कि कीमत को बनाए रखने में भी मदद करेगा। 

महामारी के बाद से, मोदी सरकार ने आरबीआई का इस्तेमाल एक टट्टू के रूप में किया है। सब कुछ अपने नियंत्रण में लेने और इस्तेमाल करने के बजाय, सरकार ने आरबीआई को ब्याज दरों के साथ खिलवाड़ करने देना चुना है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था में निवेश और मांग को बढ़ावा देने का एकमात्र साधन है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि पारंपरिक आर्थिक तर्क भी यह बताता है कि जब मांग गिरती है तो मौद्रिक नीति पूरी तरह से बेकार हो जाती है। आरबीआई की वर्तमान दुर्दशा मूल रूप से खुद की वजह से हुई है। अब टट्टू के पास देने एके लिए कोई तरकीब नहीं बची है। 

लेखक 'फ्रंटलाइन' के पूर्व एसीसिएट संपादक हैं, और उन्होंने द हिंदू ग्रुप के लिए तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। वे सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक सेवाओं पर बने जन आयोग के सदस्य हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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