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आरएसएस के मुखपत्र ने बीएसएनएल को 'तबाह' करने के लिए दी हरी झंडी

कई तथ्यों को झुठलाते हुए, ऑर्गनाइज़र मे प्रकाशित एक लेख सार्वजनिक क्षेत्र की दूरसंचार कंपनियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रहा है, और बीएसएनएल और एमटीएनएल की संपत्ति को बेचकर उनके निजीकरण की वकालत कर रहा है।
BSNL

अपने 16 जुलाई, 2019 के अंक में, ऑर्गनाइज़र, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का मुखपत्र(माउथपीस) है, उसमें छपा एक लेख न केवल सार्वजनिक क्षेत्र के ख़िलाफ़ सामान्य रूप से ज़हर उगल रहा है बल्कि वह बीएसएनएल (भारत संचार निगम लिमिटेड) पर विशेष निशाना साध रहा है। पत्रिका में प्रकाशित लेख में यह कहा गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र की निशानी "आलस्य, उदासीनता और बांझपन" हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में ऑर्गनाइज़र में इस तरह के लेख को प्रकाशित करके, आरएसएस ने अपने असली रंग को देश के सामने उजागर कर दिया है।

यह ध्यान देने की बात है की इस लेख का ऐसे समय में प्रकाशन किया जा रहा है जब नरेंद्र मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण करने के लिए तत्पर है और इन कंपनियों को यानी देश की सार्वजनिक संपत्ति को मिट्टी के मोल बेचने के लिए तैयार बैठी  है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दूरसंचार क्षेत्र में हो रहे वर्तमान घटनाक्रमों या बदलावों का समूचित आंकलन किए बिना, ऑर्गनाइज़र में प्रकाशित लेख कह रहा है कि, "निजी क्षेत्र की पूंजी के बिना विश्व स्तरीय दूरसंचार संरचना का विकास करना मुश्किल है।" आइए हम इस बात की जाँच करें कि यह कथन किस हद तक सही है।

दूरसंचार उपकरणों के विनिर्माण के क्षेत्र में दशकों से अमेरिका और यूरोप की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जैसे मोटोरोला, नोकिया, एरिक्सन और सीमेंस का हमेशा से वर्चस्व रहा है। उनके हाथों में बेहतर तकनीक होने की वजह से ये कंपनियां भारत और तीसरी दुनिया के देशों का तह-ए-दिल से शोषण कर रही थीं। हालांकि, आज की तारीख़ में चीन की कंपनियों ने इन सभी कंपनियों को पछाड़ दिया है, जैसे कि हुआवेई और ज़ेडटीई अब अग्रणी भूमिका में नज़र आती हैं।

अपनी बेहतर गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धी क़ीमतों की वजह से दो चीनी कंपनियां आज दूरसंचार उपकरणों के निर्माण पर हावी हैं। निस्संदेह, दुनिया में हुआवेई को अत्याधुनिक 5जी मोबाइल प्रौद्योगिकी के विकास में अग्रणी माना जाता है। ऑर्गनाइज़र में छपे लेख में किए गए दावे के विपरीत, हुआवेई और ज़ेडटीई दोनों का निजी क्षेत्र से कोई संबंध नहीं है।

सी-डॉट स्विच की सफलता

यहां यह भी याद रखना महत्वपूर्ण है कि 1980 के दशक के अंत में, भारत सरकार की सी-डॉट नामक संगठन ने इलेक्ट्रॉनिक स्विच के साथ टेलीफ़ोन एक्सचेंज विकसित किए थे, जो भारतीय वातावरण के हिसाब से काफ़ी उपयुक्त थे। उस समय पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्मित इलेक्ट्रॉनिक स्विच केवल एयर-कंडीशनिंग के माहौल में ही काम कर सकते थे, जिसमें भारी ख़र्च भी आता था। जबकि हमारे सी-डॉट द्वारा विकसित स्विच बिना एयर-कंडीशनिंग के काम कर सकते थे, जिससे ख़र्च भी काफ़ी हद तक कम हो जाता था।

ये सी-डॉट स्विच अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में काफ़ी हिट हो गया था और हम लगभग 70 विकासशील देशों को इसे निर्यात करने लगे थे। हालांकि, बहुराष्ट्रीय दूरसंचार विनिर्माण कंपनियों के दबाव में आकार भारत सरकार ने सी-डॉट को धन के अभाव से भूखा मरने के लिए मजबूर कर दिया। परिणामस्वरूप, सी-डॉट आज एक लंगड़ा-बतख बन गया है। हालाँकि, सी-डॉट का अनुभव इस तर्क को पूरी तरह से ख़ारिज कर देता है कि, केवल निजी पूंजी ही विश्व स्तर की दूरसंचार संरचना का विकास कर सकती है।

संघ एयर इंडिया पर क्यों निशाना साध रहा है?

ऑर्गेनाइज़र में प्रकाशित लेख में यह सवाल किया गया है कि "हम एयर इंडिया, बीएसएनएल और एमटीएनएल को जो कि बाज़ार में लगातार घाटे का सामना कर रहे हैं, को क्यों ऐसे ही चलाने दे?"

हम ऑर्गेनाइजर से पूछना चाहेंगे कि क्या देश में एयर इंडिया, बीएसएनएल और एमटीएनएल ही अकेले घाटे में चल रहे हैं? विमान के क्षेत्र में हमने किंगफ़िशर का पतन देखा है, जो एक निजी कंपनी थी। हाल ही में, हमने एक और निजी क्षेत्र की एयरलाइन, जेट एयरवेज़ का पतन देखा है। यह भी पता चला है कि किंगफ़िशर और जेट एयरवेज़ दोनों के प्रमोटर्स ने भारी मात्रा में धन उड़ा लिया है जो अपने आप में इन एयरलाइंस को डुबाने के प्रमुख कारणों में से एक है। फिर क्यों ऑर्गेनाइजर इन सभी मुद्दों को छिपा रहा है और अकेले एयर इंडिया को निशाना बना रहा है? यह केवल उनके निजी क्षेत्र के प्रति झुकाव को साबित करता है।

जहां तक एयर इंडिया का सवाल है, पूरा देश जानता है कि इस संकट को इंसान द्वारा पैदा किया गया  है। इस तथ्य को संसदीय स्थायी समिति ने भी स्वीकार किया है। यह एक खुला रहस्य है कि मुनाफ़ा कमाने वाली एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस को कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने विलय कर दिया था जो एक विनाशकारी निर्णय साबित हुआ, क्योंकि निजी एयरलाइंस को प्रीमियम और लाभ कमाने वाले मार्गों को फिर से आवंटित करने का नापाक फ़ैसला भी उसी वक़्त लिया गया था। एक ही झटके में 111 नए विमान ख़रीदने का घातक निर्णय, इस संकट के मूल कारणों में से है। इन सभी तथ्यों को छुपाया जा रहा है और एयर इंडिया को इसकी सज़ा दी जा रही है।

बीएसएनएल और एमटीएनएल ही क्यों?

जहां तक दूरसंचार क्षेत्र का सवाल है हम ऑर्गनाईजर को बताना चाहते हैं कि, आज केवल बीएसएनएल और एमटीएनएल ही घाटे में नहीं चल रहे हैं। वोडाफ़ोन, जो दुनिया की सबसे बड़ी मोबाइल कंपनी है, ने हाल ही में भारत में अपने ऑपरेशंस बंद कर दिए हैं और भारी घाटे को झेलने के बाद, वोडाफ़ोन इंडिया का अब आइडिया में विलय हो गया है। इसी तरह, टाटा समूह के स्वामित्व वाली टाटा टेली-सेवा और अनिल अंबानी के स्वामित्व वाली रिलायंस इन्फ़ोकॉम जैसे बड़े ब्रांड भी बंद हो गए हैं। मलेशियाई टाइकून के स्वामित्व वाला एयरसेल भी बंद हो गया है। क्यों, इन सभी बातों पर चर्चा किए बिना, ऑर्गनाईज़र ने केवल बीएसएनएल और एमटीएनएल पर ही क्यों निशाना साधा है?

असल तथ्य यह है कि आज भारत में संपूर्ण दूरसंचार उद्योग संकट की चपेट में है। निजी क्षेत्र की दिग्गज कंपनियां एयरटेल और वोडाफ़ोन आइडिया को भी भारी घाटा झेलना पड़ रहा है। केवल रिलायंस जियो को आज मुनाफ़ा कमाने वाली टेलीकॉम कंपनी कहा जाता है।

हालांकि हाल ही में एक अमेरिकी शोध और ब्रोकरेज फ़र्म, बर्नस्टीन ने बताया है कि रिलायंस जियो अपने खातों के साथ हेरफेर कर रहा है ताकि कंपनी को लाभ में दिखाया जा सके। 27 जुलाई, 2018 को बिज़नेस स्टैंडर्ड में छपी एक रपट के मुताबिक़ बर्नस्टीन ने कहा है कि, रिलायंस जियो वित्तीय वर्ष 2018-19 की अक्टूबर से दिसंबर की तिमाही तक क़रीब 3,800 करोड़ रुपये घाटे में चली गई है। जबकि खातों में हेरफेर की गई थी यह दिखाने के लिए कि कंपनी ने उस तिमाही में 831 करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ कमाया था। इसलिए, रिलायंस जियो द्वारा अपनी अकाउंट बुक में जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह अविश्वसनीय है।

बीएसएनएल का मार्केट शेयर बरक़रार है

यह एक निर्विवाद तथ्य है कि एयरटेल और वोडाफ़ोन आइडिया दोनों ने ही अपने बाज़ार के बड़े शेयरों को रिलायंस जियो के हाथों खो दिया है। हालांकि, यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि है कि घाटे में चलने के बावजूद, बीएसएनएल ने अपना बाज़ार का शेयर नहीं खोया है। वास्तव में, रिलायंस जियो के सामने बीएसएनएल ही एकमात्र ऐसी कंपनी है, जो हर महीने लगातार अपनी बाज़ार में हिस्सेदारी को बढ़ा रही है। सितंबर 2019 में ही बीएसएनएल ने 13.5 लाख नए मोबाइल ग्राहक जोड़े हैं। बीएसएनएल के संबंध में इतना बेहतरीन तथ्य होने के बावजूद उसे लगातार मार्केट-शेयर खोने वाली कंपनी के रूप में ब्रांड करते हुए ऑर्गनाइज़र में लिखा लेख अनुचित है।

एयरटेल और वोडाफ़ोन आइडिया दोनों ही क़र्ज़ से लदी हुई कंपनियाँ हैं और उनका क़र्ज़ 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक का है। मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाली रिलायंस जियो पर भी 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक का क़र्ज़ है। भारतीय दूरसंचार क्षेत्र का कुल क़र्ज़ 8 लाख करोड़ रुपये बैठता है। इसकी तुलना में, बीएसएनएल का ऋण तो बहुत ही कम है, जो 20,000 करोड़ रुपये से भी कम है।

ऑर्गनाइज़र ने अपने लेख में इस बात की भी वकालत की है कि "बीएसएनएल और एमटीएनएल का निजीकरण कर देना चाहिए और उनकी इमारतों और अन्य परिसंपत्तियो को बेचकर जो बेताहाशा धन पैदा होगा उसका उपयोग कर्मचारियों के नुकसान की भरपाई के लिए किया जा सकता है।" इस तरह की दवा सुझा कर ऑर्गनाइज़र ने केवल अपनी इच्छा व्यक्त की है कि सार्वजनिक क्षेत्र की बेताहाशा संपत्ति को कोड़ियों के मोल निजी खिलाड़ियों को सौंप दिया जाए।

लेकिन, ऑर्गनाइज़र को यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि जब भी इस देश में प्राकृतिक आपदाएँ आई हैं फिर चाहे वह चेन्नई बाढ़ हो, विशाखापत्तनम और ओडिशा चक्रवात हों या श्रीनगर बाढ़, ऐसी स्थिति में केवल बीएसएनएल ही था जिसने पीड़ितों को सेवा प्रदान की और राहत और बचाव कार्य में भी मदद की। 

जबकि इसके उलट उपरोक्त आपदाओं के समय में, निजी दूरसंचार सेवा प्रदाताओं ने सुरक्षा के लिए अपने उपकरणों और प्रतिष्ठानों की सभी सेवाओं को बंद कर दिया था। इन तथ्यों को समय-समय पर विभिन्न दूरसंचार मंत्रियों ने भी स्वीकार किया है।

इसके अलावा, एक सरकारी कंपनी के रूप में बीएसएनएल का रहना ग्रामीण, पिछड़े और दूर-दराज़ के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बहुत आवश्यक है। आज भी, बीएसएनएल ऐसे क्षेत्रों में लोगों को सेवा प्रदान कर रहा है, जहां निजी कंपनियां बड़ा लाभ नहीं कमा सकती हैं। यदि बीएसएनएल को निजी हाथों में बेच दिया जाता है, तो स्वाभाविक रूप से उन क्षेत्रों के लोग दूरसंचार सेवाओं से वंचित हो जाएंगे।

यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि सरकारी सेवा प्रदाता के रूप में बीएसएनएल का होना निजी दूरसंचार कंपनियों के टैरिफ़ हेरफेर पर अंकुश लगाने के लिए बहुत आवश्यक है। वास्तव में देखा जाए तो यह बीएसएनएल ही है जो आज दूरसंचार क्षेत्र में नियामक की भूमिका (रेगुलेटर) निभा रहा है, जबकि ट्राई (भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण) इस भूमिका को निभाने में नाकामयाब रहा है। यह केवल बीएसएनएल सरकारी कंपनी के अस्तित्व होने के कारण ही है कि निजी ऑपरेटर टैरिफ़ बढ़ाने और लोगों को लूटने में अभी तक पूरी तरह से कामयाब नहीं हैं। यदि बीएसएनएल नहीं रहा तो यह अपरिहार्य है कि निजी कंपनियां कार्टेल (गैंग)  बनाएंगी और टैरिफ़ बढ़ाकर लोगों को लूटेंगी।

अंत में, ऑर्गनाइज़र और आरएसएस को यह भी समझने की ज़रूरत है कि सत्ता में लगातार ऐसी सरकारें आती रही हैं जो बीएसएनएल की विरोधी थीं और जिन्होंने बीएसएनएल को लगातार कमज़ोर किया है। उन्हें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी सेवा प्रदाता के रूप में बीएसएनएल को निजी कंपनियों को लाइसेंस मिलने के सात साल बाद अपनी मोबाइल सेवाओं को चालू करने का लाइसेंस मिला था! यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे सरकार के नीतिगत फ़ैसले निजी क्षेत्र की लूट को बढ़ाते हैं और सार्वजनिक क्षेत्र को कमज़ोर करते हैं।

यह भी एक बड़ा तथ्य है कि 2002 में मोबाइल लाइसेंस हासिल करने के कुछ ही समय के भीतर, बीएसएनएल ने मोबाइल क्षेत्र (सेगमेंट) में भी अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। 2004-05 के भीतर ही बीएसएनएल ने 10,000 करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ कमाया था। हालांकि, इसके बाद इसे सरकार के हमलों का सामना करना पड़ा। सरकार ने 2006 से 2012 तक बीएसएनएल को उपकरण ख़रीदने की ही अनुमति नहीं दी। बीएसएनएल द्वारा मंगाई गई सभी निविदाएं एक के बाद एक रद्द कर दी गईं।

इस प्रकार, सरकार ने बीएसएनएल को उपकरण आपूर्ति के लिए भूखा मार दिया। बीएसएनएल के लिए यह बहुत बड़ा झटका था। हालांकि, सरकार के हमलों और पक्षपाती नीतियों के बावजूद, बीएसएनएल एक जीवंत सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के रूप में लोगों की सेवा कर रही है। ऑर्गनाइज़र और उसकी संरक्षक आरएसएस को इन तथ्यों को लोगों से नहीं छिपाना चाहिए।

पी. अभिमन्यु बीएसएनएल कर्मचारी संघ के महासचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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