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भाजपा-विरोध की राजनीति पर राहुल गांधी ने गहरी चोट पहुंचाई है

भाजपा के ख़िलाफ़ एक व्यापक और मज़बूत विपक्षी मोर्चा बने, इसके लिए विपक्ष में सबसे बड़ी और अखिल भारतीय पार्टी होने के नाते कांग्रेस ही नेतृत्वकारी पहल कर सकती है। लेकिन राहुल के बयान से लगता है कि वे ऐसे किसी मोर्चे की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते हैं। क्षेत्रीय दलों के बारे में कांग्रेस के शीर्ष नेता के रूप में उनकी भाषा बेहद अहंकारी और अपमानजनक है। 
Rahul Gandhi

जिन क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर कांग्रेस ने लगातार केंद्र में दस साल (2004 से 2014 तक) सरकार चलाई, उनके बारे में राहुल गांधी को अब जाकर इलहाम हुआ कि उन दलों के पास कोई विचारधारा नहीं है और वे भारतीय जनता पार्टी से नहीं लड़ सकते हैं। जी हां, कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने यही फरमाया है। उन्होंने कहा, ''हमें जनता को बताना होगा कि क्षेत्रीय पार्टियों की कोई विचारधारा नहीं है, वे सिर्फ जाति की राजनीति करती हैं। इसलिए वे कभी भी भाजपा को नहीं हरा सकती हैं और यह काम सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है।’’ 

राहुल का यह बयान साफ तौर पर इस बात का संकेत है कि कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति को एक बार फिर नकार दिया है। हालांकि उनके इस ऐलान और गठबंधन की राजनीति पर पार्टी द्वारा पारित संकल्प में काफी विरोधाभास है। राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता वाली एम्पावर्ड कमेटी की सिफारिश के आधार पर गठबंधन की राजनीति को लेकर पारित हुआ संकल्प राहुल के बयान से बिल्कुल अलग है। 

कांग्रेस का संकल्प कहता है, ''कोई भी क्षेत्रीय दल अकेले भाजपा को नहीं हरा सकता, इसलिए राष्ट्रीयता की भावना और लोकतंत्र की रक्षा के लिए कांग्रेस सभी समान विचारधारा वाले दलों से संवाद और संपर्क स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप उनसे जरूरी गठबंधन के रास्ते खुले रखेगी।’’ 

गठबंधन की राजनीति को लेकर पार्टी के इस संकल्प और राहुल गांधी के भाषण की भाषा और ध्वनि बिल्कुल अलग है। जाहिर है कि या तो राहुल ने भाषण देने के पहले अपनी पार्टी के संकल्प को ठीक से न तो पढ़ा और न सुना या फिर उनके भाषण के नोट्स तैयार करने वाले किसी सलाहकार ने अपनी अतिरिक्त अक्ल का इस्तेमाल करते हुए संकल्प से हटकर गठबंधन की राजनीति को खारिज करने वाली बात उनके भाषण में डाल दी। जो भी हो, दोनों ही बातें राहुल को एक अपरिपक्व नेता के तौर पर पेश करती हैं और उनकी उस छवि को पुष्ट करती हैं जो भाजपा ने भारी-भरकम पैसा खर्च करके अपने आईटी सेल और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया के जरिए बनाई है।

राहुल गांधी का यह बयान बताता है कि वे लड़ना तो भाजपा से चाहते हैं, लेकिन लड़ते हुए दिख रहे हैं उन क्षेत्रीय दलों से, जिन्होंने कई राज्यों में भाजपा को सत्ता में आने से रोक रखा है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, झारखंड आदि राज्य अगर आज भाजपा के कब्जे में नहीं है तो सिर्फ और सिर्फ क्षेत्रीय दलों की बदौलत ही है। इनमें से कुछ राज्यों में तो कांग्रेस भी क्षेत्रीय दलों के साथ सत्ता में साझेदारी कर रही है और उन क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस के प्रति सद्भाव है, जिसे राहुल ने अपने अहंकारी बयान से खोया भले ही न हो, पर कम तो किया ही है।

इस सिलसिले में बिहार का जिक्र करना भी जरूरी है, जहां भाजपा तमाम तरह की तिकड़मों के बावजूद अगर आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है तो इसका श्रेय भी वहां की क्षेत्रीय पार्टियों को ही जाता है। वहां की सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय जनता दल तो कांग्रेस की सबसे पुरानी और विश्वस्त सहयोगी पार्टी रही है। उस पार्टी के नेता लालू प्रसाद आज जेल में हैं तो सिर्फ इसलिए नहीं कि उन पर भ्रष्टाचार के आरोप साबित हो चुके हैं। उन्हें अगर भ्रष्टाचार के आधार पर ही जेल भेजा गया होता तो इस आधार पर तो भाजपा और कांग्रेस सहित कई पार्टियों (वामपंथी दलों को छोड़ कर) के नेताओं को इस समय जेल में होना चाहिए। 

भ्रष्टाचार के आरोपी अन्य नेताओं की तरह लालू प्रसाद ने भी अगर धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर ढुलमुल रवैया अपनाया होता तो शायद वे भ्रष्टाचार के आरोप से बरी हो जाते और जेल जाने की नौबत ही नहीं आती। उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ भी कोई जांच या मुकदमा नहीं चल रहा होता। यह भी संभव था कि उनकी पार्टी आज बिहार में भाजपा के साथ मिल कर सरकार चला रही होती। 

राहुल गांधी को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2019 के लोकसभा चुनाव में देश के क्षेत्रीय दलों को 14.15 करोड़ वोट मिले थे, जो कांग्रेस को मिले 11.95 करोड़ वोटों से 2.2 करोड़ वोट ज्यादा हैं। इन क्षेत्रीय दलों के सांसद भी कांग्रेस से ज्यादा हैं- लोकसभा में भी और राज्यसभा में भी। देशभर में कुल विधायकों की संख्या भी कांग्रेस से ज्यादा क्षेत्रीय दलों की है। इसके बावजूद राहुल गांधी पता नहीं कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचे या उन्हें किसी ने समझा दिया कि क्षेत्रीय दलों में भाजपा से मुकाबला करने की कुव्वत नहीं है। 

यह सच है और एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार तथा तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन जैसे नेता भी कह चुके हैं कि कांग्रेस के बगैर भाजपा के खिलाफ कोई विपक्षी मोर्चा नहीं बन सकता। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हो जाता है कि क्षेत्रीय दलों के बगैर कांग्रेस भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम है। हकीकत तो यह है कि भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने की जितनी जरूरत और मजबूरी कांग्रेस की है, उतनी क्षेत्रीय दलों की नहीं। 

क्षेत्रीय दलों की तो राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी क्षेत्रीय हैं और इसलिए उन्हें तो अपने-अपने सूबों में ही भाजपा का मुकाबला करना है, जो कि वे कांग्रेस की मदद के बगैर भी कर सकते हैं। लेकिन कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं है। उसे तो अपने प्रभाव वाले राज्यों के साथ ही केंद्रीय स्तर पर भी भाजपा को चुनौती देना है, जिसके लिए क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेना जरूरी भी है और उसकी मजबूरी भी है।

भाजपा के खिलाफ एक व्यापक और मजबूत विपक्षी मोर्चा बने, इसके लिए विपक्ष में सबसे बड़ी और अखिल भारतीय पार्टी होने के नाते कांग्रेस ही नेतृत्वकारी पहल कर सकती है। लेकिन राहुल के बयान से लगता है कि वे ऐसे किसी मोर्चे की जरूरत ही महसूस नहीं करते हैं। क्षेत्रीय दलों के बारे में कांग्रेस के शीर्ष नेता के रूप में उनकी भाषा बेहद अहंकारी और अपमानजनक है। 

देश के लिए, कांग्रेस के लिए और खुद राहुल के लिए भी वक्त का तकाजा तो यह था कि वे बड़ी पार्टी का नेता होने के नाते यह कहते कि क्षेत्रीय दलों के सहयोग के बगैर भाजपा को निर्णायक चुनौती नहीं दी जा सकती या उसे सत्ता से नहीं हटाया जा सकता। अगर वे ऐसा कहते तो यह एक नेतृत्वकर्ता की भाषा होती।

राहुल गांधी के लिए यह सोचने का विषय है कि उनके लिए जिस भाषा का इस्तेमाल भाजपा करती है, क्या उसी भाषा का इस्तेमाल क्षेत्रीय पार्टियां भी उनके लिए करती हैं? तमिलनाडु में कांग्रेस सत्तारूढ़ डीएमके की मुख्य सहयोगी पार्टी है। महाराष्ट्र में वह शिव सेना और एनसीपी के साथ सत्ता में साझेदारी कर रही है। झारखंड में भी वह झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ सत्ता में साझेदार बनी हुई है। इनमें किसी पार्टी ने आज तक कांग्रेस या राहुल के बारे में ऐसा कुछ नहीं कहा है जो उनके लिए अपमानजनक हो। यहां तक कि कांग्रेस से दूरी बना कर चलने वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बीजू जनता दल जैसी पार्टियों ने भी राहुल या सोनिया गांधी के प्रति कभी हल्की भाषा का इस्तेमाल नहीं किया। तो फिर राहुल को ही क्या सूझी कि वे क्षेत्रीय दलों की औकात नापने बैठ गए? 

राहुल गांधी ने कहा कि क्षेत्रीय दलों की कोई विचारधारा नहीं है। सवाल पूछा जा सकता है कि कांग्रेस की क्या विचारधारा है? कांग्रेस अपने को स्वाधीनता आंदोलन की विचारधारा का वाहक मानती है, लेकिन हकीकत यह है कि उस विचारधारा से कांग्रेस बहुत दूर जा चुकी है और इसी वजह से उसे दुर्दिनों का सामना करना पड़ रहा है। देश में कोई भी क्षेत्रीय पार्टी ऐसी नहीं है, जिसमें भाजपा ने इतनी व्यापक तोड़-फोड़ मचाई हो, जितनी उसने कांग्रेस में मचाई है और अभी भी मचा रही है।

कांग्रेस के विचारहीन, बिकाऊ और लालची नेताओं की मदद से उसने मध्य प्रदेश और कर्नाटक में कांग्रेस की चुनी हुई सरकारें गिराई हैं। उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में भी भाजपा ने कांग्रेस में तोड़-फोड़ करके ही अपनी सरकारें बनाई हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, गोवा आदि राज्यों में भी भाजपा ने बड़ी संख्या में कांग्रेस नेताओं को लेकर अपनी स्थिति मजबूत की है। 

जहां तक भाजपा और उसकी सरकार की विभाजनकारी व जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष की बात है, इस मोर्चे पर भी कांग्रेस का पिछले आठ साल का रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है। इस दौरान अनगिनत मौके आए जब कांग्रेस देशव्यापी आंदोलन के जरिए अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतार कर आम जनता से अपने को जोड़ सकती थी और इस सरकार को चुनौती दे सकती थी। लेकिन किसी भी मुद्दे पर वह न तो संसद में और न ही सड़क पर प्रभावी विपक्ष के रूप में अपनी छाप छोड़ पाई। 

नोटबंदी और जीएसटी से उपजी दुश्वारियां हो या पेट्रोल-डीजल के दामों में रिकार्ड तोड़ बढ़ोतरी से लोगों में मचा हाहाकार, बेरोजगारी तथा खेती-किसानी का संकट हो या जातीय और सांप्रदायिक टकराव की बढ़ती घटनाएं या फिर किसी राज्य में जनादेश के अपहरण का मामला, याद नहीं आता कि ऐसे किसी भी मुद्दे पर कांग्रेस ने कोई व्यापक जनांदोलन की पहल की हो। उसके नेताओं और प्रवक्ता की सारी सक्रियता और वाणी शूरता सिर्फ टीवी कैमरों के सामने या ट्वीटर पर ही दिखाई देती है। 

ऐसी स्थिति में राहुल गांधी का अकेले भाजपा का मुकाबला करने का इरादा जताना उन्हें अपरिपक्व नेता साबित करता है और साथ ही यह भी साबित करता है कि उनके करीबी सलाहकार कहीं और से निर्देशित होकर कांग्रेस को आगे भी लंबे समय तक विपक्ष में बैठाए रखने की योजना का हिस्सा बने हुए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि राहुल ने क्षेत्रीय दलों के बारे में अनर्गल प्रलाप कर भाजपा विरोधी राजनीति को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया है। चूंकि भाजपा विरोधी राजनीति की धुरी कांग्रेस जैसी बड़ी और राष्ट्रीय पार्टी ही हो सकती है, इसलिए राहुल ने कांग्रेस की संभावनाओं को भी बहुत हद तक चौपट किया है, जिसकी भरपाई करना अब उनके लिये आसान नहीं होगा।

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