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चतुर जड़बुद्धिवालों का मुल्क ?

‘क्या 90 फीसदी भारतीय जड़बुद्धि हैं, जिन्हें धर्म के नाम पर बेवकूफ बनाया जा सकता है?’
चतुर जड़बुद्धिवालों का मुल्क?

एक दशक से भी अधिक अरसा गुजर गया जब आला अदालत के न्यायाधीशों में शुमार रहे जनाब मार्कण्डेय काटजू ने किसी ‘सेमिनार में यह बात पूछी थी। लाजिम था कि उस वक्त़ भी यह बात तमाम लोगों के कलेजे पर किसी नश्तर के समान महसूस हुई थी; थोड़ा हंगामा मचा था, भारतीयों के इस ‘अपमान’ को लेकर उन्हें कानूनी नोटिस भी थमाए गए थे।

कहा जाता है कि विवाद को बढ़ता देख उन्होंने कुछ स्पष्टीकरण दिया और बात अंततः वहीं समाप्त हो गयी।

तय बात है कि अगर जनाब काटजू का यह बयान हाल के समयों में होता, जब न्यू इंडिया के नए कर्णधारों के नक्शेकदम जनता का बड़ा हिस्सा खुद को विश्वगुरू मानने लगा है तो शायद मामला अधिक गंभीर शक्ल धारण करता।

दरअसल इन दिनों आलम यही है कि किसी भी बात पर लोगों की भावनाएं आहत हो सकती है ।

मिसाल के तौर पर प्रयागराज ( जिसे सदियों से हम इलाहाबाद के नाम से जानते आए थे )  से आयी इस ख़बर पर सहसा यकीन होना मुश्किल है। मामला यह है कि गंगा नदी में ही कुछ नौजवान नाव में बैठ कर चिकन बना रहे थे,  हुक्का पी रहे थे। उनका वीडियो वायरल हुआ। न वह ऐसा कोई काम कर रहे थे, जिसे गैरकानूनी कहा जाए या जिससे अचानक किसी की ‘भावनाएं आहत हों। मगर पता चला उनकी इस मौजमस्ती में स्वयंभू धर्मध्वजियों ने ‘तीर्थ की मर्यादा’ का तर्क ढूंढ लिया और उनकी तलाश शुरू हुई। और पुलिस भी हरकत में आयी। पुलिस के मुताबिक उन्हें गिरफ्तारीकिया जाएगा और आगे की कार्रवाई करनी पड़ेगी।

पता नहीं किसी ने पुलिस से यह पूछने की जहमत उठायी या नहीं कि पिछले साल जब कोविड की दूसरी लहर में प्रशासन की कथित अकार्यक्षमता और दूरदर्शिता के अभाव में हजारों लोग मर रहे थे और उनकी लाशें उसी गंगा में बहायी जा रही थीं, तब किसी धर्मध्वजी ने उनसे मिलकर गंगा के इस ‘अपमान’’ की बात की थी या नहीं और जिम्मेदार तत्वों पर मुकदमा दर्ज करने की मांग की थी या नहीं। ताज्जुब है कि उसी वक्त गुजराती कवयित्री पारूल खक्कर ने ‘साहेब तुम्हारे रामराज में शववाहिनी गंगा’ जैसी मारक कविता लिखी थी, लेकिन इस कविता में व्यक्त सच्चाई से समूचे हिन्दुत्व खेमे में जबरदस्त खलबली मच गयी थी। 

भारतेदु हरिश्चंद्र का बहुचर्चित नाटक है ‘अंधेर नगरी, चौपट राजा’ जो एक तरह से विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर प्रहार करता है। 

मौजूदा सूरतेहाल को देखते हुए तथा उसके जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्तियों के आचरण को देखते हुए किसी को इस नाटक की याद आ सकती है, जहां काला धन को छूमंतर करने के नाम पर मुश्किल से चार घंटे की मोहलत देकर नोटबंदी कर दी गयी हो और अपनी ही कमाई बैंक से निकलवाने के प्रयास में लंबी लाइनों में सौ से अधिक लोग मर गए हों और बाद में यह अधिक साफ हो गया हो कि यह कदम भारत की अर्थव्यवस्था के लिए कितनी तबाही ले आया  या कोविड महामारी को काबू में करने के नाम पर उसी तरह महज चार घंटे की मोहलत देकर मुल्क में लाॅकडाउन घोषित कर दिया गया हो, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ऐसी कोई सलाह न दी हो, लाखों लोगों को हजारों किलोमीटर दूर अपने घर की तरफ पैदल जाने के लिए मजबूर कर दिया गया हो, सैकड़ों लोग रास्ते में ही दम तोड़ दिए हों। लेकिन स्थिति में एक फर्क जरूर है। नाटक में राजा अपने मनमाने कदमों से अपनी तुगलकी छवि का एहसास दिला देता है। लेकिन यह ऐसा विचित्र वक्त है कि न कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी साबित हुए कदम को लेकर और न ही कोविड कुप्रबंधन की हक़ीकत के बावजूद - जिसके चलते आक्सिजन की कमी से तमाम जानें गयीं, फिर भी हमारे समय के कर्णधारों के निर्णय और ना ही उनका आचरण कहीं एजेंडा बन पाया। सब तरफ उनकी वाहवाही का ही आलम है।

पाकिस्तान के मशहूर विद्रोही शायर हबीब जालिब ने अपनी एक मशहूर नज्म़ ‘दस्तूर’ मे अपने समाज पर जबरदस्त टिप्पणी की थी, कहा था कि वहां किस तरह ‘जेहन की लूट’ का आलम है।

क्या यह कहना मुनासिब होगा कि 21 वीं सदी की तीसरी दहाई में यहां भी ‘जेहन की लूट’ का आलम है, हुकूमत के जिन कदमों, नीतियों के चलते जनता की बरबादी की दास्तां लिखी जा रही हो, उन्हें ही वह मास्टरस्ट्रोक  मान रही है; वरना क्या वह यह नहीं पूछती कि दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या में इन दो-तीन सालों में इतना उछाल क्यों आया है और इन्हीं दो तीन सालों में मुल्क के कर्णधारों के खास करीबी पूंजीपतियों की दौलत में दिन दूनी रात चौगुनी  इजाफा कैसे हो रहा है।

मिसाल के तौर पर बिल्किस प्रसंग को ही लें, जिसके साथ सामूहिक बलात्कार करनेवालों और उसके तेरह करीबियो की हत्या करने वाले दरिंदों को सूबा गुजरात की हुकूमत द्वारा सज़ा में मिली छूट को देखें, जिसके बारे में नए नए तथ्य सामने आ रहे हैं, लेकिन कहीं कोई बेचैनी नहीं है। उधर 15 अगस्त को लाल किले की तकरीर में वज़ीरे आजम के श्रीमुख से निकली नारी मुक्ति की बातों पर वही समाज ताली पीट रहा था और उसके चंद घंटों बाद उसी तत्परता से ‘बलात्कारियों के महिमामंडन पर, हत्यारों के नागरिक अभिनंदन' पर ताली पीटता दिखा। उसने यह भी नहीं सोचा कि आखिर मानवता को कलंकित करनेवाले इन लोगों को हार पहनाने का क्या औचित्य है।

 एक तरफ भारतीय संस्कृति  की तारीफ में यह कहना कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्रा देवता’ अर्थात जहां नारी की पूजा की जाती है, उसका सम्मान किया जाता है, वहां देवताओं का वास होता है’ और दूसरी तरफ सामूहिक बलात्कार के दरिन्दों का नागरिक अभिनंदन।

दिमागी अंधेरे की वही स्थिति तब दिखी जब कर्नाटक की पाठयपुस्तक में सावरकर पर लिखे आलेख में इस बात का जिक्र आया कि अंडमान में जहां वह बंद थे, वहां कोई बुलबुल आती थी और उसकी पीठ पर सवार होकर वह हररोज मातृभूमि  की सैर कर आते थे थी। सावरकर के जीवन की इस मनगढंत कहानी को लेकर - जहां तरह तरह से विरोध हो रहा था ; मगर जनता के बड़े हिस्से में ऐसी कोई बेचैनी नहीं थी।

कोई कह सकता है कि जनता को क्या दोष दिया जाए, वर्ष 2014 में जब अंबानी अस्पताल के उदघाटन पर नवनिर्वाचित प्रधानमंत्राी मोदी ने गणेश के हाथीनुमा शक्ल को जेनेटिक इंजिनीयरिंग  से जोड़ा था और विज्ञान कांग्रेस में ऐसी ही अनर्गल बातों को बार-बार वैधता प्रदान की जा रही हो, तब वह क्या कहे।

पढ़े लिखें प्रबुद्ध कहे जाने वालों की जड़बुद्धि के क्या कहने?

पिछले दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार बढ़ने की और ब्रिटेन से भी आगे बढ़ जाने को लेकर खूब शोरगुल हुआ, लेकिन बंददिमागी का आलम यह था कि किसी ने यह नहीं रेखांकित किया कि आज भी भारत का आम नागरिक ब्रिटेन के नागरिक की औसत कमाई का पांच प्रतिशत भी नहीं कमाता है। और जैसा कि अग्रणी पत्रकार रवीश कुमार अपने प्राइमटाईम में जिक्र करते हैं कि यह वही मुल्क है कि जहां प्रधानमंत्राी की आर्थिक सलाहकार समिति के प्रमुख भारत को निम्न मध्यमवर्गीय देश कहते हैं, जिस देश में पचीस हजार महीने की कमाई जिसकी है, वह चोटी के दस प्रतिशत में आ जाता है।

भारतीयों के विशाल बहुमत के जड़बुद्धि होने की बात जबभी चलती है तो उसे खारिज करने का एक ‘राष्ट्रवादी’ नज़रिया भी हाजिर हो जाता है। लोग कह उठते हैं कि अमेरिका परेशान हैं कि वहां भारतीय छा जाएंगे, और आप को भारतीयों में जड़बुद्धि होने का बहुतायत दिखता है। निश्चित ही भारतीय मेहनती हैं, चतुर भी हैं, अपना भला बुरा अच्छे से पहचानते हैं, मगर क्या यह सही नहीं कि विदेशों में जाकर भी वह अपने घेट्टो में ही रहते हैं - अपने समुदाय का घेट्टो, क्षेत्राविशेष के लोगों का घेट्टो, अपने जातिवादी-पितृसत्तात्मक मूल्यों का घेट्टो ; वहां जाकर भी आनर किलिंग करने में  संकोच नहीं करते हैं,  और वहां जाकर भी उन्हें दलितों के साथ भेदभाव करने में संकोच नहीं होता।  

एक ऐसा मुल्क जोे मानवीय मूल्य सूचकांक के मामले में अभी भी सबसहारन अफ्रीका से होड़ ले रहा हो, जहां हर साल पन्द्रह हजार से अधिक स्त्रियां दहेज हत्या के नाम पर मारी जाती हैं, जहां यौनकेन्द्रित गर्भपातों का आलम यह है कि 0-6 साल के बीच बच्चे-बच्चियों के अनुपात में गहरा अन्तर है, जहां जातीय आधारों पर दमन एवं अत्याचार यथावत जारी है, जहाँ अल्पसंख्यकों के जनसंहार के ऐलान धर्म सभाओं में करना कुछ खबर न बनता हो - वहां अपने आप को जगतगुरू मानने की प्रवृत्ति में कोई कमी नहीं है।  

विश्वस्तरीय प्यू रिसर्च सेन्टर - जो एक अमेरिकी थिंक टैंक है - द्वारा वैश्विक रूखों (global attitudes) को लेकर सैंतालीस मुल्कों में किए गए एक सर्वेक्षण के नतीजे दिलचस्प हैं। सर्वेक्षण में लोगों से यह पूछा गया कि क्या वह इस प्रश्न से सहमत-असहमत हैं: ‘हमारे लोग भले ही दोषहीन ना हों, मगर हमारी संस्कृति दूसरों से बेहतर है।’ इनमें भारतीय अव्वल नम्बर पर थे। अध्ययन में शामिल 93 फीसदी ने कहा कि हमारी संस्कृति दूसरों से बेहतर है, जिनमें से 64 फीसदी ने बिना किसी झिझक के इस कथन के प्रति सहमति दर्ज करा दी। सर्वेक्षण में 2043 लोगों को शामिल किया गया था, जो सभी शहरी इलाकों से थे, जिसका मतलब अधिक साक्षर, इंग्लिशभाषियों का बहुलांश एवं सापेक्षतः अधिक सम्पन्न। भारतीयों के बरअक्स 69 फीसदी जापानी एवं 71 फीसदी चीनियों का कहना था कि उनकी संस्कृति दुनिया में सबसे बेहतर है, जबकि सिर्फ 55 फीसदी अमेरिकी इस बात को मानते थे।

आखिर 21वीं सदी की इस तीसरी दहाई में कैसे आधुनिक सनातनी कहे जा सकने वाले भारतीय से रूबरू हैं जो भौतिक जगत में नयी-नयी छलांगे लगाने को तैयार हैं, मगर मूल्यों, चिन्तन के धरातल पर आज भी अभी भी गुजरे जमाने से चिपका हुआ है और उसे आज भी इस बात का एहसास नहीं है। इतना ही नहीं , वह सदियों के काल्पनिक अपमानों का बदला आज लेने के लिए आज हथियार गढ़ रहा है।

यह जड़बुद्धि शेष दुनिया को कैसे नज़र आता होगा इसके बारे में सातवीं सदी में भारत पहुंचे  चीनी विद्वान हयुएन त्संग के यात्रावृत्तांत का किस्सा सटीक जान पड़ता है। उपरोक्त कहानी का जिक्र जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब विश्व इतिहास की एक झलक में किया है। कहानी के मुताबिक दक्षिण भारत का एक आदमी कर्णसुवर्ण नाम के नगर में पहुंचा, जो नगर भागलपुर के आसपास कहीं बसा था। इस पुस्तक में लिखा है कि वह शख्स अपने पेट और कमर के चारों ओर तांबे के पत्तर लपेटे रहता और सिर पर जलती हुई मशाल बांध कर चलता। इस चित्रविचित्र पोशाक में विचरण कर रहे व्यक्ति को से जब कोई पूछता कि तुमने ऐसा स्वांग क्यों बना रखा है उसका जवाब रहता कि मुझमें इतनी अकल है कि अगर तांबे की चादर न लपेटे रहूं तो डर है कि मेरा पेट फट न जाए और मुझे सब तरफ दिखने वाले अज्ञानी आदमियों पर, जो अंधेरे में भटक रहे हैं। दया आती है इसलिए मैं अपने सिर पर मशाल लिए चलता हूं।

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