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प्रमोशन में आरक्षण : उत्तराखंड की भाजपा सरकार अपने ही जाल में उलझी

नैनीताल हाईकोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट जाने वाली भाजपा सरकार फिलहाल अपने ही फैलाये जाल में उलझ गई है। संसद में विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार को जिस तरह कठघरे में खड़ा किया है, अब उत्तराखंड सरकार के लिए आरक्षण हटाना आसान नहीं होगा।
Trivendra singh rawat

दलित वर्ग के करम राम बताते हैं कि दलितों के साथ होने वाला भेदभाव शहरों में तो फिर भी कम हुआ है लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों के गांवों में पुरानी ही स्थिति बनी हुई है। हम कभी मंदिर में जाते हैं तो वही पुजारी, जो शहर में हमारे साथ बैठते हैं, साथ चाय पीते हैं, वहां वे पत्तल में हमें टीका लगाने को देते हैं। पुजारी एक दलित को टीका तक नहीं लगाते। ये बेहद छोटी सी लेकिन बड़ी बात है। इससे आप हमारी सामाजिक स्थिति को समझिए। गांव में शादी-ब्याह का निमंत्रण सभी को होता है। लेकिन आज भी शादी समारोह में सवर्णों का खाना अलग बनता है, दलितों का भोजन अलग पकाया जाता है। रिश्तेदारी तो दूर की बात है, अभी तक तो हम साथ खाना नहीं खाते। न रोटी का रिश्ता बन पाया, न बेटी का।

करम राम उत्तराखंड एससी-एसटी इम्प्लॉइज एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। अपने पूरे परिवार दादा, पिता, ताऊ, चाचा और सभी भाई-बहनों में सरकारी नौकरी हासिल करने वाले एक मात्र व्यक्ति। बताते हैं कि इस वजह से समूचे परिवार की हर जरूरत पूरी करने के लिए उन पर भारी दबाव रहता है।

राज्य में एससी-एसटी समुदाय की सामाजिक स्थिति क्या है

टिहरी में पिछले वर्ष दलित युवक जितेंद्र की पीट-पीट कर हत्या की गई थी, क्योंकि वो सामान्य वर्ग के लोगों के सामने गलती से कुर्सी पर बैठ गया था। सवर्ण वर्ग के युवाओं को उसका कुर्सी पर बैठना अखर गया। उन्होंने जाति सूचक शब्द बोले, कहा- इसकी औकात देखो, ब्राह्मण के सामने कुर्सी पर बैठकर खाना खा रहा है। करम राम कहते हैं कि मानसिकता बदलने में अभी समय लगेगा।

पौड़ी के यमकेश्वर ब्लॉक से भाजपा विधायक ऋतु खंडूड़ी दलित समाज की स्थिति पर कहती हैं कि अब भी सभी वर्गों की समानता के लिए बहुत कुछ करना बाकी है। वह बताती हैं कि गांव में जब मैं फील्ड में जाती हूं और स्थितियां देखती हूं तो एहसास होता है कि आरक्षण की हमारे समाज में सख्त जरूरत है। गांवों में बहुत भेदभाव है। यह शहर में भी है। हमें कानून को पुख्ता करने की जरूरत है। मानसिकता बदलने जरूरत है। स्कूलों में शिक्षक तक दलित बच्चों के साथ भेदभाव करते हैं।

इसी बीच 7 जनवरी 2020 को उत्तराखंड विधानसभा का एक दिन का विशेष सत्र आयोजित किया गया था। संविधान की धारा-334 में एससी-एसटी वर्ग को विधायिका यानी संसद और विधानसभा में 10 साल के लिए आरक्षण का प्रावधान है। हर 10 वर्ष में संविधान में संशोधन के जरिए इसे अगले 10 वर्षों के लिए बढ़ाया जाता है। एक दिनी विशेष सत्र में भी ऋतु खंड़ूड़ी ने कहा कि समाज में बराबरी के लिए अभी आरक्षण की सख्त जरूरत है।

देहरादून में सामाजिक कार्यकर्ता दीपा कौशलम कहती हैं कि आप एक बार गांवों में घूमकर आइये और वहां की स्थितयां देखिए। दिक्कत ये है कि लोग अपने हक के लिए जागरुक नहीं है। दीपा कहती हैं कि सरकार अलग-अलग तरह से लगातार दलितों से जुड़े कानून को कमज़ोर कर रही है। इससे पहले एससी-एसटी एक्ट को भी कमज़ोर करने की कोशिश की गई थी।

करम राम बताते हैं कि दलित बच्चों को मिलने वाली छात्रवृत्ति की रकम 35 हजार से घटाकर 10 हजार कर दी गई है। इससे कमजोर आर्थिक स्थिति के बहुत से बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट गई है।

सरकारी नौकरी में एससी-एसटी प्रतिनिधित्व

जनवरी 2012 में सेवानिवृत्त मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे समिति ने एससी-एसटी वर्ग की उत्तराखंड की सरकारी नौकरियों में भागीदारी को लेकर रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक एससी-एसटी वर्ग की श्रेणी क में 11.5 प्रतिशत, श्रेणी ख में 12.5 प्रतिशत और श्रेणी ग में 13.5 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। इसमें भी एसटी की स्थिति और खराब है। सरकारी नौकरी में श्रेणी क में मात्र 2.98 प्रतिशत, श्रेणी ख में 2.17 प्रतिशत और श्रेणी ग में 1.66 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। इस रिपोर्ट के बावजूद 5 सितंबर 2012 को विजय बहुगुणा के नेतृत्व वाले कांग्रेस सरकार ने उत्तराखंड में प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था खत्म कर दी।

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क्या दलितों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई उत्तराखंड सरकार?

उत्तराखंड एससी-एसटी इम्पलॉइज एसोसिएशन के अध्यक्ष करम राम कहते हैं कि पहली बार किसी सरकार ने दलितों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। नैनीताल हाईकोर्ट ने एससी-एसटी वर्ग के हक में फैसला सुनाया था।

पिछले वर्ष नवंबर में आए नैनीताल हाईकोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ भाजपा की त्रिवेंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। हाईकोर्ट ने तीन अलग-अलग मामलों में सुनवाई करते हुए राज्य सरकार को नए प्रमोशन में आरक्षण देने के निर्देश दिए थे। इसके साथ ही सरकारी नौकरी में कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व का डाटा तैयार करने को कहा और प्रमोशन में आरक्षण के साथ रिक्त पदों पर प्रमोशन में आरक्षण देने का आदेश दिया। इस कानूनी लड़ाई के बीच पिछले वर्ष 1 अप्रैल से राज्य में प्रमोशन पर रोक लगी हुई है।

इस आदेश के बाद त्रिवेंद्र सरकार ने पहले हाईकोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की। फिर हाईकोर्ट से पुनर्विचार याचिका वापस लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी को उत्तराखंड सरकार पर ये फ़ैसला छोड़ा है कि वो राज्य में प्रमोशन में आरक्षण चाहती है या नहीं। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि कानून की नज़र में राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। पदोन्नति में आरक्षण का दावा मौलिक अधिकार नहीं है। ये पूरी तरह से राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर है कि उसे एससी-एसटी वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण देना है या नहीं।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखऱ आजाद और शाहीन बाग़ के निवासी अब्बास नकवी ने सर्वोच्च अदालत में पुनर्विचार याचिका दाखिल की है।

सुप्रीम कोर्ट के बाद अब सरकार के फ़ैसले का इंतज़ार

दरअसल उत्तराखंड में प्रमोशन में आरक्षण खत्म करने के लिए सामान्य-ओबीसी वर्ग के कर्मचारी लगातार उग्र प्रदर्शन कर रहे थे और सरकार पर इस व्यवस्था को खत्म करने का दबाव बना रहे थे। सामान्य-ओबीसी इम्पलाइज एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष दीपक जोशी कहते हैं कि प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए। एसोसिशन चाहता है कि सरकार कानून बनाकर इस व्यवस्था को खत्म करे।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद सामान्य-ओबीसी इम्पलाइज एसोसिएशन और एससी-एसटी इम्प्लाइज एसोसिएशन को लोगों ने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से मुलाकात की। सामान्य वर्ग जल्द प्रमोशन पाने की चाहत में है। वहीं, एससी-एसटी वर्ग को उम्मीद है कि सरकार उनके साथ अन्याय नहीं करेगी।

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद 10 फरवरी को संसद में भी आरक्षण को लेकर जोरदार बहस हुई। कांग्रेस की सरकार के समय उत्तराखंड में प्रमोशन से आरक्षण हटा। लेकिन संसद में राहुल गांधी इस मुद्दे पर भाजपा को घेरने की कोशिश कर रहे थे। उत्तराखंड में सामान्य और ओबीसी वर्ग के लोग राहुल गांधी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और देहरादून में उनका पुतला दहन किया जा रहा है।

आरक्षण सामाजिक व्यवस्था को दुरुस्त करने की व्यवस्था थी, जो आज पूरी तरह राजनीतिक बन गई है। वोट बैंक के हिसाब से आरक्षण का मसला तय किया जाता है। उत्तराखंड के सामान्य वर्ग के कर्मचारी राज्य की सरकार को अपने वोट की ताकत का एहसास करा रहे हैं।

उत्तराखंड सरकार कहती है कि हम अभी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का अध्ययन कर रहे हैं। उसके बाद ही प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर आदेश जारी किया जाएगा। नैनीताल हाईकोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट जाने वाली भाजपा सरकार फिलहाल अपने ही फैलाये घेरे में उलझ गई है। संसद में विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार को जिस तरह कटघरे में खड़ा किया है, अब उत्तराखंड सरकार के लिए आरक्षण हटाना आसान नहीं होगा।

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