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कोरोना के चलते जब रेस्त्रां तक बंद कर दिए गए, तो राजनीतिक रैलियों को भी रोका जाना चाहिए: डॉ शाहिद जमील 

दिग्गज विषाणु विशेषज्ञ शाहिद जमील का कहना है कि कोविड-19 को नियंत्रित करने की वैज्ञानिक नीति मिश्रित संदेशों, ख़राब संचार, अफ़वाहों और पारदर्शिता की कमी के चलते कमज़ोर हो गई।
Dr. Shahid Jameel

दिग्गज विषाणु विशेषज्ञ (वॉयरोलॉजिस्ट) डॉ शाहिद ज़मील फिलहाल अशोका यूनिवर्सिटी में त्रिवेदी स्कूल ऑफ़ बॉयोसाइंस के निदेशक हैं। न्यूज़क्लिक के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि क्यों राजनीतिक और धार्मिक जमावड़ों को तुरंत रोका जाना चाहिए, ताकि कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों को थामा जा सके। डॉ ज़मील के मुताबिक़, अगर लोग मौजूदा दौर में सही व्यवहार अपनाएं, तो इससे संक्रमण की दर को धीमा किया जा सकता है। इसके साथ-साथ लोगों को अफ़वाहों पर ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे अवैज्ञानिक व्यवहार को बल मिलता है। वह कहते हैं, "वैक्सीन से जमने वाले खून के थक्के की तुलना में बिजली गिरने से मरने की संभावना ज़्यादा है।" यहां इस इंटरव्यू के संपादित हिस्से पढ़िए। 

हाल के दिनों में कोरोना वायरस के मामलों में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है। हमने पिछले साल जो देखा, क्या यह उसी का दोहराव है? क्या हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं इनका भार उठा सकती हैं, जबकि उन पर पहले से ही बहुत ज़्यादा भार है?

हां, कोरोना वायरस के मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है। हमारी स्वास्थ्य सुविधाओं पर इस वक़्त बहुत ज़्यादा दबाव है। हर दिन अस्पताल पूरे भर रहे हैं। अब अस्पतालों में बिस्तर पाना बहुत ज़्यादा मुश्किल हो गया है। इसका सिर्फ़ एक ही तर्क समझ में आता है कि वायरस ने अपने आप को बदल लिया है। कोरोना वायरस का यह नया प्रकार आबादी में ज़्यादा तेजी से फैल रहा है। ऊपर से सबने समझ लिया था कि वायरस अब जा चुका है और लोगों ने अपनी सावधानियां कम कर दीं। लेकिन अब संभावित तौर पर ज़्यादा ताकत के साथ वायरस वापस आ गया है। अगर आप मृत्यु दर को देखें, तो समझ में आता है कि यह जान के लिए उतना घातक नहीं है, लेकिन मैं निश्चित तौर पर इस बात का दावा नहीं कर सकता। 

दिल्ली में सर गंगाराम और एम्स जैसे दिग्गज अस्पतालों में वैक्सीन लगवा चुके डॉक्टर और अन्य स्टाफ के संक्रमित होने की ख़बरें आ रही हैं। तो लोग पूछ रहे हैं कि क्या वाकई वैक्सीन से सुरक्षा मिलती भी है या नहीं?

पहली बात तो यह समझने की जरूरत है कि वैक्सीन संक्रमण के खिलाफ़ सुरक्षा नहीं देती। बहुत सारे लोगों के बीच यह गलतफहमी है कि अगर आप वैक्सीन ले लेते हैं, तो आपको सुरक्षा मिल जाएगी। वैक्सीन गंभीर बीमारियों के खिलाफ़ आपकी रक्षा करती है। अगर आप वैक्सीन लेने के बाद भी जोख़िम भरा व्यवहार जारी रखते हैं, तो आप संक्रमित हो जाएंगे। वैक्सीन का परीक्षण सिर्फ़ बीमारियों के खिलाफ़ कार्यकुशलता के लिए हुआ है। ऐसा सिर्फ़ इसी वैक्सीन के साथ नहीं है, बल्कि दूसरी वैक्सीनों के साथ भी ऐसा ही होता है। दिल्ली अस्पताल के एक बहुत वरिष्ठ डॉक्टर ने मुझे बताया कि जो लोग ICU में काम करते हैं, वो पूरी तरह सुरक्षित हैं। वहां संक्रमण का कोई मौका ही नहीं होता। बहुत संभावना है कि लोग बाहर संक्रमित हो रहे हैं। चूंकि यह लोग डॉक्टर हैं और हम उनके मामलों को सुनते रहते हैं, इसलिए हमारा ध्यान उनकी तरफ जल्दी जाता है। जबकि हम उन आम लोगों के बारे में नहीं सुनते जो संक्रमित हो रहे हैं। 

यहां क्या हो रहा है, हम यह कैसे तय कर सकते हैं?

इस चीज पर जांच शुरू हो चुकी हैं। पहली व्याख्या यह है कि वैक्सीन संक्रमण के खिलाफ़ सुरक्षा नहीं देते; वे बीमारी के खिलाफ़ रक्षा करती हैं। देखिए, जो लोग वैक्सीन लेने के बाद भी संक्रमित हुए हैं, वे घर पर ही आइसोलेशन में हैं। अगर उन्हें वैक्सीन नहीं लगा होता, तो हो सकता है कि इस बीमारी का उनपर बहुत गंभीर असर पड़ता। हम नहीं जानते कि यहां बदला हुआ वायरस सक्रिय है या नहीं। ऊपर से कोरोना वैक्सीन पर सभी का इतना ज़्यादा ध्यान है कि उससे संबंधित कोई भी छोटी चीज होती है, तो डर का माहौल बन जाता है। 

हमने कभी इस तरीके की महामारी नहीं देखी। क्या अब सबकुछ रुका हुआ सा दिखाई देता है? हमारी जिंदगी पूरी तरह बदल चुकी है, अब यह कभी पहले जैसी नहीं हो सकती?

बिल्कुल सही बात है। हमने कभी इतनी प्रबल महामारी नहीं देखी, लेकिन हमने पहले भी महामारियां झेली हैं। 2009 में हमने स्वाइन फ्लू देखा, जिसने संभावित तौर पर 70 करोड़ से 1.4 अरब लोगों को संक्रमित किया था। प्रयोगशालाओं में पुष्टि किए गए मामलों की संख्या 5,00,000 थी। 

कोविड-19 की वैक्सीन हमने 12 महीनों में विकसित कर ली, इसलिए हम इसके बारे में बात कर रहे हैं। चूंकि स्वाइन फ्लू के वक़्त वैक्सीन नहीं थी, इसलिए यह सवाल तब पैदा नहीं हुए। अब वैक्सीन उपलब्ध हैं और उनसे संबंधित हर अच्छी-बुरी चीज पर बहुत ध्यान केंद्रित है। 

कई लोग नहीं जानते कि स्वाइन फ्लू महामारी इतने बड़े पैमाने पर फैली थी। क्या उसे रोका गया था?

नहीं उसे नहीं रोका जा सकता था। दुनिया भर के आंकड़ों को देखिए। दिक्कत यह है कि हमारी याददाश्त काफ़ी छोटी है। 

कई लोगों का कहना है कि कोरोना वायरस के मामलों में हालिया उछाल कोरोना वायरस के यूके और साउथ अफ्रीकी प्रकारों की वज़ह से आया है, जो महाराष्ट्र और पंजाब में फैला हुआ दिखाई दे रहा है?

यूके प्रकार पंजाब में फैला हुआ है। सरकार ने 24 मार्च को आंकड़े जारी किए थे, जिनके मुताबिक़ इस दोहरे प्रकार के वायरस के 20 फ़ीसदी मामले पंजाब में हैं। लेकिन इसे "दोहरा प्रकार" कहना सही नहीं होगा। कोविड-19 से संक्रमित करने वाले वायरस में 15 अलग-अलग तरह के बदलाव हो चुके हैं, जिनमें से दो बेहद विकट हैं। हमारे पास इस बात के आंकड़े उपलब्ध नहीं है कि यही प्रकार महाराष्ट्र और दूसरे राज्यों में फैले हैं या नहीं।

हमारे यहां पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, जहां बड़ी संख्या में भीड़ इकट्ठी होती है। रैलियों में आने वाले ज़्यादातर लोग मास्क नहीं पहनते। यहां तक कि बड़े नेता भी मास्क पहने दिखाई नहीं देते। मुझे आशंका है कि इन राज्यों में भी बड़े पैमाने पर कोरोना वायरस फैला हुआ है, लेकिन मेरे पास इस बारे में आंकड़ा नहीं है।

क्या ऐसा उच्च नेतृत्व में जागरुकता की कमी के चलते है?

मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि उनमें, खासकर राजनीतिक नेतृत्व में जागरुकता होगी। वे लोग टीवी पर आते हैं और कहते हैं कि वैक्सीन की कोई कमी नहीं है। क्या यह सब सिर्फ़ राजनीतिक कहानी है? मैं नहीं जानता! मैं प्रशासनिक ढांचे का हिस्सा नहीं हूं। मैं नहीं जानता कि यह लोग क्या योजना बना रहे हैं।

यहां दो विरोधाभासी चीजें होती हुई दिखाई दे रही हैं। हमारे कई शीर्ष नेताओं को कोरोना नहीं हुआ, इसके बावजूद इन्हें चुनाव इतने अहम नज़र आ रहे हैं कि उनके लिए कोरोना के नियमों को ताक पर रखा जा रहा है।

यहां कई सारे विरोधाभास हैं। कुछ राज्यों में आपने रात का कर्फ्यू लगाया है, जबकि दूसरी जगहों पर बड़ी भीड़ को इकट्ठा होने की अनुमति दी जा रही है। कुंभ मेले का ही उदाहरण ले लीजिए, जहां नहाने के लिए लाखों की संख्या में लोग इकट्ठा हुए हैं। 

क्या हमें पूरे देश में कोरोना की एक समान नीति की जरूरत है?

सिर्फ़ नीति-निर्माता ही इस चीज पर बोल सकते हैं। मैं आपको यह नहीं बता सकता कि वे लोग किस तरह की नीति बना रहे हैं या उसका पालन कर रहे हैं।

मैंने आपसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पूछा।

एक वैज्ञानिक नीति कहती है कि हमें बड़े जमावड़े या सभाएं नहीं लगानी चाहिए। हजारों लोगों को सभाओं में आने की अनुमति देकर आप राजनीतिक रैली कैसे कर सकते हैं? जब आप रेस्तरां जैसी चीजें बंद कर चुके हैं, तो राजनीतिक रैलियां कैसे कर सकते हैं? यह वैज्ञानिक तर्क है।

क्या वैज्ञानिकों को इन चुनावी रैलियों के खिलाफ़ नहीं बोलना चाहिए?

वैज्ञानिक इनके खिलाफ़ बोल रहे हैं, लेकिन वे कितना ही कर सकते हैं? वैज्ञानिक लेख लिख रहे हैं, इंटरव्यू दे रहे हैं, महामारी को नियंत्रित करने के लिए सरकार को अलग-अलग तरीके से मदद कर रहे हैं। इसके अलावा वे लोग क्या कर सकते हैं?

वायरस के इन नए प्रकारों के बारे में बहुत ज़्यादा चेतावनी दिए जाने की जरूरत थी। क्या विदेशों से आने वाले लोग इन्हें लेकर आ रहे हैं, अब तक हमारे यहां यह बहुत बड़े पैमाने पर फैल चुका है।

वायरस मानवीय व्यवहार से फैलता है। अगर हम लोग प्रोटोकॉल का पालन नहीं करेंगे, तो हमें समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। यह प्रशासनिक तंत्र में विश्वास की कमी से भी जुड़ा हुआ है। हर कोई तंत्र को बॉयपास करना चाहता है। मुंबई से ऐसी ख़बरें भी आईं कि क्वारंटीन किए गए यात्रियों ने रिश्वत देकर क्वारंटीन तोड़ दिया। हम एक बेहद जटिल देश में रहते हैं। ज़मीनी हकीक़त बहुत अलग हैं। 

दिसंबर और जनवरी में एक राहत का अहसास था कि शायद अब हम इस महामारी का खात्मा देख सकेंगे। क्या अब स्थिति उलट चुकी है?

अब भी वक़्त है। अगर हम सही तरीके से व्यवहार करते हैं, तो यह नीचे जाएगा। हमें सावधानी रखनी होगी। सड़कों पर जाकर देखिए कितने लोगों ने मास्क, वह भी सही ढंग से पहना हुआ है। चूंकि वैक्सीन आ चुकी है, तो इसका मतलब यह नहीं हुआ कि सबकुछ ठीक हो जाएगा। इस वैक्सीन को आपके भीतर जाना होगा, फिर रोग प्रतिरोधक क्षमता बनने के लिए 6 हफ़्ते का वक़्त लगता है। इससे निपटने का प्राथमिक उपकरण हमारे व्यवहार में परिवर्तन लाना है। लगातार यह चीज दोहराई जा रही है। लेकिन इसे माना नहीं जा रहा। बल्कि लोगों में डर का माहौल है। लोग कह रहे हैं कि "डॉक्टर संक्रमित हो रहे हैं, इसलिए वैक्सीन उपयोगी नहीं है। यूरोप में इससे लोगों में रक्त के थक्के जम रहे हैं, इसलिए मैं वैक्सीन नहीं लगवाऊंगा।"

वैक्सीन कार्यक्रम की एक कमज़ोरी यह है कि सरकार ने इसके दुष्प्रभावों के बारे में बताने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्हें वैक्सीन लगा और उनकी मौत हो गई। इन्हीं में से एक वरिष्ठ वकील थे, जिनके परिवार ने पोस्टमॉर्टम की मांग की थी, लेकिन उन्हें नतीज़े एक महीने बाद मिलेंगे। पारदर्शिता की कमी से अफ़वाहें उड़ रही हैं और वैक्सीन लेने को लेकर लोगों में चिंताएं बढ़ रही हैं।

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा हुआ। मैं परिवार के लिए यही दुआ करता हूं कि उन्हें कुछ ऐसा मिले, जिससे उन्हें संतोष मिल सके। लेकिन बिना वैक्सीन के भी रक्त के थक्के जमने की दर प्रति हज़ार मामलों में एक या दो फ़ीसदी होती है। लेकिन अगर आप रक्त का थक्का जमने वाले कुल मामलों को, कुल लगाई गई वैक्सीन की संख्या से भाग दे दें, तो टीकाकरण के बाद रक्त का थक्का जमने की दर बहुत कम आती है। 

वैक्सीन से जमने वाले रक्त के थक्के से मरने की दर, बिजली गिरने से होने वाली मृत्यु की दर से भी आधी है। जब हम बाहर जाते हैं, तो हम बिजली गिरने की परवाह नहीं करते! बिजली गिरने से होने वाली मृत्यु की दर 1:1,38,000 है, लेकिन वैक्सीन के बाद होने वाली मृत्यु की दर 1:3,00,000 है। दिक्कत यह है कि हम सुनी-सुनाई बातों में ज़्यादा यकीन रखते हैं। 

सुनी-सुनाई बातें इसलिए भी ज़्यादा प्रबल हैं, क्योंकि यह सारा कुछ हमारे लिए नया है। लेकिन तथ्य यह है कि सरकार ने लोगों को भरोसा नहीं दिलाया। स्वास्थ्य मंत्रालय को इन सारे मुद्दों से निपटना चाहिए था। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट कहती है कि कुल 700 लोग इन बुरे प्रभावों से ग्रसित हुए। 

वहीं सरकार इस आंकड़े को 180 बताती है। लेकिन मेरा मानना है कि बेहतर संचार काम करता है। पिछले साल स्पष्ट संचार एक कमी रहा है। संदेश देने के क्रम में बहुत सारा घालमेल हुआ है। 

बिल्कुल, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि हमें यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के कोविडशील्ड द्वारा रक्त के थक्के बनाए जाने के शक को गंभीरता से लेना चाहिए?

फिर समाधान क्या है? क्या हमें कोविडशील्ड देना बंद कर देना चाहिए? सरकार ने अब तक 9.5 करोड़ लोगों को वैक्सीन दी है, जिसमें से 90 फ़ीसदी कोविडशील्ड है। मतलब 8.5 करोड़ लोगों को कोविडशील्ड वैक्सीन लगाई गई है। अब गणित लगा लीजिए। मैं आपको भरोसा दिला सकता हूं कि यह आंकड़े, पैरासेटमॉल से होने वाले दुष्प्रभावों के मामलों से कम ही बैठेंगे। 

हम मान लेते हैं कि वैक्सीन की कमी है। क्या सरकार वैक्सीन आयात कर सकती है?

हमें वैक्सीन आयात करने की जरूरत नहीं है। दो वैक्सीन पहले से ही नियामक अनुमति मिलने का इंतज़ार कर रही हैं। स्पुतनिक भारत में साझेदारी के साथ उतर चुकी है और हर साल 80 करोड़ खुराक बनाने को तैयार है। जॉनसन एंड जॉनसन ने हैदराबाद स्थित एक कंपनी के साथ करार किया है। पता नहीं क्यों नियंत्रकों ने इन वैक्सीन को अतिरिक्त परीक्षण (ब्रिजिंग ट्रायल) पर रखा हुआ है? स्पुतनिक 40 देशों में उपयोग की जा रही है। (स्पष्टीकरण: स्पुतनिक V को भारत ने मंगलवार को अनुमति दे दी है।) कोविडशील्ड और कोवैक्सिन को बिना ब्रिजिंग ट्रायल के ही अनुमतियां दे दी गई थीं। कोवैक्सिन को तो कार्यकुशलता के आंकड़ों के बिना ही अनुमति दे दी गई थी। 

हमें इस वायरस के साथ कितने वक़्त तक रहना होगा?

हमें इस वायरस के साथ अगले कुछ सालों तक रहना होगा। यह धीरे-धीरे नीचे जाएगा, फिर यह धीरे-धीरे यह स्थानिक महामारी बन जाएगा। कुछ मौसमी विस्फोट भी होते रहेंगे। महामारी के खात्मे के बाद भी हमें कुछ जगहों पर स्थानीय संक्रमण विस्फोट झेलते रहने होंगे।

रश्मि सहगल स्वतंत्र पत्रकार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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