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कृषि क़ानूनों की वापसी : कोई भी जनांदोलन बेकार नहीं जाता

किसानों के इस आंदोलन ने बिहार के तीसा आंदोलन और उत्तर प्रदेश में बाबा रामचंदर द्वारा चलाए गए किसान आंदोलन की यादें ताज़ा कर दीं। उन्हें एक साल बाद अपने उद्देश्य में सफलता मिली।
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शुक्रवार को सुबह नौ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी न्यूज़ चैनलों पर प्रकट हुए और घोषणा कर दी कि पिछले साल सितम्बर 2020 में बने तीनों कृषि क़ानून रद्द किए जाते हैं। उन्होंने इसके लिए माफ़ी भी माँगी। इस तरह उन्होंने अपनी हार का ऐलान कर दिया है। तीन महीने बाद उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव हैं। इनमें से पंजाब में कांग्रेस की और बाक़ी राज्यों में बीजेपी की सरकार है। इसमें भी सबसे महत्त्वपूर्ण उत्तर प्रदेश का चुनाव है। यहाँ विधानसभा की 403 और लोकसभा की 80 सीटें हैं। उत्तर प्रदेश ही केंद्र की सरकार बनाने में निर्णायक होता है। अब चुनाव के इतना क़रीब आकर अचानक प्रधानमंत्री की घोषणा ने कुछ अनुत्तरित सवाल खड़े कर दिए हैं।

पिछले साल 26 नवंबर से किसान दिल्ली को घेरे बैठे हैं। जाड़ा, गर्मी, बरसात सब उन्होंने झेला मगर वे दिल्ली की सीमाओं पर जमे रहे। इस धरने में बहुत से किसानों की जानें भी गईं। पूरी ताक़त से नरेंद्र मोदी सरकार ने इस धरने को उठवा देने का प्रयास किया, किंतु हर बार सरकार को मुँह की खानी पड़ी। लेकिन विधानसभा चुनाव के मात्र तीन महीने पहले प्रधानमंत्री ने लगभग मान लिया कि ये क़ानून लाना उनकी भूल थी। अब कोई भी यह बात मानने को तैयार नहीं है कि मोदी जैसा चतुर राजनेता यूँ खेद प्रकट करेगा। उनकी छवि एक हठी राजनेता की रही है। जब उन्होंने नागरिकता बिल के हुए प्रदर्शन को दरकिनार कर दिया और जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 ही नहीं हटाया बल्कि उसका राज्य का स्टेटस छीन कर केंद्र शासित बना दिया तब अचानक मोदी जी की इस ग्लानि को क्या समझा जाए?

यह भी एक ज़ाहिर-सी बात है कि कोई भी राजनेता जब अपनी पार्टी में सबसे ताकतवर होने लगता है, तो पहला काम वह यह करता है कि सेकंड लाइन को पनपने ही न दो। चूँकि नरेंद्र मोदी की बनाई लीक पर चल कर मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ भी खूब सक्रिय हो रहे थे। अपने उग्र हिंदूवादी भाषणों से उन्होंने वह हैसियत हासिल कर ली कि बीजेपी के अंदर उन्हें भी उग्र हिंदुत्त्व का पर्याय मान लिया गया था। सूत्रों की मानें तो बीजेपी के सांगठनिक परिवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंदर उनकी हैसियत नरेंद्र मोदी से एक बित्ता ऊपर हो गई थी। इसीलिए योगी को इग्नोर करने की हरसंभव कोशिश वे कर रहे थे। अभी 16 नवम्बर को सुल्तानपुर में पूर्वांचल एक्सप्रेस के लोकार्पण पर भी योगी उनकी कार के पीछे-पीछे चल रहे थे। जबकि वे उस राज्य में गए हुए थे, जहां के मुखिया ख़ुद योगी आदित्यनाथ हैं। नियमतः मुख्यमंत्री अपने स्टेट में सर्वोपरि है। प्रधानमंत्री उसका बॉस नहीं है। लेकिन इसके बावजूद योगी उनकी कार के पीछे पैदल चले। यहाँ तक कि मुख्यमंत्री की सुरक्षा में रहने वाला सुरक्षा घेरा (रिंग टीम) भी उनके साथ नहीं था जबकि प्रधानमंत्री की एसपीजी मोदी जी को घेरे थी।

इसके पहले भी योगी आदित्य नाथ जब दिल्ली आए थे, तब भी प्रधानमंत्री ने उनसे मुलाक़ात तो की लेकिन उनको अपमानित करने के बाद ही। इससे यह भी कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव के क़रीब प्रधानमंत्री की इस घोषणा के पीछे योगी आदित्यनाथ को ‘पैदल’ करने की रणनीति तो नहीं। एक तरफ़ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथी केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे पर आंदोलन कर रहे किसानों पर गाड़ी चढ़ा देने का आरोप है। और उन्हें अभी तक मंत्रिपद से हटाया नहीं गया है तब यह उदारता क्यों? यही कारण है कि लोग प्रधानमंत्री की सदाशयता पर भरोसा नहीं कर रहे।

यह भी सच है कि किसान आंदोलन से पूरी दुनिया में मोदी सरकार की किरकिरी हो रही थी। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आंदोलन कर रहे किसानों की तरफ़दारी की थी। इसके बाद किसान नेता पूरे देश में घूम-घूम कर आंदोलन को बढ़ा रहे थे। इस सबसे सरकार की ख़ूब भद पिट रही थी। यह तय था कि यदि आंदोलन 2024 तक चलता रहता तो मोदी सरकार के लिए इतना बड़ा संकट खड़ा हो जाता कि उसकी भरपायी कई दशकों तक मुश्किल होती। लेकिन विधानसभा चुनावों के पूर्व अपनी भूल स्वीकार कर लेने से उन्हें एक सद्भावना मिल सकती है।

लेकिन एक सरकार जो हर मोर्चे पर फेल रही। देश की अर्थ व्यवस्था बुरी तरह ध्वस्त हो चुकी है, महंगाई चरम पर है तथा बेरोजगारों की इतनी बड़ी फ़ौज कभी नहीं खड़ी हुई। तब क्या इस सरकार के प्रति पब्लिक वैसा ही उत्साह दिखाएगी, जैसा 2014 और 2019 में दिखाया। धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति कुछ समय के लिए तो चल जाती है लेकिन लंबे समय तक तो लोक हितकारी नीतियाँ ही कारगर होती हैं। अब जिस तरह से विपक्षी दलों ने मोदी सरकार के इस माफ़ीनामे पर उन्हें घेरा है, उससे लगता है कि राजनीतिक दल भी 2024 की लड़ाई के लिए एकजुट हो रहे हैं। वे भी समझ रहे हैं कि यह सब झुनझुना मात्र है।

किसानों के इस आंदोलन ने बिहार के तीसा आंदोलन और उत्तर प्रदेश में बाबा रामचंदर द्वारा चलाए गए किसान आंदोलन की यादें ताज़ा कर दीं। उन्हें एक साल बाद अपने उद्देश्य में सफलता मिली। इस तरह उन्होंने यह भी दिखा दिया कि इस देश में किसान आज भी सबसे बड़ी ताक़त है और आंदोलन को लंबा खींचने का धैर्य उनमें है। एक साल तक दिल्ली में ग़ाज़ीपुर और टीकरी बॉर्डर को घेर लेना आसान नहीं था, लेकिन किसानों ने इसे कर दिखाया। उनके इस धैर्य को सलाम तो बनता ही है।

यह भी ध्यान रखना चाहिए, कि कोई भी जन आंदोलन व्यर्थ नहीं जाता। उसका असर दिखता ही है। सरकार कितना ही उसकी अनदेखी करने का नाटक करे, पर हर आंदोलन ज़मीनी लेबल पर हिट ज़रूर करता है। ज़ाहिर है आंदोलन सत्तारूढ़ दल को ही नुक़सान पहुँचाएगा। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल इस का लाभ उठा सकते हैं। ये दोनों ही किसानी बेस वाले राजनीतिक दल हैं और उन्हें उम्मीद जगी है कि वे अब उत्तर प्रदेश में बीजेपी के भारी-भरकम प्रचार के बावजूद वे अब कुछ कर सकते हैं। किसान आंदोलन में जीत ने उन्हें नया जीवन दिया है।

यद्यपि पिछली सरकारें भी कोई किसान समर्थक नहीं रही हैं। बढ़ते शहरीकरण ने उनकी ज़मीनों का दायरा संकुचित कर दिया है, लेकिन भाजपा सरकारें उनकी समस्याओं से रू-ब-रू नहीं हो पाईं और उनके अपने पैरामीटर में किसान सदा पीछे रहा। इसलिए भी बीजेपी को किसान आंदोलन महँगा पड़ सकता था। शायद इसीलिए ये क़ानून वापस हुए। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि तीन महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में वापसी का कोई फ़ायदा नहीं होगा। भाजपा के पक्ष में यह बात जरूर है कि ग्रामीण मज़दूर और गरीब वर्ग भाजपा से जुड़ा है, फिर वह भले ही किसी जाति का हो। कुछ युवा भी हिंदुत्त्व को लेकर बीजेपी का झंडा उठाए हैं। लेकिन ध्यान रखना चाहिए, कि यह वर्ग हवा में जीता है। जब वह धरातल में आता है, तब ही रोज़मर्रा की समस्याओं से वह जूझता है। इसलिए बेहतर यह होता कि भाजपा दूरगामी योजनाएँ बनाती। जिसमें उद्योग होते, देसी रोजगार होते और कम से कम विदेशी फंडिंग होती ताकि देश का पैसा देश में रहता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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