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पेट्रोल/डीज़ल की बढ़ती क़ीमतें : इस कमर तोड़ महंगाई के लिए कौन है ज़िम्मेदार?

केंद्र सरकार ने पिछले आठ वर्षों में सभी राज्य सरकारों द्वारा करों के माध्यम से कमाए गए 14 लाख करोड़ रुपये की तुलना में केवल उत्पाद शुल्क से ही 18 लाख करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की है।
petrol price
11 अप्रैल (एएनआई): नई दिल्ली में सोमवार को एक पेट्रोल पंप अटेंडेंट पेट्रोल भरते हुए। पेट्रोल की क़ीमतों में वृद्धि जारी है।

एक बार फिर, केंद्र सरकार ने पेट्रोल/डीजल की बढ़ती कीमतों के लिए राज्य सरकारों के सर पर दोष मढ़ने की कोशिश की है। इस बार, यह काम खुद प्रधानमंत्री मे किया जिन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के पिछले नवंबर में केंद्रीय उत्पाद शुल्क में कमी करने के बावजूद विपक्ष शासित राज्य सरकारों ने मूल्य वर्धित कर (वैट) जैसे करों को कम नहीं किया जिसके कारण पेट्रोल-डीजल की कीमतें अत्याधिक बढ़ गई है, वो अलग बात है कि केंद्र सरकार ने जो केंद्रीय उत्पाद शुल्क में कमी की थी वह मामूली थी। 

पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय केई तहत काम करने वाले पेट्रोलियम योजना और विश्लेषण प्रकोष्ठ (पीपीएसी) के आंकड़ों के अनुसार, देश के चार महानगरों (दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई) में 29 अप्रैल, 2022 को पेट्रोल की औसत प्रति लीटर कीमत 112.97 रुपये थी, और डीजल की औसत कीमत 100.55 रुपये थी। जून 2017 से पेट्रोल की कीमतों में 62 प्रतिशत से अधिक और डीजल की कीमतों में 76 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। इन ऊंची कीमतों का जरूरी खाद्य पदार्थों सहित विभिन्न वस्तुओं की कीमतों पर व्यापक प्रभाव पड़ा है, क्योंकि इन ईंधनों का उपयोग खेती और वस्तुओं के परिवहन में बड़े पैमाने पर किया जाता है। यह गौर करने की बात है कि आसमान छूती कीमतें देश में बड़े पैमाने पर असंतोष पैदा कर रही हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो कर रहे थे, वह इतनी ऊंची कीमतों को बनाए रखने के लिए अपनी सरकार की उस आलोचना को कुंद करने की कोशिश कर रहे थे, जिसकी वजह से उपभोग की सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो रही है। केंद्र सरकार उन तेल विपणन कंपनियों पर कर लगाती है जो पेट्रोल और डीजल रिफाइनरियों से खरीदकर तेल को उपलब्ध कराती हैं, जो आयातित कच्चे तेल को पेट्रोल, डीजल और अन्य पेट्रोलियम-आधारित उत्पादों में परिवर्तित करती हैं। लगाया जाने वाला मुख्य कर उत्पाद शुल्क है। राज्य सरकारें इन ईंधनों पर वैट या बिक्री कर लगाती हैं। कराधान की इन दो धाराओं की तुलना कैसे की जाती है? कौन अधिक कर लगाता है? आइए इस पर एक नजर डालते हैं।

पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्रीय बनाम राज्य कर

जैसा कि नीचे दिए गए ग्राफ में दिखाया गया है (जिसे पीपीएसी डेटा से प्राप्त किया गया है), पेट्रोलियम उत्पादों (रेड लाइन देखें) से उत्पाद शुल्क संग्रह 2014-15 में महज 0.99 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर, जिस वर्ष मोदी सत्ता में आए थे, 2.43 लाख करोड़ रुपये हो गया था। 2016-17, और फिर 2018-19 में मामूली रूप से घटकर 2.14 लाख करोड़ रुपये हो गया था। यह 2019-20 में थोड़ा बढ़कर 2.23 लाख करोड़ रुपये हो गया, लेकिन उसके बाद, यह महामारी वर्ष 2020-21 में नाटकीय रूप से बढ़कर 3.73 लाख करोड़ रुपये हो गया था, और 2021-22 में अपने उसी स्तर को बनाए रखा (दिसंबर 2021 तक उपलब्ध डेटा के अनुसार)। 

इसकी तुलना में, वैट या बिक्री कर (ब्लू लाइन देखें) के माध्यम से सभी राज्य सरकारों का कुल कर संग्रह 2014-15 में 1.37 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2020-21 में 2.03 लाख करोड़ रुपये हो गया, और 2021-22 में वही स्तर बनाए रखा है, जिसके लिए फिर से दिसंबर 2021 तक के आंकड़े उपलब्ध हैं।

जाहिर है, केंद्र सरकार अपने उत्पाद शुल्क संग्रह से बड़ी रकम जुटा रही है, जो राज्यों के कुल योग से कहीं ज्यादा है। वास्तव में, 2020-21 के पूरे वर्ष के लिए, केंद्र सरकार का उत्पाद शुल्क संग्रह, राज्यों के कुल वैट/बिक्री कर संग्रह से 1.8 गुना अधिक रहा है। 

इसे इस तरह से देखिए- 2014 से अब तक पीएम मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क लगाकर 18.23 लाख करोड़ रुपये का संग्रह किया है। इसी अवधि में, राज्य सरकारों ने समान उत्पादों पर वैट/बिक्री कर से 14.26 लाख करोड़ रुपये एकत्र किए हैं। इस बात से बेखबर कि केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों को अपने लिए नकदी पैदा करने के रूप में इस्तेमाल किया है, इस बात की परवाह किए बिना कि वस्तुओं की कीमतों में असहनीय वृद्धि के कारण अप्रत्यक्ष रूप से किसानों और आम लोगों पर उत्पाद शुल्क का बोझ लादा जा रहा है। इस प्रकार के राजस्व सृजन को अप्रत्यक्ष कराधान कहा जाता है, और इससे आम लोगों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है।

भाजपा नेताओं ने तर्क दिया है कि केंद्र सरकार के करों का एक हिस्सा आखिर राज्यों को भी जाता है और सवाल किया कि फिर राज्य इस उच्च कराधान के बारे में क्यों चिल्ला रहे हैं। यह तर्क बेबुनियाद है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में, केंद्रीय वित्त मंत्रालय चलाने वाले जानकार बच्चों की ओर से कुछ अनुचित चालबाजी के कारण पेट्रोलियम उत्पादों से करों का हिस्सा घट गया है।

करों का एक बड़ा हिस्सा अब 'अतिरिक्त उत्पाद शुल्क' और उपकरों से आता है, जिन्हें राज्यों को हस्तांतरित नहीं किया जाता है। थिंक टैंक पीआरएस द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, पेट्रोलियम उत्पादों से उत्पाद शुल्क संग्रह से राज्यों को हस्तांतरित कर का हिस्सा पेट्रोल के मामले में फरवरी 2021 तक लगभग 44 प्रतिशत से घटकर केवल 4 प्रतिशत और डीज़ल के मामले में यह 65 प्रतिशत से घटकर 6 प्रतिशत हो गया है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि अधिकांश उत्पाद शुल्क संग्रह अब उपकर या 'अतिरिक्त' या 'विशेष' के रूप में ब्रांडेड हैं। दरअसल, 2019-20 में राज्यों को केवल 20,464 करोड़ रुपये दिए गए थे, जबकि 2020-21 में संशोधित अनुमानों के अनुसार यह और घटकर सिर्फ 19,578 करोड़ रुपये रह गया था।

संकट में हैं राज्य सरकारें

2017 में देश को जीएसटी निज़ाम में बदलने पर मजबूर किए जाने के बाद, राज्य सरकारों के पास करों के माध्यम से राजस्व जुटाने के लिए बहुत कम विकल्प बचे हैं। इसलिए राज्य सरकारें केवल पेट्रोलियम और शराब पर वैट और बिक्री कर लगाकर कुछ संग्रह कर सकते हैं  क्योंकि ये जीएसटी के तहत नहीं आते हैं। हालांकि जीएसटी लागू होने के बाद कुछ वर्षों तक राज्यों को राजस्व के नुकसान की भरपाई करने का केंद्र के पास प्रावधान है, लेकिन केंद्र सरकार इस मुआवजे को देने में बहुत ढिलाई बरत रही है। इसलिए, राज्य पेट्रोलियम उत्पादों पर वैट कम करने के लिए अनिच्छुक हैं, हालांकि कुछ राज्यों ने पिछले साल इसे मामूली रूप से कम किया था। हालांकि, इस साल मार्च में विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र, पेट्रोलियम कीमतों की बढ़ोतरी पर 137 दिनों की रोक लगी रही, उसके बाद केंद्र ने कीमतों में हर किस्म की कमी को दूर करते हुए, कीमतों को लगातार 12 बार बढ़ाया है।

राज्य सरकारों की इस दयनीय स्थिति को देखते हुए कई विपक्षी मुख्यमंत्रियों ने बढ़ती कीमतों को कम करने के लिए पीएम मोदी के उपदेश पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा कि केंद्र, महाराष्ट्र के साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है और आरोप लगाया कि केंद्र सरकार पर, महाराष्ट्र का 26,500 करोड़ रुपये अभी भी बकाया  है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी आरोप लगाया कि केंद्र सरकार पर बंगाल का 97,500 करोड़ रुपये बकाया है और "अगर राज्य को आधी राशि भी दी गई होती, तो वह पेट्रोलियम पर वैट कम कर सकती है"।

केरल के वित्तमंत्री के एन बालगोपाल ने कहा, "केरल ने पिछले छह वर्षों में पेट्रोल और डीजल पर बिक्री कर नहीं बढ़ाया है। यह उन कुछ राज्यों में से एक है जिन्होंने ऐसा नहीं किया है। तो ऐसा क्या है जिसे हमें कम करना चाहिए?”

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा राज्यों के बजट पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार, राजस्व व्यय के हिस्से के रूप में उनका स्वयं का राजस्व 2019-20 में 53.2 प्रतिशत से गिरकर 2020-21 में 45.6 प्रतिशत हो गया और 2021-22 में इसके 52.7 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया है।  इसका प्रमुख कारण 2020 और 2021 में महामारी और लॉकडाउन के कारण आर्थिक मंदी और अर्थव्यवस्था का रुकना था। लेकिन यह वित्त पर केंद्र की बढ़ती पकड़ से भी बढ़ गया है। ऐसे में राज्यों की वित्तीय स्थिति दिन-ब-दिन नाजुक होती जा रही है। ऐसी विकट परिस्थितियों में उनकी मदद करना केंद्र का काम है - यही सच्चा सहयोगी संघवाद होगा।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित हुए इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें:- 

Petrol/Diesel Prices: Who is Responsible for Back-breaking Hikes?

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