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रूस यूक्रेन में हस्तक्षेप करेगा

रूस के नज़रिये से इस संकट से बाहर निकलने का एकमात्र तरीका यह है कि यूक्रेन अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता फिर से हासिल करे और वाशिंगटन का मुंह ताकना बंद कर अपने भाग्य का फैसला खुद करे।
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Image Courtesy: Pixabay

पिछले लगातार दो हफ्तों में जिनेवा में हुई अमेरिका-रूस वार्ता का कोई नतीजा नहीं निकला है। बुनियादी रूप से यह एक विरोधाभास है, जिसका आसानी से हल नहीं किया जा सकता है। रूस अपने निकटस्थ पश्चिमी पड़ोस में नाटो के विस्तार के इरादे को अपने अस्तित्व पर खतरे के रूप में देखता है। लेकिन वाशिंगटन के लिए, रूस की यह भूराजनीति एक बेवकूफी है! 

लेकिन रूस अपनी पश्चिमी सीमा पर नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) की मौजूदगी को अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता। पश्चिमी गठबंधन प्रणाली में यूक्रेन के शामिल होने का मतलब होगा कि अमेरिकी मिसाइलें पांच मिनट में मास्को पर वार कर सकती हैं, जिससे रूसी वायु रक्षा प्रणाली अप्रभावी और बेकार हो जाएगी।

बाल्टिक और काले सागर क्षेत्रों में नाटो की तैनाती रूस को पश्चिम में बफर क्षेत्र के लाभ से वंचित करती है। यह देखते हुए कि नाटो में सभी बड़े निर्णय और अधिकांश छोटे निर्णय वाशिंगटन में ही लिए जाते हैं, इसलिए मास्को इसे अपने को घेरने, अपनी रणनीतिक स्वायत्तता और स्वतंत्र विदेश नीतियों को नष्ट करने की अमेरिका की एक रणनीति के रूप में देखता है। 

इसके विपरीत, अमेरिका नाटो के विस्तार के निर्णय में फेरबदल के लिए किए जाने वाले विरोध को खारिज करता है। वह जोर देकर कहता है कि गठबंधन के फैसलों में रूस की कोई भूमिका नहीं है। अलबत्ता, वह विश्वास-निर्माण के कुछ उपायों पर चर्चा करेगा, जबकि नाटो का विस्तार 1997 से जारी है, जिससे साथ रूस को रहना चाहिए। यह पश्चिमी नेताओं द्वारा 1990 के दशक में जर्मनी के एकीकरण के मौके पर पूर्व सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव को दिए गए उन आश्वासनों के विपरीत है। 

बुनियादी बात यह है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद की तीन दशकीय अवधि के दौरान अमेरिका नाटो के विस्तार के अपने निरंतर प्रयासों से एक अच्छी हैसियत बना ली है। इस दौरान तात्कालीन बिल क्लिंटन प्रशासन ने रूस के निकट भविष्य में पुनरुत्थान की परिकल्पना करते हुए उसकी काट में अमेरिकी वर्चस्व बनाए रखने की एक ठोस रणनीति बनाई थी एवं उसे लागू किया था। उनके बाद हुए बाकी राष्ट्रपति ने भी इसी नीति का अनुसरण किया। अब जब अमेरिका ने इस दिशा में अपनी बढ़त हासिल कर ली है, तो वह इसे हैसियत को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। 

वाशिंगटन के नजरिये से, यह चीन के उदय और पश्चिम से पूर्व की ओर सत्ता की गत्यात्मकता में बदलाव के बाद नई विश्व व्यवस्था में प्रकट होने वाले भू-राजनीतिक संघर्ष का एक प्रमुख टेम्पलेट है। रूस को उसकी औकात में रखना है और इसके लिए उसे डराते-धमकाते रहना इस स्थिति की एक पूर्व-आवश्यकता है, जब तक कि अमेरिका चीन से व्यापक रूप से नहीं निपट लेता है। यह कहना काफी है कि इसमें यूक्रेन युद्ध का एक मैदान बन गया है, जहां इच्छाशक्ति की एक टाइटैनिक टेस्ट ली जा रही है। 

यूक्रेन सभी व्यावहारिक अर्थों में एक अमेरिकी सरोगेट है और एक रूस-विरोधी देश के रूप में इसका कायाकल्प हो गया है। इसकी शुरुआत 2014 में कीव में सत्ता परिवर्तन के बाद ही हो चुकी थी, वह पहले से ही अपनी उच्च अवस्था में है। हालांकि यूक्रेन अभी तक नाटो का सदस्य नहीं बना है, परंतु इस गठबंधन की देश में सैन्य और राजनीतिक रूप से एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है।

अमेरिका सूचना युद्ध में रूस को अपने एक कमजोर पड़ोसी के खिलाफ आक्रामक रूप में चित्रित करता है। वास्तव में, हालांकि, यह 'चित भी मेरी, पट भी मेरी' की स्थिति है। अब ऐसे में यदि रूस कुछ नहीं करता है, तो यह तय है कि यूक्रेन नाटो में शामिल कर लिया जाएगा और ऐसी स्थिति में, रूस को अपने गेट पर तैनात दुश्मन के साथ रहने के लिए तैयार होना होगा। बेशक, इतिहास में ऐसा पहली बार होगा, जब अमेरिका वैश्विक रणनीतिक संतुलन अपने पक्ष में झुका देगा। 

दूसरी तरफ, अगर रूस यूक्रेन में नाटो के मार्च को रोकने के लिए सैन्य कार्रवाई करता है, तो वाशिंगटन कड़ा रुख अख्तियार कर लेगा। वाशिंगटन रूस की अर्थव्यवस्था को घातक रूप से घायल करने और वैश्विक खिलाड़ी बनने की उसकी क्षमता को कम करने के लिए एक शातिर खेल खेलने की साजिश के साथ राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की निजी रूप से कठघरे में करने और रूस पर "सैंक्शंस फ्रॉम हेल" लगाने पर भी तैयार है। 

अमेरिका का अनुमान है कि यदि रूस में लोगों के जीवनस्तर में अभी या 2024 के दौरान गिरावट आती है, जब राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने वाला है, तो पुतिन को व्यक्तिगत रूप से भारी राजनीतिक कीमत चुकानी होगी और उन्हें सत्ता छोड़ने पर मजबूर होना पड़ सकता है। अमेरिकी नजरिए से तब इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि बोरिस येल्तसिन का दूसरा संस्करण ही पुतिन का उत्तराधिकारी बन जाए। 

लेकिन यह समझने में कोई गलती न की जानी चाहिए कि, आज जो कुछ हो रहा है, उसका एक हिस्सा पुतिन की विशाल लोकप्रियता (65फीसदी) पर अर्जित उनके राजनीतिक व्यक्तित्व को मिटाने से संबद्ध है, पर उनकी यही स्थिति निकट भविष्य में, रूस में एक पश्चिमी समर्थक राजनेता के उदय की संभावना पर पानी फेर देती है। रूसी राजनीति में एक "उदार" मंच बनाने के अमेरिकी खुफिया विभाग के सभी प्रयास अब तक विफल रहे हैं। तथ्य यह है कि अधिकतर रूसी 1990 के दशक की "उदार" शासन व्यवस्था की वापसी की कल्पना से भी डरते हैं। 

वाशिंगटन पोस्ट, जो अमेरिकी सुरक्षा प्रतिष्ठान से जुड़ा हुआ अखबार है, उसने पिछले बुधवार को पुतिन, उनके परिवार और उनकी मिस्ट्रेस पर हाउस रिपब्लिकन लक्ष्य प्रतिबंधों के नाम से एक प्रसिद्ध दुष्ट की बाइलाइन के तहत एक अपमानजनक रिपोर्ट प्रकाशित की है। यह रिपोर्ट कहती है, “बाइडेन प्रशासन की कूटनीति और अतिरिक्त प्रतिबंधों की धमकियों का सावधानीपूर्वक तैयार किया गया मिश्रण भी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को यूक्रेन पर हमला करने और युद्ध शुरू करने से नहीं रोकता लगता है। अब, हाउस रिपब्लिकन का एक बड़ा समूह अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन पर दबाव डाल रहा कि वे पुतिन और उनके ईर्द-गिर्द रहने वाले लोगों द्वारा लंबे समय से किए जा रहे और स्थापित भ्रष्ट तंत्र को लेकर सीधे-सीधे उनसे बात करें।” जाहिर है, वाशिंगटन रूस के अभिजात वर्ग के बीच बिगाड़ करने और देश की राजनीतिक स्थिरता को कमजोर करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। 

अब इसके आगे क्या?

निस्संदेह, रूस अपनी हदों के प्रति पूरी तरह सचेत है। हालांकि मास्को ने भी पहले कुछ गंभीर गलत अनुमान लगा लिए थे। उसने अनुमान लगाया था कि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं होने वाला है और समय के साथ, वहां एक यथार्थवादी और व्यावहारिक नेता काबिज होगा, जिसके नेतृत्व-निर्देशन में कीव में एक बेहतर समझ पैदा होगी, जिससे वह "यूक्रेनीकरण" के अपने एजेंडे को छोड़ देगा, रूस के साथ संबंधों (विशेषकर आर्थिक क्षेत्र में) में सुधार करेगा और महत्त्वपूर्ण रूप से, रूसी पूर्वी क्षेत्रों की जातीय आकांक्षाओं को समायोजित करेगा। लेकिन पूर्व सोवियत संघ से निकला यह देश अमेरिका के छिपी-खुली शह पर "यूक्रेनीकरण" के एजेंडे को ही आगे बढ़ाने लगा, जो आज भी जारी है। तब मास्को ने भी महसूस किया कि समय अब उसके पक्ष में नहीं है। 

हालांकि इस विवाद का हल निकाले जाने के लिए मॉस्को को अमेरिकी पक्ष से कुछ ठोस किए जाने की उम्मीद है, क्योंकि उसके महत्त्वपूर्ण सुरक्षा हित खतरे में पड़ गए हैं। पुतिन सहित क्रेमलिन नेतृत्व ने रूस की "लाल रेखाओं" को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है। दूसरी ओर, वाशिंगटन बस इसमें हीलाहवाली कर अड़ंगेबाजी कर रहा है। उसे लगता है कि समय वैसे भी उसके पक्ष में है। लेकिन रूसी दृष्टिकोण से, यह स्वीकार्य नहीं है क्योंकि यूक्रेन को नाटो का सदस्य न बनाने की दिशा में कुछ नहीं किया जा रहा है। 

यकीनन, अमेरिकी राष्ट्रपति जोए बाइडेन अपने घर में बनने वाले दबावों और यूरोपीय सहयोगियों के बीच अलग-अलग राय को देखते हुए ठोस कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं। इसमें मुख्य बाधा पश्चिम-समर्थक देशों के जरिए एक रणनीतिक उद्देश्य से रूस की घेरेबंदी कराने की अमेरिका की नीतियां हैं, जो क्लिंटन के समय से चली आ रही हैं, और आज यह तिकड़म एक उस “वजह” के रूप में कामयाब भी है, जिसका कि अमेरिका के प्रभु वर्ग (बेल्टवे) में ऐसे अवसर पर दुर्लभ द्विदलीय समर्थन प्राप्त है, जबकि अमेरिकी राय गहरे रूप में विभाजित रही है।

वर्तमान स्थिति में, वाशिंगटन ने भी यूक्रेन को जाने-अनजाने यह वचन देकर कि उसके पक्ष पर कोई बातचीत नहीं करेगा, अपने हाथ बांध लिए हैं। अतः इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि रूस सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए पूर्वी यूक्रेन में हस्तक्षेप करेगा ताकि मध्य और लंबी अवधि के राजनीतिक समाधान का लक्ष्य रखते हुए उसके अपने राष्ट्रीय सुरक्षा हितों को सुरक्षित करने के लिए धरातल पर नए तथ्य तैयार किए जा सकें। 

इसमें क्या आवश्यक है?

जाहिर है, रूस समस्त यूक्रेन क्षेत्र पर कब्जा करने की मांग नहीं कर रहा है। इसकी प्राथमिकता पूर्वी यूक्रेन में रूसी आबादी वाले क्षेत्रों तक अपने हस्तक्षेप को बड़े पैमाने पर सीमित रखने और उसे यूक्रेन एवं रूस के बीच एक बफर जोन बनाने की होगी। कुछ अमेरिकी विश्लेषकों ने मोटे तौर पर अनुमान लगाया है कि किसी भी रूसी हस्तक्षेप को दनीपर नदी (रूस के सोमोलेंस्क नामक स्थान से निकल कर रूस, बेलारूस और यूक्रेन में बहने के बाद काला सागर में गिरती है। यह बेलारूस और यूक्रेन की सबसे लंबी नदी है और पूरे यूरोप की नदियों में लंबाई के मामले में इसका चौथा स्थान है।) तक के क्षेत्र तक ही सीमित रहेगा। यह प्रशंसनीय लगता है।

बेशक, किसी भी आकस्मिक सैन्य स्थिति में समय-समय पर परिवर्तन किए जाते हैं। रूस यूक्रेन में किसी भी रूप में किए गए पश्चिमी हस्तक्षेप का दृढ़ता से जवाब देगा-हालांकि वाशिंगटन ने इसे खारिज कर दिया है।(इस बात को लेकर संदेह ही है कि अमेरिका ऐसे किसी मामले में इतने कम समय में एक विशाल महाद्वीपीय युद्ध लड़ने की क्षमता रखता है)। इसके विपरीत, रूसी सैन्य अभियान कम से कम समय में अपने राजनीतिक उद्देश्य को साकार करने के इरादे से कई मोर्चों पर विशाल गोलाबारी और उन्नत हथियारों के इस्तेमाल के साथ निर्णायक की स्थिति में होगा। 

अमेरिकी पत्रकारों ने वाशिंगटन के "प्रतिरोध" के बारे में लिखा है,लेकिन यह बकवास का बंडल है। रूसी ऑपरेशन छोटा और निर्णायक होगा। यूक्रेन का नैतिक ताना-बाना आज ऐसा है कि वहां की हतोत्साहित ताकतें और सत्ता से मोहभंग हुए लोग आसानी से झुक जाएंगे। इस सब में, यह याद रखने की जरूरत है कि अमेरिका के भारी-भरकम भरोसे के निवेश के बावजूद, यूक्रेन के लोगों का रूसियों के साथ गहरा सभ्यतागत संबंध है, जिसकी जड़ें सतह के नीचे तक धंसी हुई है। 

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यूक्रेन में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते वहां के लोगों की वफादारी को आसानी से खरीदा जा सकता है। इसलिए कई क्षेत्रों में वास्तविकता में लड़ाई नहीं हो सकती है। यह भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि कीव में राजनीतिक स्थिति अत्यधिक अस्थिर है, जैसा कि पूर्व राष्ट्रपति पेट्रो पोरोशेंको के खिलाफ राजद्रोह के ताजा आरोप से पता चलता है। 

ज़ेलेंस्की को 2019 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में रूस से संबंध सुधारने के मुद्दे पर जनादेश मिला था। हालांकि सत्ता में आने के बाद उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया। इससे लोग अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। नतीजतन, आज जेलेंस्की पूरी तरह से बदनाम व्यक्ति हो गए हैं। एक कुचली गई सैन्य हार मिलने का मतलब ज़ेलेंस्की के लिए आगे के रास्ते का बंद होने का भी ऐलान होगा। 

यूक्रेन के भीतर आगामी राजनीतिक उथल-पुथल रूसी हस्तक्षेप में "एक्स" फैक्टर है, जो विभिन्न परिणामों पर अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहेगा। अमेरिकी विश्लेषक जानबूझकर इन तथ्यों की ओर से अपनी आंखें फेर लेते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो साझा इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सामाजिक संबंधों के कारण रूसियों को यूक्रेनी-राजनीति और देश के सत्ता दलालों की गहरी समझ है। 

रूस का अंतिम उद्देश्य देश की संप्रभुता, राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता के साथ संवैधानिक सुधार के माध्यम से एक संघीय यूक्रेन बनाने का होगा, जबकि ये क्षेत्र अपनी स्वायत्तता का उपभोग करेंगे। यूरोप इस क्षेत्र की स्थिति को स्थिर करने और भविष्य के संघर्ष की आशंका को दूर करने के सर्वोत्तम तरीके के रूप में इसका स्वागत कर सकता है। 

वास्तव में, रूस यह मान कर चलेगा कि जब पुख्ता संवैधानिक आधार पर यह सुनिश्चित कर दिया जाए कि कीव में अपनाई जाने वाली सभी प्रमुख नीतियां राष्ट्रीय सहमति पर आधारित होंगी तो ऐसा यूक्रेन कभी भी नाटो का हिस्सा नहीं बन सकता है। 

लब्बोलुआब यह है कि जैसा कि रूस इसे देखता है, इस संकट से बाहर निकलने का एकमात्र तरीका यह है कि यूक्रेन अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता बरकरार रखे, अपनी नियति का स्वयं नियंता बने और इसके लिए वाशिंगटन का मुंह ताकना बंद कर दे। इसके लिए आवश्यक है कि कीव में अमेरिकी गुर्गे जो यूक्रेन के लिए निर्णय लेते हैं, वे सब के सब अपने घर चले जाएं और यूक्रेनियन एक बार फिर अपने संप्रभु बने, जिसके तात्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के यह कहने पर कि यूरोप संघ में यूक्रेन के शामिल होने के मसले पर वे जनादेश लेने के बाद ही कोई निर्णय लेने की प्रतिज्ञा की उपेक्षा करने पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने फरवरी 2014 में उनकी सरकार गिरा दी थी।

जाहिर है, यह सब इतना आसान नहीं होगा, जितना ऊपरी तौर पर लगता है और परिणाम चीजों को और बेतरतीब करने से अधिक बेहतर नहीं हो सकता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि इस बात के संकेत पहले ही मिल चुके हैं कि यूक्रेन के मुद्दे पर यूरोप आंखें मूंद कर अमेरिका के साथ जाएगा, इसमें संशय है। 

इसलिए कि ट्रान्स-अटलांटिक संबंध में कलह की संभावना बढ़ रही है। नाटो को जिस मकसद से बनाया गया था, वह उस रूप में कभी भी मजबूत संयुक्त गठबंधन नहीं रहा है। पोलिश राष्ट्रपति आंद्रेजेज डूडा का पेइचिंग में आयोजित शीतकालीन ओलंपिक में भाग लेने का निर्णय आने वाली चीजों का अग्रदूत है।(संयोग से, उस समय पुतिन भी वहां मौजूद होंगे।) जर्मनी न केवल रूस को स्विफ्ट से हटाने का विरोध करता है बल्कि नाटो देशों द्वारा यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति के विरोध के साथ-साथ लिथुआनिया के (अमेरिकी सलाह के तहत) ताइवान से संबंध तोड़ने का भी विरोध करता है! 

यूक्रेन को नाटो के गहरे रंग में रंगने के लिए उत्साहित कर अमेरिका ने भारी रणनीतिक भूल  कर दी है। एक गैर-नाटो देश के प्रति अमेरिका के आधे-अधूरे वादे से, रूस के आक्रमण की स्थिति में, उसकी विश्वसनीयता को नुकसान होगा। लेकिन वाशिंगटन के लिए अब पीछे हटना असंभव है, क्योंकि इससे उसकी विश्वसनीयता को और भी अधिक नुकसान पहुंचेगा। 

यह देखना बाकी है, यूरोपीय संघ इस क्षण अपना अस्तित्व कैसे बनाए रखता है। ब्रसेल्स में यूरोपीय आयोग में उत्साही अटलांटिकवादी सदस्य उर्सुला वॉन डेर लेयेन और रूस से नफरत करने वाले प्रतिनिधि जोसेप बोरेल के नेतृत्व में सदस्य देशों के बीच स्पष्ट वैचारिक मतभेदों की अनदेखी करते हुए, वर्तमान में यूरोपीय संघ के एजेंडे को एकतरफा लागू कर रहे हैं। एंजेला मर्केल के जाने के साथ यूरोप में एक खालीपन तो आया है, जिसे ये यूरोक्रेट भरने की उम्मीद करते हैं। 

लेकिन यह स्पष्ट रूप से टिकाऊ नहीं है। पिछले हफ्ते स्ट्रासबर्ग में यूरोपीय संसद को संबोधित करते हुए, फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन ने यूरोप से अपने सामूहिक सुरक्षा ढांचे में निवेश करने का आग्रह किया और रूस के साथ यूरोपीय संघ की "स्पष्ट" बातचीत का आह्वान किया। वैसे, जिनेवा में अमेरिका और रूस के बीच सीधी बातचीत में न तो यूरोपीय संघ और न ही फ्रांस शामिल थे।

रूस के खिलाफ प्रतिबंधों की धमकी देने से बहुत कुछ बनाया जा रहा है। लेकिन इस तरह की धमकियां मास्को को रोक नहीं पाएंगी। ऐसी एक शुरुआत करने के लिए कठोर प्रतिबंध भी ज़बरदस्ती के कमजोर उपकरण साबित हुए हैं। दरअसल, उत्तर कोरिया, क्यूबा, ईरान, वेनेजुएला, वियतनाम, आदि में अमेरिकी प्रतिबंधों का जबरदस्त खराब ट्रैक रिकॉर्ड रहा है। 

रूस एक बड़ी शक्ति है। इसके पास विशाल मुद्रा भंडार है, जो वर्तमान में रिकॉर्ड $638.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का है। यह दुनिया में चौथा सबसे बड़ा भंडार है। रूसी साख अच्छी है और इसका अधिकांश ऋण स्वयं का है। इसे अमेरिकी निवेशकों की कोई गंभीर जरूरत नहीं है। रूस को अपनी मुद्रा बेचने की कोई सख्त जरूरत नहीं है। 

इसके पहले, रूस शीत युद्ध के बाद के 30 वर्षों के इतिहास में चार दर्दनाक झटके झेल चुका है। इसलिए रूस जानता है कि इन झटके को कैसे सहन करना है। इसलिए, जबकि रूस एक बड़ी हिट दे सकता है और इसके नतीजतन उसकी मुद्रा में उतार-चढ़ाव हो सकता है। इसकी प्रतिक्रिया में उस पर लगाए गए प्रतिबंधों के बाद शुरू में उसकी पूंजी का बहिर्वाह हो सकता है पर इसके विशाल मुद्रा भंडार उसे बड़ा सहारा दे सकते हैं। 

किसी भी मामले में, यूरोपीय संघ प्रतिबंध की दिशा में कितना आगे बढ़ना चाहता है, यह देखा जाना बाकी है। जर्मनी ने वाशिंगटन के प्रसिद्ध "परमाणु विकल्प", अर्थात् स्विफ्ट भुगतान प्रणाली से रूस को बहिष्कृत करने के बारे में अपनी राय उससे अलग रखी है। निश्चित रूप से, रूसी ऊर्जा आपूर्ति में कोई भी व्यवधान यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचाएगा। 

एक अल्पज्ञात तथ्य यह है कि रूस यूरोप को बहुत कम कीमतों पर गैस बेचता है, जबकि रूस की आपूर्ति की एवज में अमेरिका से किसी भी एलएनजी की आपूर्ति का मतलब औद्योगिक उत्पादन की लागत को बढ़ाने वाली होगी जिनसे चीजों के दाम बढ़ जाएंगे। मध्य यूरोपीय देश अपनी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए रूस पर 100 फीसदी निर्भर हैं। इनमें जर्मनी की निर्भरता 40 फीसदी है। 

रिपोर्टों के अनुसार, पुतिन की आगामी पेइचिंग यात्रा का मुख्य आकर्षण चीन को गैस निर्यात करने के लिए विशाल शक्तिशाली गैस पाइपलाइन परियोजना साइबेरिया-2 के समझौते पर हस्ताक्षर करना है। साइबेरिया के यमल प्रायद्वीप, जहां रूस के भी सबसे बड़े गैस भंडार हैं, वहां से मंगोलिया के रास्ते चीन को गैस भेजने के लिए एक अतिरिक्त मार्ग का निर्माण किया जाना है। इस पाइपलाइन के जरिए सालाना 60 अरब घन मीटर (नॉर्ड स्ट्रीम-2 की क्षमता से कहीं अधिक है) प्राकृतिक गैस आपूर्ति करने की उम्मीद है। 

गौरतलब है कि चीन और रूस के बीच व्यापार कारोबार 2021में अपने रिकॉर्ड स्तर $146.88 बिलियन पर पहुंच गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 35.8 फीसदी अधिक है। निश्चित रूप से, यूक्रेन पर रूस और पश्चिम के बीच ताजा गतिरोध का नतीजा मास्को के खिलाफ नए प्रतिबंध के रूप में सामने आ सकता है, ऐसे में पेइचिंग के साथ क्रेमलिन के गठबंधन को और भी मजबूत होने की संभावना है। दोनों देशों ने अपने व्यापार कारोबार को 2024 तक $200अरब बढ़ाने का संकल्प किया हुआ है। हाल के आर्थिक रुझान से जाहिर होता है कि दोनों ही देश उस लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं।

बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव के मद्देनजर क्रेमलिन के लिए चीन के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को मजबूत करने की आवश्यकता होगी, जो उसके इस प्रयास को गति प्रदान करेंगे। मॉस्को को अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण कहीं और सोर्सिंग क्षमताओं को बढ़ाने की आवश्यकता होगी, और चीन इसके लिए एक प्रमुख मार्ग होगा। इस पूरे प्रकरण में बड़ी तस्वीर यह है कि चीन भी अमेरिका के दबाव में रूस को नीचे जाते हुए नहीं देख सकता।

जाहिर है, अमेरिका ने आगे बढ़ने की सीढ़ी के बारे में नहीं सोचा है। क्रेमलिन ने वाशिंगटन को धमकी दी है कि अगर संघर्ष हुआ तो रिश्ते पूरी तरह टूट जाएंगे। वाशिंगटन को विश्वास करना चाहिए कि मास्को करारा जवाब देगा। रूस ने मई में एक एंटी-सैटेलाइट टेस्ट किया था। संभवतः, यह एक संकेत था कि रूस के पास गैर-सैन्य क्षेत्रों में जीएसपी समूह में हस्तक्षेप करने की क्षमता है, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों को प्रभावित कर सकता है। 

सबसे बढ़कर, कोई भी "सैंक्शन फ्रॉम हेल" अनिवार्य रूप से विश्व मंच पर एक नैतिकता के खेल में बदल जाएगा। विश्व अर्थव्यवस्था में झटके बढ़ रहे हैं क्योंकि दुनिया के देश वाशिंगटन के डॉलर के हथियारकरण किए जाने को लेकर चिंतित हैं। कुछ लोग अपनी अर्थव्यवस्था को सख्त करने के लिए प्रेरित भी महसूस कर सकते हैं। यह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजार को प्रभावित कर सकता है। इस तरह के हालात पैदा होने पर वाशिंगटन पहले भी पीछे हटता रहा है।(वाशिंगटन ने रूस से एस-400 मिसाइल प्रणाली खरीदने के लिए भारत के विरुद्ध CAATSA के तहत प्रतिबंध नहीं लगाने का फैसला किया था।) 

विडम्बना तो यह है कि 2014 के बाद एक के बाद एक पश्चिमी प्रतिबंधों की आई लहरों से रूस बहुत अधिक निरंकुश हो गया है। आज, इसे अपने रक्षा उद्योग के लिए नई हथियार प्रणाली विकसित करने के लिए पश्चिम से किसी इनपुट की आवश्यकता नहीं है। पेंटागन के अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि रूस ने हाइपरसोनिक मिसाइलों जैसी अत्याधुनिक तकनीक का अगुवा हो गया है, और इसे पकड़ने में अमेरिका को तीन से पांच साल लग सकते हैं-यानी, यह मानते हुए कि रूसी रक्षा उद्योग निश्चिंत है। 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

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