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राजद्रोह क़ानून: स्थायी आपातकाल की स्थिति?

आज़ाद आवाज़ को ख़ामोश करने के एक और मामले में राजद्रोह क़ानूनों के इस्तेमाल के ज़रिये केंद्र सरकार की दिल्ली दंगों से निपटने की आलोचना करने के सिलसिले में जाने माने पत्रकार, विनोद दुआ के ख़िलाफ़ दो एफ़आईआर दर्ज की गई हैं।
राजद्रोह क़ानून

आज़ाद आवाज़ को ख़ामोश करने के एक और मामले में राजद्रोह क़ानूनों के इस्तेमाल के ज़रिये केंद्र सरकार की दिल्ली दंगों से निपटने की आलोचना करने के सिलिसिले में जाने माने पत्रकार,विनोद दुआ के ख़िलाफ़ दो एफ़आईआर दर्ज की गई हैं। स्थानीय भाजपा नेताओं द्वारा दायर इस एफ़आईआर में उनपर आरोप लगाया गया है कि दुआ ने प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा भड़कायी है। दिल्ली में दर्ज एफ़आईआर के लिए दिल्ली हाईकोर्ट और हिमाचल प्रदेश में दर्ज एफ़आईआर के लिए सुप्रीम कोर्ट, दोनों ही अदालत ने दुआ की इन एफ़आईआर को रद्द करने की मांग की याचिका पर सुनवाई करते हुए दुआ की गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी है। लेखक यहां कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान सरकार से असहमति रखने वालों और आलोचकों पर राजद्रोह (Sedition) क़ानूनों के इस्तेमाल की छान-बीन करते हुए इसे एक स्थायी आपातकाल क़रार दे रहा है।

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हाल ही में सबसे ऊंची अदालत ने 7 जुलाई को जाने-माने पत्रकार विनोद दुआ को अंतरिम सुरक्षा प्रदान की है। दुआ पर आरोप लगाया गया है कि कोविड-19 के प्रकोप से जिस तरह सरकार निपट रही है, उन्होंने  इसे लेकर सरकार की आलोचना की थी।

विनोद दुआ के ख़िलाफ़ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने के लिए दुआ की याचिका पर सुनवाई करते हुए, माननीय न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित की अगुवाई वाली शीर्ष अदालत की पीठ ने हिमाचल प्रदेश पुलिस को निर्देश दिया है कि वह एक सप्ताह के भीतर चल रही जांच की स्थिति रिपोर्ट दाखिल करे, ताकि यह पता लगाया जा सके कि यह प्राथमिकी सिर्फ़ वरिष्ठ पत्रकार को सरकार के प्रति असंगत विचारों के कारण परेशान करने के लिए दर्ज तो नहीं की गयी थी।

लॉकडाउन के बाद न केवल कोविड-19 रोगियों की संख्या में एक ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी देखी  गयी है, बल्कि एक और चिंता फिर से सामने आयी है,जो कि हमारे लोकतंत्र के चौथे पाये को कमज़ोर और तबाह कर रही है।

भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला,यानी भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक पुराने औपनिवेशिक क़ानून के इस्तेमाल के ज़रिये लगातार खतरे में डाला जा रहा है। राजद्रोह को लेकर बना यह क़ानून, जो भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 124 A में सन्निहित है, आज़ादी के 73 साल बाद भी मौजूद है, और पहले से कहीं ज़्यादा इसका इस्तेमाल मीडिया की स्वतंत्रता को ख़त्म करने के लिए किया जा रहा है। औपनिवेशिक शासन के दौरान आईपीसी की धारा 124 ए को ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के बढ़ते उथल-पुथल को रोकने के लिए लाया गया था। तब से इस धारा में कई संशोधन हुए हैं, लेकिन इन संशोधनों  के साथ यह और ज़्यादा सख़्त ही हुआ है,ताकि असहमति की आवाज़ को दबाया जा सके।

अपने मौजूदा ढांचे में आईपीसी की धारा 124A कहती है,“जो कोई भी, शब्दों द्वारा, या तो बोले गये या लिखे गये, या संकेतों द्वारा या फिर दर्शाये गये दृश्य द्वारा, या अन्यथा किसी और तरीक़े से भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना, या प्रेरित करने या उत्तेजित करने का प्रयास करता है, उसे कारावास की सज़ा से दंडित किया जायेगा, जिसके साथ जुर्माना या कारावास दोनों की सज़ा भी हो सकती है, कारावास की सज़ा की अवधि तीन साल से लेकर आजीवन तक की हो सकती है।"

राजद्रोह एक  ग़ैर-ज़मानती अपराध है और इसमें जुर्माने के साथ-साथ अधिकतम तीन साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा का प्रावधान है। सख़्त विचारों, असहमतियों और सरकारी कार्यों और / या नीतियों की आलोचना की आवाज़ को दबाने के लिए इस क़ानून का सत्तारूढ़ दलों द्वारा लगातार दुरुपयोग किया जाता रहा है। हालांकि ऐसे मामलों में दोषसिद्धि की संभावना विरले ही रही है, लेकिन इसने असहमति रखने वालों को ख़ामोश करने के लिए उत्पीड़ित करने और डराने-धमकाने का एक प्रभावी साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है।

इस मायने में मौजूदा सरकार, इससे पहले की सरकारों से अलग नहीं है। हाल ही में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने यह पूछे जाने पर कि क्या इस औपनिवेशिक क़ानून को निरस्त किया जायेगा, उन्होंने राज्यसभा में जवाब देते हुए कहा, “राजद्रोह के अपराध से निपटने वाले आईपीसी के तहत इस प्रावधान को रद्द करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से प्रभावी रूप से निपटने के लिए इस प्रावधान को बनाये रखने की ज़रूरत है।”

यह स्थिति न्यायपालिका द्वारा लगातार यह कहे जाने के बावजूद बनी हुई है कि प्रत्येक नागरिक के पास निष्पक्ष और उचित रूप से सरकार की निष्क्रियता और ग़ैरमुनासिब गतिविधियों की आलोचना करने का अधिकार है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के एक ऐतिहासिक फ़ैसले में कहा था,“नागरिक को सरकार या उसके उपायों के बारे में जो कुछ भी लगता है, उसे आलोचना या टिप्पणी के रूप में कहने या लिखने का तबतक अधिकार है,जब तक कि वह लोगों को क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए  अव्यवस्था पैदा करने के इरादे से उकसाये नहीं।”

राजद्रोह के इस क़ानून को निरस्त करने की मांग कोई नयी बात नहीं है, बल्कि आज़ादी के बाद से ही इसे ख़त्म किये जाने की वक़ालत की जाती रही है। 1922 में स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित एक लेख को लेकर महात्मा गांधी पर ब्रिटिश सरकार द्वारा राजद्रोह का आरोप लगाये जाने पर गांधी ने कहा था, " सौभाग्य से जिस धारा 124 A के तहत मैं आरोपित हूं, वह शायद भारतीय दंड संहिता के राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिक की स्वतंत्रता को दबाने को लेकर बनाया गया सरदारा सरीख़ा क़ानून है।" लोकतांत्रिक भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस सख़्त क़ानून को "घृणित" और "बेहद आपत्तिजनक" क़रार दिया था और उनका मानना था कि इससे "जितनी जल्दी हम छुटकारा पा लें", उतना ही बेहतर होगा।

दुर्भाग्य से भारत अपनी आज़ादी के 73 वर्षों बाद भी राजद्रोह पर बने इस क़ानून को रद्द करने में नाकाम रहा है,ऐसा इसलिए है,क्योंकि शासक दल इसे असहमति के स्वर को दबाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। भारत लॉकडाउन के दौरान इस राजद्रोह क़ानून के अभूतपूर्व इस्तेमाल का हालिया गवाह एक बार फिर बन रहा है, जब इस क़ानून का इस्तेमाल सरकार की नाकामी और लॉकडाउन लागू करते समय तैयारियों की कमियों पर सवाल उठाने वाले स्वरों के ख़िलाफ़ किया जा रहा है।

राजद्रोह क़ानून के किये जाने वाले बार-बार और बेशर्म इस्तेमाल ने इसे लेकर फिर से इस बहस को तेज़ कर दिया है कि क्या राजद्रोह के इस क़ानून को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए या असहमति के स्वर को सत्तारूढ़ सरकार की दया पर छोड़ दिया जाना चाहिए। इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि इस क़ानून के हमारे औपनिवेशिक जनक,यूनाइटेड किंगडम ने भी 2010 में ब्रिटेन के क़ानून आयोग की रिपोर्ट की एक सिफ़ारिश के बाद राजद्रोह वाले अपने इस क़ानून को निरस्त कर दिया है। इसके बावजूद, भारत अपने नागरिकों के लिए बने मुसीबत और उत्पीड़न के इस औपनिवेशिक भार को ढोना जारी रखे हुआ है। जब तक भारत दुरुपयोग के इस साधन को समाप्त करने का कोई रास्ता नहीं ढूंढ़ लेता, तब तक इसके नागरिकों का मौलिक अधिकार स्थायी-आपातकाल की स्थिति में ही बना रहेगा।

(लेखक दिल्ली उच्च न्यायालय और भारत के सर्वोच्च न्यायालय में वक़ील हैं। व्यक्त किये गये विचार व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: The Leaflet

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Sedition Law: State of Permanent Emergency?

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