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विशेष : शाहीन बाग़ की औरतों ने आंदोलन का ग्रामर बदल दिया है

अपनी मांग को लेकर दृढ़ निश्चय इन महिलाओं ने न तो आंदोलन को हिंसक होने दिया, न ही किसी तरह की अफरातफरी पैदा होने दी। साथ ही अपने आंदोलन को किसी को हथियाने भी नहीं दिया है।
shaheen bagh

मोहल्ला शाहीन बाग़। वह मोहल्ला जो आज हिंदुस्तान में हर ज़बान पर है। हालांकि इसके बनने की कहानी दिल्ली के बाकी कई हिस्सों की तरह ऐतिहासिक नहीं है। 90 के दशक तक यहां हरे भरे खेत दिख जाते थे। बाटला हाउस, जाकिर नगर, अबुल फजल, गफ्फार मंजिल से नजदीकी के चलते इसके बाद यहां बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी ने बसना शुरू किया। लंबे समय तक सीवर और सड़कों के लिए इस मोहल्ले ने संघर्ष भी किया। आज इस मोहल्ले में घनी आबादी रहती है।

अब यहां एक तरफ ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेंट नजर आते हैं तो दूसरे तरफ ऐसे भी मकान नजर आते हैं जो कुल 25 गज में बने हैं। जैसे मकान का साइज है वैसे ही रंग-बिरंगी यहां की आबादी है। यहां जामिया के प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर और रईस कारोबारियों का बसेरा है तो दिहाड़ी मजदूर, पंक्चर बनाने वालों, कारपेंटर, गार्ड और घरेलू कामकाजी महिलाओं का दौलतखाना भी है।

वैसे जैसा पहली ही लाइन में कहा गया है कि इस मोहल्ले के बनने की कहानी ऐतिहासिक नहीं है तो इसके बारे में आपको क्यों बता रहा हूं यह जान लीजिए। दरअसल इस कहानी को बताने की पीछे मोहल्ला शाहीन बाग़ की औरतें हैं। हक और इंसाफ की लड़ाई लड़ने वाली इन महिलाओं ने अब इतिहास में अपना और इस मोहल्ले का नाम दर्ज करा दिया है।

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यहां के मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की रहने वाली महिलाओं ने संविधान की आत्मा को बचाने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की थी। दिन, हफ्ते और महीने बीतते रहे लेकिन ये महिलाएं डटी रहीं। और सिर्फ डटी ही नहीं रही बल्कि इस देश में चल रहे आंदोलनों का व्याकरण ही बदल दिया। मेरे ऐसा कहने का कारण क्या है आप इस लेख में आगे समझिए।

इन महिलाओं के पास हमारे कथित विद्वानों की तरह शायद ज्यादा किताबी ज्ञान नहीं है लेकिन उनके भीतर यह समझ जरूर है कि क्या अच्छा और क्या बुरा है। सबसे बड़ी बात है कि ये महिलाएं ऐसे मुद्दे को लेकर घर से बाहर निकली हैं जो महिला केंद्रित नहीं है। यानी शाहीन बाग़ की औरतों ने उस छवि को तोड़ दिया जो आम तौर पर महिला प्रदर्शनकारियों के लिए कही जाती है कि उनकी लड़ाई महिलाओं से जुड़ी बातों पर केंद्रित होगी। राजनेताओं समेत बहुत सारे आलोचक बहुत बार इसको लेकर टिप्पणियां करते रहे हैं लेकिन शाहीन बाग़ की औरतों ने ऐसे नेताओं की हवा निकाल दी है।

इसके अलावा क्या हमें भारत में हुए ऐसे किसी आंदोलन की याद है जिसमें महिलाओं की नेतृत्वकारी छवि प्रमुखता से उभरी हो? इसके जवाब में आप चिपको आंदोलन, नर्मदा आंदोलन जैसे एक दो नाम ही गिना पाएंगे। लेकिन शाहीन बाग़ ने जिस तरह देशभर की महिलाओं को प्रेरित किया है वह अपने आप में उल्लेखनीय है। आज दिल्ली में खुरेजी, तुर्कमान गेट, मुस्तफाबाद, वजीराबाद, भजनपुरा, सीलमपुर समेत लगभग 13 जगहों पर प्रदर्शन हो रहा है तो दूसरी तरफ कोलकाता, हैदराबाद, इलाहाबाद, लखनऊ, कानपुर, पटना समेत देश के तमाम शहरों में शाहीन बाग़ बन चुके हैं।


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अब सवाल यह है कि ये औरतें कौन हैं? क्या इनकी पहचान इनके 'कपड़ों' से की जा सकती है! क्या किसी विश्वविद्यालय से, जिसे 'वे' नापसंद करते हैं! या कोई एनजीओ या किसी और संगठन की, जिसके फंड या मंशा पर आप सवाल उठा सकें। नहीं! बिल्कुल नहीं।

ये औरतें आम घरों की हैं। कोई पढ़ाई कर रही है, कोई घरेलू काम करती है, कोई टीचर है, कोई अपनी दुकान पर बैठता है, किसी का पति पंक्चर की दुकान चलाता है, किसी के पति का बिजनेस है। ये भारत की उस आम समाज की महिलाएं हैं जिनकी बहुतायत इस देश में है। इसे हम आप ऐसे भी कह सकते हैं कि यह हमारे भारत की आम महिलाएं हैं।

इन महिलाओं को कपड़े, रंग, जाति, उम्र और धर्म के बंधन में भी आप नहीं बांध सकते हैं। इसमें पांच साल की बच्ची से लेकर 80 साल की दादी प्रदर्शन कर रही हैं। महिलाएं अपने बच्चों के साथ प्रदर्शन कर रही हैं। महीने भर से ज्यादा समय से चल रहे प्रदर्शन के दौरान इन महिलाओं ने धर्मनिरपेक्षता का जो सबक पढ़ाया है वह इस दौर में काबिले तारीफ है। प्रदर्शन के दौरान गांधी, आंबेडकर, अबुल कलाम से लेकर भगत सिंह, अशफाक उल्ला की तस्वीरें नज़र आ रही हैं।

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इन महिलाओं ने मकर संक्राति का त्योहार मनाया तो ढोल-नगाड़ों की धुन पर थिरकते हुए लोहड़ी का जश्न भी मनाया। पीड़ित कश्मीरी पंडितों को भी जगह दी तो देश भर में सीएए आंदोलन के दौरान पुलिसिया उत्पीड़न के शिकार लोगों को भी मंच पर मौका दिया। मतलब बिना लाग लपेट और साफ सीधे तरीके से हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई की एकता का पैगाम दिया गया। महीने भर में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, हबीब जालिब जैसे क्रांतिकारी शायरों की नज़्में गायी गईं तो बहुत सारे युवा कवियों को मौका दिया गया।

औरतों के इस आंदोलन में क्रिएटीविटी भी अपने चरम पर है। लोहे का बना इंडिया गेट हो या डिटेंशन सेंटर या फिर सड़कों पर बनाई गई कलाकृतियां आपको चारों तरफ ऐसा नज़ारा दिखेगा जो आपको देश की एकता-अखंडता के पक्ष में और नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में पैगाम दे रहा है।

जब नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में होने वाले प्रदर्शन एक या दो दिन के भीतर खत्म हो रहे थे तब भी ये महिलाएं डटी रहीं। इन्होंने सौ साल में सबसे हाड़ कपां देने वाली सर्दी झेली तो अब हर दिन इतनी ठंडी में होने वाली बारिश झेल रही हैं लेकिन इसके बावजूद इनका आंदोलन कमजोर नहीं पड़ा।

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सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं द्वारा 500 रुपये लेकर आंदोलन पर बैठने के आरोप लगने समेत तमाम तरह के आरोप प्रत्यारोप झेलती इन महिलाओं ने आंदोलन का सलीका पूरे देश को सिखा दिया। अपनी मांग को लेकर दृढ़ निश्चय इन महिलाओं ने न तो आंदोलन को हिंसक होने दिया, न ही किसी तरह की अफरा तफरी पैदा होने दी। साथ ही अपने आंदोलन को किसी को हथियाने भी नहीं दिया है।

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यानी इतने कम वक्त में इन महिलाओं ने साफ संदेश दे दिया है कि उन्हें पुरुषों और परंपरागत नियमों और लकीरों पर नहीं चलना है। वह अपनी लकीर खुद बना रही हैं और यह लकीर एक नया इतिहास बना रहा है।

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