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शांघाई सहयोग संगठन अमेरिका की अगुवाई वाले क्वाड के अधीन काम नहीं करेगा

एससीओ यानी शांघाई सहयोग संगठन, अमेरिका की अगुवाई वाले चार देशों के गठबंधन क्वाड के अधीन काम नहीं करेगा।
Afghanistan
शांघाई सहयोग संगठन, दुशांबे में 17 सितंबर, 2021 को हुई 20वीं शिखर वार्ता के दौरान ली गई पारिवारिक तस्वीर 

जैसा कि माना जा रहा था, शुक्रवार को दुशांबे में शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की 20वीं शिखर बैठक में अफ़ग़ानिस्तान के हालत पर चर्चा मुख्य केंद्र बनी रही। फिर भी, इस विषय पर एससीओ की दुशांबे घोषणा खरी नहीं उतरी है।

8300 शब्दों के दस्तावेज़ में मुश्किल से 170 शब्द अफ़ग़ान की स्थिति को समर्पित थे। इसने केवल तीन व्यर्थ बिंदु तैयार किए, अर्थात्, जो एससीओ सदस्य देशों के लिए थे।

  • "आतंकवाद, युद्ध और नशीले पदार्थों से मुक्त स्वतंत्र, तटस्थ, एकजुट, लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण राष्ट्र" के रूप में अफ़ग़ानिस्तान के उदय का समर्थन करना;
  • यह विश्वास करना कि अफ़ग़ानिस्तान में "समावेशी सरकार का होना महत्वपूर्ण" है; तथा,
  • इस बात को महत्वपूर्ण समझना कि अफ़ग़ान शरणार्थियों को उनके देश में वापस लौटने में सुविधा प्रदान के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय "सक्रिय प्रयास" करता रहे। 

इसे कहते हैं कि एक पहाड़ ने दिया चूहे को जन्म दिया या खोदा पहाड़ और निकला चूहा! एससीओ का रुख आम सहमति के फैसलों पर आधारित है और सदस्य देशों के दृष्टिकोण में इतनी बड़ी भिन्नता या मतभिन्नता को देखते हुए, आम सहमति तक पहुंचना मुश्किल था।

यह एससीओ को एक करारा झटका है क्योंकि इसके पास अब कहने ज्यादा कुछ नहीं है और क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा में सबसे बड़े संकट के समाधान में योगदान करने के लिए भी उनके पास काफी कम विकल्प हैं, क्योंकि इस संगठन/समूह को अपने पूरे इतिहास में एक ऐसी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है जिसका समाधान आसान नहीं है।

आखिर ये हुआ कैसे? इसका संक्षिप्त सा जवाब यह है कि भारत ने एससीओ की पवन चक्कियों को मोड़ने वाला अकेला रेंजर बना हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी ने क्रमशः 16 और 17 सितंबर को दो कठोरतम भाषण दिए - पहला "एससीओ के भविष्य" पर एससीओ शिखर सम्मेलन में और उसके बाद एससीओ-सीएसटीओ आउटरीच शिखर सम्मेलन में दूसरा भाषण दिया था जो विशेष रूप से अफ़ग़ान घटनाओं पर समर्पित था।

मोदी अफ़ग़ानिस्तान में "सत्ता में हुए संक्रमण" पर जोरदार तरीके बरसे, उन्होंने कहा कि, "यह व्यवस्था बिना बातचीत के बनी है" और इसलिए, "नई प्रणाली की स्वीकार्यता के बारे में सवाल खड़ा होता है।" उन्होंने वस्तुतः तालिबान सरकार की वैधता पर सवाल उठाया।

मोदी ने सिफारिश की: “और कहा कि इसलिए, यह जरूरी है कि इस तरह की नई प्रणाली को मान्यता देने का निर्णय वैश्विक समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से और उचित विचार के बाद लिया जाए। भारत इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र की मुख्य भूमिका का समर्थन करता है।”

मोदी के भाषण और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भाषण के बीच का अंतर इससे ज्यादा तीखा नहीं हो सकता था। पुतिन और शी दोनों ने दुनिया से अफ़ग़ानिस्तान की संपत्ति को मुक्त करने और अधिक सहायता देने का आग्रह किया। उन्होंने तालिबान सरकार से पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण संबंध बनाने और आतंकवाद और नशीले पदार्थों की तस्करी का मुकाबला करने का आग्रह किया है।

सबसे महत्वपूर्ण बात, उन्होंने कहा कि एससीओ देशों को "अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल" करते हुए "नई अफ़ग़ान सरकार को प्रोत्साहित करने का काम करें ताकि वे (तालिबन) अपने उन वादों को पूरा कर सकें जिसमें उन्होने अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा" का वातावरण बनाने का वादा किया था। शी ने कहा कि, विशेष रूप से एससीओ सदस्य देशों को अफ़ग़ानिस्तान में एक सुचारु परिवर्तन लाने में मदद करनी चाहिए।

संक्षेप में, मोदी ने एससीओ सदस्यों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका के नेतृत्व वाले निर्णयों के साथ सामंजस्य स्थापित करने का आह्वान किया। सीधे शब्दों में कहें तो एससीओ को क्वाड के साथ दूसरी भूमिका निभानी चाहिए, जो 24 सितंबर को वाशिंगटन, डीसी में एक शिखर सम्मेलन आयोजित कर रहा है, जहां अफ़ग़ानिस्तान के एक प्रमुख एजेंडा बनने की उम्मीद है। क्वाड शिखर सम्मेलन से पहले, राष्ट्रपति बाइडेन उसी दिन मोदी से मिलने वाले हैं।

दुशांबे घोषणा को वाशिंगटन में राहत की सांस माना जाएगा। भारत ने व्यावहारिक रूप से एससीओ को अफ़ग़ानिस्तान पर कोई भी मुखर भूमिका निभाने से रोक दिया है, जो निश्चित रूप से अमेरिका को अपनी रणनीति के साथ आगे बढ़ने के लिए समय और स्थान दोनों प्रदान करता है।

तालिबान के प्रति अमेरिका की तैयार रणनीति का उद्देश्य अफ़ग़ान मसलों पर अमेरिका का पुन: प्रवेश करना है ताकि पेंटागन और सीआईए रूस और चीन के साथ "रणनीतिक प्रतिस्पर्धा" को आगे बढ़ा सकें और ईरान को अस्थिर कर सकें। वाशिंगटन तालिबान पर यह दबाव बना रहा है कि अमेरिकी इजाजत के बिना उसका कोई भविष्य नहीं है और जब तक अमेरिका की बात नहीं मानी जाती है, तब तक मंजूरी रोक दी जाएगी और वाशिंगटन तालिबान सरकार का जीवन नरक बना देगा।

अमेरिका का अनुमान है कि तालिबान वाशिंगटन के साथ "जीत-जीत" जैसा संबंध रखने का इच्छुक है। इस पृष्ठभूमि में, अमेरिका एससीओ को एक संभावित "खेल बिगाड़ने वाले" संगठन के रूप में देखता है।

हालांकि, दुशांबे घोषणा अंतिम शब्द नहीं है और न ही एससीओ को ब्लैकमेल करने के लिए बंधक बनाया जा सकता है। एससीओ शिखर सम्मेलन से पर चार सदस्य देशों ने जिसमें चीन, पाकिस्तान, रूस और ईरान शामिल हैं ने अपना के स्वतंत्र खांचा बना लिया है या कहें एक अलग रास्ता बना लिया है। 

इन चार देशों के विदेश मंत्रियों ने 17 सितंबर को दुशांबे में अलग-अलग मुलाकात की। दिलचस्प बात यह है कि इस कोर ग्रुप ने एक संयुक्त बयान भी जारी किया, जिससे पता चलता है कि यह कदम अचानक लिया गया था। 

संयुक्त बयान ने अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता की केंद्रीयता और "अफ़ग़ान के नेतृत्व वाले, अफ़ग़ान-स्वामित्व वाले" सिद्धांत को रेखांकित किया है। यह अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी एकतरफा अमरिकी हस्तक्षेप की परोक्ष अस्वीकृति है।

संयोग से, अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने इस सप्ताह वाशिंगटन में कांग्रेस की सुनवाई में खुलासा किया कि बाइडेन प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान के लक्ष्यों पर अमेरिका के "गुप-चुप" तरीके से किए जाने वाले हमलों की सुविधा प्रदान कराने के लिए भारत के साथ "गहराई से" चर्चा में लगा हुआ है, फिलहाल जिसकी योजना बनाई जा रही है। 

चीनी राज्य काउंसलर और एफएम वांग यी ने अगले चरण में अफ़ग़ानिस्तान से संबंधित चार देशों के बीच "समन्वय और सहयोग" पर विदेश मंत्रियों की होने वाले बैठक में पांच सूत्री प्रस्ताव रखा है: सबसे पहले, संयुक्त राज्य अमेरिका से अपने दायित्वों को ईमानदारी से पूरा करने का आग्रह करना और वह इसकी पूरी जिम्मेदारी लें। दूसरा, वह अफ़ग़ानिस्तान से संपर्क करें और उसका मार्गदर्शन करे। हालांकि अफ़ग़ानिस्तान ने एक अंतरिम सरकार की स्थापना की है, लेकिन उसने अपनी घरेलू और विदेशी नीतियों को अंतिम रूप नहीं दिया है। तीसरा, सुरक्षा जोखिमों के फैलाव से बचाव करना। चौथा, अफ़ग़ानिस्तान की सहायता के लिए सभी पक्षों को तालमेल बनाने के लिए प्रोत्साहित करना। पांचवां, अफ़ग़ानिस्तान को क्षेत्रीय सहयोग में शामिल होने में मदद करना है।

स्पष्ट रूप से, अफ़ग़ान के खिलाफ किसी भी किस्म के सैनिक अभियानों पर अमेरिका-भारत की मिलीभगत से क्षेत्र में बेचैनी पैदा हो रही है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने ताज़िक  राष्ट्रपति इमोमाली रहमोन के साथ "लंबी" बैठक की और बाद, उन्होंने क्रेमलिन के आरटी चैनल को बताया कि वह अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसियों के साथ काम कर रहे हैं ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मान्यता हासिल करने के लिए काबुल में मौजूदा व्यवस्था क्या करती है।

इमरान खान ने टिप्पणी की कि तालिबान सरकार की मान्यता एक महत्वपूर्ण कदम होगा। जो आज दांव पर लगी है, उसके बारे में वह काफी स्पष्ट थे: मुझे लगता है कि केवल एक ही विकल्प बचा है [तालिबान] को प्रोत्साहित करना, उन्हें एक समावेशी सरकार के बारे में किए गए वादों और घोषणाओं पर टिके रहने के लिए प्रोत्साहित करना, उन्होंने आगे कहा कि जहां तक मानवाधिकारों का सवाल है, सभी को माफी देना शामिल है”। "उम्मीद है, अगर यह सुझाव काम करते हैं तो 40 वर्षों में पहली बार अफ़ग़ानिस्तान में शांति आ जाएगी।"

लेकिन तालिबान पर भारत का दिमाग उलझा हुआ है, जिसे वह पाकिस्तान और चीन दोनों के प्रति मित्रवत मानता है। रणनीतिक दृष्टि से, भारत अपने हितों को देखते हुए पाकिस्तान और चीन के प्रतिसंतुलन बनाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान की भू-राजनीति में अमेरिका की वापसी  चाहता है। 

भारतीय रुख न केवल रूस और चीन के दृष्टिकोण के विपरीत है, बल्कि उज्बेकिस्तान और कजाकिस्तान, जोकि दो सबसे बड़े मध्य एशियाई देश भी हैं के भी विपरीत है। उज़्बेक राष्ट्रपति शवकत मिर्जियोयेव ने दुशांबे शिखर सम्मेलन में अपनी टिप्पणी में कहा कि,

“एक नई वास्तविकता उभर कर सामने आई है, नए लोग सत्ता में आए हैं। यह एक तय भविष्य है। अगर यही वास्तविकता है तो, अफ़ग़ानिस्तान के हालत पर एक समन्वित दृष्टिकोण विकसित करना और साथ ही नए अधिकारियों के साथ संवाद विकसित करना बेहद जरूरी है।"

कज़ाख राष्ट्रपति कसीम-जोमार्ट टोकायव ने और भी मजबूत शब्दों में यही राय व्यक्त की है: "सीएसटीओ और एससीओ देशों को अफ़ग़ानिस्तान में नए अधिकारियों के साथ अनौपचारिक बातचीत शुरू करनी चाहिए। इसके माध्यम से तालिबान के वास्तविक इरादों का आकलन करना और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरों की एक साझा समझ बनाने और देश के साथ व्यापार और आर्थिक संबंधों को बहाल करना संभव होगा।”

क्षेत्रीय राष्ट्रों द्वारा तालिबान सरकार के साथ रचनात्मक जुड़ाव पर दिल्ली द्वारा खींची गई लाल रेखा पर ध्यान देने की संभावना नहीं है। जबकि दिल्ली के लिए यह काफी हद तक पाकिस्तान और चीन के खिलाफ एक छाया का खेल है, अन्य क्षेत्रीय राष्ट्रों के लिए, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुख्य हित शामिल हैं और उनके दिमाग में राजनीति करना आखिरी बात है। मास्को के नेतृत्व वाला सीएसटीओ ताज़िक-अफ़ग़ान सीमा पर तैनाती के लिए कमर कस रहा है।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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