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कैसे भाजपा, शिवसेना के अस्तित्व के लिए बन गई खतरा?

शिवसेना ने हमेशा कोशिश की है कि वह भाजपा के हिन्दुत्व से अपने को अलग करे। क्योंकि वर्षों से भाजपा का हिन्दुत्व, शिवसेना के हिंदुत्व पर हावी हो रहा था और इसका व्यापक फ़ायदा भाजपा को मिल रहा था। महाराष्ट्र के चुनावी इतिहास पर नज़र डालने से इस बात की तस्दीक हो जाती है।
shiv sena

जब उद्धव ठाकरे ने भाजपा का दामन छोड़ काँग्रेस और एनसीपी के साथ सरकाई बनाई थी तो कहीं न कहीं यह बात उभर कर सामने आई थी कि सेना ने सत्ता के लिए भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया और जूनियर साथी (सीटों की संख्या के मुताबिक) होने के बावजूद मुख्यमंत्री के पद को लेकर भाजपा से अलग हो गई। तो सवाल यह भी उठता है कि आखिर कौन से ऐसे कारण है कि सेना को भाजपा से नाता तोड़ना पड़ा और धर्मनिरपेक्ष और उदार विचारधारा की पार्टियों से नाता जोड़कर और उनके साथ सरकार बनानी पड़ी।  

सेना की यह बात भी सही है कि उन्होंने हिंदुत्व की विचारधारा को नहीं छोड़ा है लेकिन उसके हिंसक प्रारूप को पीछे धकेल दिया है। लेकिन सेना ने एक कोशिश की है कि वह भाजपा के हिन्दुत्व के विचार से अपने को अलग करे। क्योंकि वर्षों से भाजपा का हिन्दुत्व का विचार शिवसेना पर हावी हो रहा था और इसका व्यापक फ़ायदा भाजपा को मिल रहा था। महाराष्ट्र के चुनावी इतिहास पर नज़र डालने से इस बात की तस्दीक हो जाती है। यद्धपि, शिव सेना महाराष्ट्र की हिन्दुत्व की विचारधारा वाली बड़ी पार्टी हुआ करती थी लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा-शिव सेना के बीच 25 साल के गठबंधन में शिव सेना का आधार घटता गया और भाजपा एक प्रमुख और बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित हो गई। 

शिवसेना का इतिहास बताता है कि बालासाहेब ठाकरे ने पार्टी का गठन एक ऐसा आंदोलन तैयार करने के लिए किया था ताकि मुंबई में मराठी लोगों को नौकरी के अवसर मिल सकें और मराठी और गैर-मराठी के बीच असंतोष पैदा कर अपना आधार मजबूत कर सके। 70 और 80 के दशक में, इसने ट्रेड यूनियनों की एकता तोड़ने और उन पर हिंसक हमले करने का भी काम किया था। नतीजतन 1970 में शिवसेना के प्रतिद्वंदी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कृष्णा देसाई की हत्या कर दी गई और हत्या के आरोप में शिवसेना कार्यकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया था। कृष्णा देसाई विधायक थे जिन्होंने परेल की सिटी जीती थी। इसके बाद शिवसेना ने हिन्दुत्व की विचारधार को अपना मूल सिद्धान्त बना लिया था और वह वक़्त के साथ मजबूत होता गया।  

पिछले 25 वर्षों का इतिहास 

इसलिए पिछले 25 वर्षों का चुनावी इतिहास, भाजपा के साथ शिवसेना का गठबंधन सेना की खराब होती स्थिति और भाजपा के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को दर्शाता है। 1990 और 2014 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में शिव सेना का आधार बहुत कम हुआ है और भाजपा का आधार बढ़ा है। और आज भाजपा के पास शिवसेना के मुक़ाबले सीटें करीब दोहरी संख्या में हैं। 1989 में, पहली बार, शिवसेना और भाजपा ने लोकसभा चुनाव से पहले आपस में गठबंधन किया था। और उन्होंने विधानसभा चुनाव में गठबंधन बरकरार रखने का निर्णय भी लिया था। 1990 के विधानसभा चुनावों में, शिवसेना, जो महाराष्ट्र में बड़ी पार्टी थी, ने 171 सीटों पर चुनाव लड़ा और भाजपा ने 117 सीटों पर चुनाव लड़ा था। नतीजे बताते हैं कि शिवसेना ने 52 सीटें जीतीं और 15.94 फीसदी वोट शेयर हासिल किए, जबकि भाजपा को 10.71 फीसदी वोट मिले और 42 सीटें जीतीं थी।

कांग्रेस, जो कि प्रदेश की बड़ी पार्टी थी, वह बहुमत के साथ सत्ता में आ गई थी। तब तक एनसीपी अस्तित्व में नहीं आई थी, 1999 में कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार के नेतृत्व में एनसीपी बनी थी। 1995 के चुनावों में, जो बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद होने वाले चुनाव थे दोनों ही पार्टियां कट्टर हिंदुत्व का प्रचार करते हुए पहली बार सत्ता पर काबिज हुईं थीं और पहली भगवा गठबंधन की सरकार महाराष्ट्र में बनी थी। इसने कांग्रेस को हराया था। शिवसेना 73 सीटों और 16.39 प्रतिशत वोट शेयर के साथ भाजपा से आगे रही थी। हालांकि भाजपा दूसरे स्थान पर थी लेकिन उसकी सीट की संख्या बढ़कर 65 सीट और वोट शेयर 12.80 प्रतिशत हो गया था। 

2004 में बीजेपी की सीटें और वोट शेयर 54 सीटों पर स्थिर रहा और 13.67 फीसदी वोट पड़े, जबकि शिवसेना ने 62 सीटें जीतीं और 19.97 फीसदी वोट हासिल किए थे। फिर 2009 में, भाजपा की सीट की संख्या घटकर 46 सीटों पर आ गई थी और वोट फीसद 14.02 हो गया था,  जबकि शिवसेना को 45 सीटें मिलीं और 16.02 प्रतिशत वोट मिले। दिलचस्प बात यह है कि 2009 के चुनाव में बीजेपी शिवसेना से सिर्फ एक सीट से आगे थी। इससे शिवसेना के बड़े भाई की हैसियत को पहली चोट पहुंची थी। 

2014 के लोकसभा चुनाव को गठबंधन में लड़ने के लिए शिवसेना और भाजपा ने सीटों के बंटवारे को लेकर मतभेदों दूर करने का फैसला किया था। क्योंकि शिवसेना ने घोषणा की थी कि वह 288 सीटों में से कम से कम 150 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। जबकि, भाजपा चाहती थी कि शिवसेना 147 सीटों पर चुनाव लड़े। क्योंकि भाजपा छोटी पार्टियों जैसे रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, राष्ट्रीय समाज पार्टी और स्वाभिमानी शेतकरी संगठन जैसे सहयोगियों को समायोजित करने के लिए उन्हें 14 सीटें देना चाहती थी। हालांकि इस जिद्द में भगवा गठबंधन टूट गया और महाराष्ट्र में बहुकोणीय मुकाबला हुआ। 

2014 के विधानसभा चुनावों में देखा गया कि भाजपा महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, और 27.08 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 122 सीटें जीती, जबकि शिवसेना दूसरे स्थान पर आई और उसने 63 सीट और 19.03 प्रति वोट शेयर हासिल किए। कांग्रेस को 42 और राकांपा ने 41 सीटों पर जीत हासिल हुई। छोटे दल और निर्दलीय को कुल 20 सीटें मिली थी।

2019 में भाजपा-शिवसेना और कांग्रेस-एनसीपी के बीच चुनाव से पहले का गठबंधन तय था। महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणाम 24 अक्टूबर, 2019 को घोषित किए गए थे और  चुनाव में 61.3 प्रतिशत मतदान हुआ था। भाजपा और शिवसेना गठबंधन ने चुनाव में बहुमत हासिल किया, जिसमें भाजपा को 105 और शिवसेना को 56 सीटें मिलीं. कांग्रेस को 44 और  शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा को 54 सीटें मिलीं जो 2014 के चुनावों के मुक़ाबले 13 सीटें अधिक थीं। अन्य दलों में सीपीआई (एम) -1, एमएनएस -1, एआईएमआईएम -2, एसपी -2, और विभिन्न दलों और स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में 23 ने जीत हासिल की थी। 

यदि आप महाराष्ट्र के 25 साल के चुनावी इतिहास पर गौर करें तो आप पाएंगे कि 2014 (केंद्र में मोदी के सत्ता में आने के बाद) से शिव सेना भाजपा के मुक़ाबले एक छोटी पार्टी बन गई थी। इसलिए कहा जा सकता है कि शिवसेना के भीतर भाजपा के खिलाफ असंतोष काफी लंबे समय से बढ़ रहा था और सेना के आस्तित्व का खतरा मंडराने लगा था। और 2019 के चुनावी नतीजों ने इसे तब और बढ़ा दिया जब गठबंधन में भाजपा को शिवसेना से करीब दोहरी सीटें मिलीं और मुख्यमंत्री की कुर्सी शिवसेना के हाथों से निकलती नज़र आई। और नतीजतन एमवीए सरकार का गठन हुआ और उद्धव ठाकरे सेना-कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के मुख्यमंत्री बने।         

हिन्दुत्व की हिंसक विचारधारा से दूर होती एमवीए गठबंधन सरकार 

इसमें कोई शक़ नहीं कि प्रदेश में गैर-भाजपा सरकार के गठन के कारण बहुत सी ऐसी चीज़ें हुईं जो न तो भाजपा और न ही सेना के कट्टर हिंदुत्ववादी तत्वों को बर्दाश्त था। प्रदेश में न तो रामनवमी के दौरान मस्जिदों के सामने उत्पात हुआ जैसा कि अन्य भाजपा शासित राज्यों में देखा गया और न ही मुसलमानों के नरसंहार और मुस्लिम महिलाओं के सामूहिक बलात्कार का आह्वान किया गया, सीएए-एनआरसी के विरोध के दौरान, मुसलमानों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन की जैसी घटनाएं भी देखने को नहीं मिलीं, जबकि उत्तर प्रदेश और अन्य भाजपा शासित राज्यों में इस तरह की घटनाएं आम थीं। 

हालांकि महाराष्ट्र में भाजपा एक बड़ी ताक़त है फिर भी प्रदेश में मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान करने वाली धर्म संसद का आयोजन नहीं देखा गया जो कि यूपी या उत्तराखंड में देखा गया था। सबसे बड़ी बात तमाम तरह के आंदोलनों के बावजूद राज्य में बुलडोजर से किसी घर को तोड़ा नहीं गया। राज्य सरकार को कोविड को बखूबी संभालने और वक़्त पर कार्यवाही करने के लिए सराहा गया। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसने कोविड संबंधित संख्याओं को छिपाने पर कोई ध्यान केंद्रित नहीं किया था। 

बुली बाई मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने तेजी से कार्यवाई की। यह वही पुलिस बल है जिसने कथित तौर पर देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में भीमा कोरेगांव की कहानी गढ़ी थी। ठाकरे ने उन अफवाहों के खिलाफ एक स्पष्ट रुख अपनाया, जिसके कारण भाजपा शासित राज्यों में मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार हुआ था। यानी शिवसेना-कॉंग्रेस-एनसीपी गठबंधन ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे प्रदेश में सांप्रदायिक माहौल खराब हो बल्कि ऐसी किसी भी कोशिश को बड़ी मजबूती के साथ कुचल दिया या उसे किसी टकराव में तब्दील नहीं होने दिया। 

मौजूदा संकट और आगे का रास्ता

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने शुक्रवार की रात आरोप लगाया कि भारतीय जनता पार्टी का मकसद शिवसेना को समाप्त करना है क्योंकि वह हिंदू वोट बैंक को साझा नहीं करना चाहती है। यह वही चिंता है जो शिवसेना के भीतर अब से नहीं बल्कि तब से है जबसे भाजपा शिवसेना को पछाड़ कर बड़ी पार्टी बन गई है। 

ठाकरे ने भाजपा और शिवसेना के बागी विधायक एकनाथ शिंदे को चुनौती दी है कि वे शिवसेना के कार्यकर्ताओं और पार्टी को वोट देने वाले लोगों को अपने पाले में करके दिखाए। पार्टी के पार्षदों को ऑनलाइन माध्यम से संबोधित करते हुए शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने कहा है कि पार्टी के आम कार्यकर्ता उनकी ‘‘पूंजी'' हैं और जब तक वे उनके साथ खड़े हैं, तब तक वे किसी अन्य द्वारा की जाने वाली आलोचना की परवाह नहीं करते. "जो जाना चाहते हैं जाएं....मैं नई शिवसेना बनाऊंगा।"

ठाकरे ने आगे कहा कि, ‘‘शिवसेना को अपने ही लोगों ने धोखा दिया है।'' शिवसेना के बागी विधायकों के गुवाहाटी के एक होटल में डेरा डालने के बाद उपजे राजनीतिक संकट के बीच ठाकरे ने पार्टी पार्षदों (नगरसेवकों) को संबोधित किया है। ठाकरे ने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा है कि, ‘‘बगावत करने वाले शिवसेना के विधायकों को विधानसभा चुनाव का टिकट दिया गया, जबकि आप जैसे कई शिवसैनिक नामांकन के इच्छुक थे। ये लोग आपकी कड़ी मेहनत के बल पर चुने जाने के बाद असंतुष्ट हो गए जबकि आप अब भी इस मुश्किल वक्त में पार्टी के साथ खड़े हुए हैं।''

उन्होंने कहा, ‘‘मैंने एकनाथ शिंदे से गठबंधन सहयोगियों से जुड़ी शिकायतों को देखने की बात कही थी। उन्होंने मुझसे कहा कि विधायक इस बात का दबाव डाल रहे हैं कि शिवसेना को भाजपा से हाथ मिला लेना चाहिए तो मैंने उनसे कहा कि ऐसे विधायकों को मेरे पास लेकर आइये, हम इस पर जरूर चर्चा करेंगे।'' ठाकरे ने ज़ोर देकर कहा कि, ‘‘भाजपा ने हमारे साथ बुरा बर्ताव किया और वादों को नहीं निभाया। 

शिवसेना प्रमुख ने शिंदे पर निशाना साधते हुए कहा, ‘‘अगर शिवसेना का कोई भी कार्यकर्ता मुख्यमंत्री बनने जा रहा है तो आपको उनके (भाजपा) साथ जाना चाहिए। लेकिन, अगर आप उपमुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं तो आपको मुझे बताना चाहिए था, मैं आपको उपमुख्यमंत्री बना देता।'' ठाकरे ने कहा कि अगर शिवसेना के कार्यकर्ताओं को लगता है कि वह पार्टी का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं हैं तो वह पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने को भी तैयार हैं।

शिवसेना प्रमुख की खुली चुनौती और आगे का रास्ता 

सेना प्रमुख ने उपरोक्त अपील में दो इशारे किए हैं। एक; उन्होंने साफ कर दिया है कि भाजपा शिवसेना की सेहत के लिए हानिकारक है और दूसरा कि वे असंतुष्टों के दबाव में आने वाले नहीं हैं। उन्हे उनके सामने आकर बात करनी पड़ेगी और तभी कोई हल निकलेगा। यहाँ तक कि ठाकरे ने इशारा किया है कि यदि मौजूदा संकट का कोई समाधान शिव सेना के पक्ष में नहीं निकलता है तो वे महाराष्ट्र की जनता और शिवेसेना के कार्यकर्ताओं के भरोसे पार्टी को फिर से खड़ा करेंगे लेकिन अवसरवादियों के सामने झुकेंगे नहीं। इस पूरे के पूरे संकट में कॉंग्रेस और एनसीपी के लिए नए अवसर मौजूद हैं अब देखना यह है कि दोनों पार्टियां इन्हे कैसे भुनाती हैं।     

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