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चीनी-रुसी गठबंधन परिपक्व होता नजर आ रहा है- I

इस संयुक्त बयान ने उभरती हुई वैश्विक स्थिति पर अपने सबसे शक्तिशाली नजरिये को रुसी-चीनी गठबंधन के प्रयोजन को रेखांकित करने के लिए बचाकर रखा, जिसमें नाजीवाद और जापानी साम्राज्यवाद के खिलाफ उनके ऐतिहासिक संघर्षों को याद किया गया है।
चीनी-रुसी गठबंधन परिपक्व होता नजर आ रहा है- I
येवगेनी खलदेई द्वारा मई 1945 में रेड आर्मी के सैनिकों की ऐतिहासिक तस्वीर, जिसमें वे बर्लिन में रिचस्टैग भवन के उपर सोवियत झन्डे को लहरा रहे हैं।

दो देशों के बीच जारी संयुक्त बयान की धुरी आमतौर पर किसी ख़ास घटना पर केन्द्रित होती है, लेकिन असाधारण परिस्थितियों के दौरान जिसमें महान शक्तियाँ शामिल हों, तो ऐसे में यह एक युगांतकारी चरित्र अख्तियार कर सकती है। इसे कूटनीतिक वार्तालाप के तौर पर भी देखा जा सकता है, जिसे जर्मन ज़ितगिस्ट नाम से पुकारते हैं, अर्थात– इतिहास के किसी खास कालखंड को परिभाषित करने वाली भावना या मूड - और इसके अनुरूप भू-राजनीतिक शक्ति संतुलन को उसके सांचे में ढालना। जो महान शक्तियाँ होती हैं, उनके मामले में ऐसा होना अधिक स्वाभाविक है क्योंकि उनके यहाँ डिप्लोमेसी की पुरानी परंपराएं चली आ रही होती हैं और इतिहास में उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ रखी है।

निश्चित रूप से कह सकते हैं कि 10-11 सितंबर, 2020 को मॉस्को में चीनी राज्य पार्षद और विदेश मंत्री वांग यी की यात्रा के बाद जारी संयुक्त बयान को इस दूसरी श्रेणी के अंतर्गत रखा जा सकता है।

वांग की मॉस्को यात्रा शंघाई सहयोग संगठन की विदेश मंत्री स्तर की बैठक के सिलसिले में हुई थी। दरअसल रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के साथ उनकी यह "द्विपक्षीय" वार्ता 11 सितंबर को हुए दौरे के करीब-करीब समापन के वक्त हुई थी, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और वैश्विक क्रम के नजरिये से देखें तो इसे चीनी-रुसी सौहार्द के विकास के क्षेत्र में एक बेहद अहम मोड़ के तौर पर देखे जाने की जरूरत है।

वांग की यात्रा से जो दस्तावेज़ निकलकर आये हैं, वह चीनी-रूसी साझेदारी के मामले में डिस्कोर्स के विश्लेषण करने और दो शक्तियों के आपसी हितों और लगातार विकसित हो रही समकालीन विश्व स्थिति में वैश्विक भू-राजनीतिक संदर्भ पर ध्यान केंद्रित कराता है।

मौजूदा संयुक्त बयान वर्तमान अंतरराष्ट्रीय स्थिति और महत्वपूर्ण समस्याओं, खास तौर पर वैश्विक राजनीतिक स्थिरता और वैश्विक आर्थिक सुधार के मामले में एक चीनी-रूसी घोषणा के ज्यादा अनुरूप नजर आता है। यह घोषणा कुछ इस प्रकार की है जिसे कि हम आम तौर पर घनिष्ठ सहयोगियों के बीच में होते देखते हैं, और यह इस तथ्य को दर्शाता है कि चीनी-रुसी व्यापक साझेदारी और रणनीतिक सहयोग में गुणात्मक तौर पर नए चरण की शुरुआत होने जा रही है, जिसने पहले से ही द्विपक्षीय संबंधों को ऐतिहासिक रूप से उच्चतम स्तर पर ला खड़ा कर दिया है।

स्पष्ट तौर पर 11 सितंबर का यह रूस-चीन का संयुक्त बयान पहले से ही द्विपक्षीय संबंधों पर तयशुदा, सार्वजनिक तौर पर संबोधित करने वाले दस्तावेज की तर्ज पर है, जो न सिर्फ इन दोनों देशों के राजनीतिक विचारधाराओं को दर्शाता है बल्कि उनकी “साझा दृष्टि” और साझा समस्याओं के सिलसिले में मिलजुलकर हल तलाशने की सिफारिशों में भी नजर आता है। यह एक ऐसी दुनिया को संदर्भित करता है जो “एक गहरे परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। इसमें उथल-पुथल लगातार बढती ही जा रही है ... जिसमें कोरोनावायरस महामारी आज वैश्विक शांतिकाल के लिए सबसे गंभीर चुनौती बन कर उभरी है।”

इस संयुक्त वक्तव्य में बारह मुख्य क्षेत्रों को साझेदारी में उल्लिखित किया गया है जोकि इन दोनों देशों की विदेश नीति के उद्देश्यों को भी दर्शाते हैं। इन बारह क्षेत्रों में सबसे पहला वह द्वेषपूर्ण अभियान है जिसे ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका ने चला रखा है, जिसे जल्द ही कुछ मुट्ठी भर देशों ने (भारत के भीतर भी एक सामूहिक गान के तौर पर) भी अलापना शुरू कर दिया था। इसमें कोरोनोवायरस महामारी के लिए सारा दोष -"वुहान वायरस"- के नामपर चीन पर मढ़ दिया गया, जहाँ से इसकी शुरुआत हुई। क्योंकि इसके अनुसार इसने विश्व समुदाय के साथ विवरण साझा करने के अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्व को पूरा करने में कथित विफलता के चलते इस वायरस के वैश्विक स्तर पर फैलने का कारण बना।

लेकिन इन सारे प्रयासों के बावजूद अंततः इस महामारी के "राजनीतिकरण" के प्रयासों ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान अपनी ओर नहीं खींच पाया है- यहाँ तक ​​कि अमेरिका के भीतर भी यही स्थिति बनी हुई है। लेकिन अमेरिका और उसके घनिष्ठ एंग्लो-सैक्सन सहयोगियों ने इसे चीन को बदनाम करने के लिए औजार के तौर पर बखूबी इस्तेमाल किया है, जिससे कि चीन के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी के साथ-साथ उसकी राजनीतिक व्यवस्था पर ही जोरदार अन्यायपूर्ण हमले किए जा सकें।

11 सितंबर का दस्तावेज़ इस तथ्य को रेखांकित करता है कि मास्को, दूसरे देशों की सरकारों और राज्यों के साथ, सार्वजनिक संगठनों, मीडिया और व्यावसायिक हलकों में सहयोग को बढ़ावा देने और मिलजुलकर भ्रामक सूचनाओं का विरोध करने, महामारी के राजनीतिकरण पर रोक लगाने और इसके बजाय कोरोनावायरस संक्रमण का सामना करने के लिए मिलजुलकर कोशिश करने और संयुक्त रूप से विभिन्न चुनौतियों और खतरों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए चीन के साथ मजबूती के साथ खड़ा है।

इसमें कोई शक नहीं कि इस समय बीजिंग के लिए यह सब बेहद संतोषजंक और सुकून देने वाला साबित हो रहा होगा, कि मास्को ने जिस प्रकार से चीनी-रूसी सौहार्द्य की उच्च गुणवत्ता का परिचय दिया है, वह क्रेमलिन के चीनी नेतृत्व के प्रति बेहद संवेदनशील मामलों में फौलादी एकजुटता को जाहिर करता है। दोनों देशों ने इस बात को रेखांकित किया है कि वे डब्ल्यूएचओ के इस महामारी का मुकाबला करने के लिए चलाए जा रहे अंतरराष्ट्रीय प्रयासों, इस क्षेत्र में अन्तराष्ट्रीय सहयोग को और गहरा करने के साथ दवाओं और टीकों के त्वरित विकास की देखरेख के मामले में उसकी समन्वयकारी भूमिका का समर्थन करते हैं और उसके साथ खड़े हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में “ऐतिहासिक सच्चाई”

पिछले सप्ताह के संयुक्त बयान का अगला निशाना द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में “ऐतिहासिक सच्चाई" की चिंता करता है। सुनने में यह एक गूढ़ विषय लग सकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। हाल के वर्षों में पश्चिमी मीडिया अभियान में देखने में बेहद सीधे-सादे अभियान में नाजी जर्मनी को हराने में तत्कालीन सोवियत संघ के बहादुराना बलिदानों को कमतर और नीचा दिखाने की कोशिशें चल रही हैं। मास्को ने जल्द ही इसके द्वेषपूर्ण, विश्वासघाती इरादे को भांप लिया था।

सीधे शब्दों में कहें तो सोवियत संघ ने ही नाज़ी हमलावरों की खिलाफत के चलते ज्यादातर बोझ को ढोया था, लेकिन पोलैंड और बाल्टिक राज्यों जैसे देशों द्वारा अक्सर अमेरिकी सूक्ष्म प्रोत्साहन के बल पर इन ऐतिहासिक तथ्यों को सुनियोजित तरीके से गलत बताये जाने के प्रयास लगातार चल रहे हैं। यह अभियान रूस-विरोधी भावनाओं को हवा देने का काम करता है, लेकिन इससे भी खतरनाक बात यह है कि यह अतार्किकता और सैन्यवाद को प्रोत्साहित करने वाला सिद्ध हो रहा है।

संयुक्त बयान में इस बात पर शपथ ली गई है कि रूस और चीन "किसी को भी द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामों को संशोधित करने की इजाजत नहीं देंगे, जो संयुक्त राष्ट्र के चार्टर और अन्य अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों में पहले से ही तय हैं।" हाल के वर्षों में जर्मनी और जापान में चल रहे क्रमिक परिवर्तनों पर संयुक्त रूसी-चीनी रुख ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है, जोकि शांतिप्रियता से हटकर अब सैन्यवादी विचारधारा की ओर खिसक रहे हैं। इसके बारे में विस्तार से समझने की जरूरत है।

बढ़ती हुई बेचैनी के साथ रुस इस बात को देख पा रहा है कि जर्मनी एक बार फिर से ऐतिहासिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, जो कि प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व की यूरोपीय सेटिंग में बिस्मार्क से संक्रमण के साथ चिंतित करने वाले समानांतर संकेत दे रहा है, और तत्पश्चात वेइमार गणराज्य से नाज़ी जर्मनी के रूपांतरण के चलते जो दो विश्व युद्ध घटित हुए और जो संपूर्ण मानव जाति के भयानक विनाश का कारण बना, के एक बार फिर से दुहराव के संकेत दिखने लगे हैं।

जर्मन विचारधारा में व्यापक बदलाव को रेखांकित करने के लिए जुलाई में डाई ज़ीट नामक साप्ताहिक पत्रिका के साथ एक साक्षात्कार में जर्मन रक्षा मंत्री एनेग्रेट क्रैम्प-कर्रनबाउर ने (जोकि सत्तारूढ़ क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन पार्टी की कार्यकारी अध्यक्षा भी हैं) जोर देकर कहा कि यह चर्चा का "सबसे उपयुक्त समय" है कि “किस प्रकार से जर्मनी भविष्य में खुद को दुनिया में स्थापित करे।"

अपने वक्तव्य में उनका कहना था कि जर्मनी से "नेतृत्वकारी भूमिका की उम्मीद न सिर्फ आर्थिक शक्ति के तौर पर की जाती है” बल्कि इसकी चिंताओं में "सामूहिक रक्षा भी शामिल है, यह अंतरराष्ट्रीय उद्येश्यों की चिंता करता है, यह दुनिया पर एक रणनीतिक दृष्टिकोण के हिसाब से भी विचार करता है, और अंततः यह इस प्रश्न पर भी सोचता है कि क्या हम वैश्विक क्रम को सक्रिय तौर पर आकार देने के लिए खुद को प्रस्तुत करना चाहते हैं।” साफ़ शब्दों में कहें तो जर्मन आवाज अब शांतिप्रियता की आवाज नहीं रही।

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रूस की सीमा से सटे लिथुआनिया में 31 जनवरी, 2017 को तैनाती से पहले बुंडेसवेहर सैनिक जर्मनी के ग्रेफेनोवेहर में ब्यूफेल ("भैंसा") बख्तरबंद टैंक वसूली वाहन पर बैठे हुए (फाइल फोटो)।

क्रैम्प-कर्रनबाउर ने कहा कि अपने हितों की वकालत कर रहे "वर्तमान रूसी नेतृत्व के दावे" को “बेहद आक्रामक तौर पर” “स्पष्ट नीति के साथ सामना करने की जरूरत है: हम अच्छी तरह से किलाबन्द हैं और किसी प्रकार की शुबहा की स्थिति में खुद के बचाव के लिए चाक-चौबंद हैं। हम देख रहे हैं कि रूस क्या कर रहा है और हम रूसी नेतृत्व को यह सब नहीं करने देंगे ... यदि आप देखें कि यूरोप में रूसी मिसाइलों की जद में कौन-कौन है, तो आप पायेंगे कि इसमें सिर्फ मध्य और पूर्वी यूरोपीय देश और हम मिलेंगे।" वे यूरोपीय सहयोगियों के साथ मिलकर “संयुक्त खतरों के जायजा लेने के काम पर” और "रक्षा प्रणालियों” को विकसित करने का वादा करती हैं जिसमें "ड्रोन, एआई-नियंत्रित ड्रोन या हाइपरसोनिक हथियारों के जमावड़े" को लगातार शामिल करने पर जोर दिया गया है।

यह कहना काफी होगा कि द्वितीय विश्व युद्ध के खात्मे के पचहत्तर साल बाद जाकर जर्मन साम्राज्यवाद एक बार फिर से हरकत में आने लगा है – और एक बार फिर से इसके निशाने पर रूस है। जर्मन एजेंडे में एक बार फिर से समाज के व्यापक सैन्यीकरण की चर्चा जोर मार रही है। पूर्व की भांति जर्मनी का अभिजात्य वर्ग देश और दुनियाभर में जर्मन पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने के मामले में कहीं पर भी विराम नहीं लेने वाला है।

यहां पर तीन विशेषताओं पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। वेइमार जर्मनी की तरह ही जर्मनी के दक्षिणपंथी चरमपंथी नेटवर्क बुंडेसवेहर (सशस्त्र बलों) और सुरक्षा दलों का एक बार फिर से जर्मन सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग द्वारा अबाध गति से संचालन शुरू हो चुका है। समाज के व्यापक पैमाने पर सैन्यीकरण की जोर-आजमाइश एक बार फिर से शुरू हो गई है। जैसा कि क्रैम्प-कर्रनबाउर इसके बारे में कहती हैं कि वे इस बात से प्रसन्न हैं कि “हमने बुंदेसवेहर को समाज के बीच कुछ हद तक दिख पाने में सफलता हासिल कर ली है, जिसमें सैनिक बुंदेसवेहर के जन्मदिन पर जर्मन बुंदेसटैग (संघीय संसद) के समक्ष सार्वजनिक प्रतिज्ञा लेते दिख रहे हैं, और जो लोग वर्दी में हैं उनके लिए ट्रेन में मुफ्त यात्रा को संभव बना दिया गया है।”

डायट ज़ीट के प्रोम्प्टर द्वारा यह पूछे जाने पर कि "कामरेडशिप, युद्ध, अपने देश के लिए मौत को गले लगाना, किसी अन्य को जान से मार डालना" बुंदेसवेह्र के सार्वजनिक आत्म-प्रतिनिधित्व में व्यावहारिक तौर पर अब वजूद में ही नहीं रह गया है” के प्रतिउत्तर में क्रैम्प-कर्रेंबेर ने तुरंत जवाब में कहा कि इसे बदले जाने की जरूरत है। वे घोषणा करती हैं “हम एक सेना हैं। हम हथियारबंद हैं। जब कभी संदेह हो तो सैनिकों के लिए हत्या करना भी आवश्यक है। अतीत की तुलना में “आज, खतरनाक विदेशी मिशन बेहद आम हैं। जो लोग बुंदेसवेहर में शामिल होते हैं, वे इस तथ्य से परिचित हैं। और जैसा कि मैं विश्वास करती हूँ कि एक अच्छी तरह से चाक-चौबंद लोकतंत्र और मजबूत यूरोप के लिए भी यह सब बेहद जरुरी है।”

जर्मन-अमेरिकी तनाव के साथ-साथ हाल ही में जर्मनी से अमेरिकी सैन्य टुकड़ी की वापसी की घोषणा ने वास्तव में जर्मनी के एक बार फिर से खुद को हथियारबंद करने वाली योजना को अग्रगति देने के लिए एक बहाने के तौर पर काम में आ रही है। जर्मनी ने हाल ही में अपने सैन्य खर्चों में अंधाधुंध बढ़ोत्तरी की है और कई अरबों वाले सैन्य साजो-सामान से लैस प्रोजेक्ट की योजना बना रहा है, हालांकि बजट अभी भी सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1.38 प्रतिशत ही प्रस्तावित है। वास्तव में देखें तो यह कवायद जर्मनी को सैन्य तौर पर अमेरिका से स्वतंत्र स्थिति में ला खड़ा करने वाला साबित होने जा रहा है। इस बारे में अपनी निष्पक्षता और अंतर्राष्ट्रीय मामलों की विस्तृत रिपोर्टिंग के लिए मशहूर स्विस समाचार पत्र नुए ज़ुचर ज़िटुंग ने हाल ही में बेहद विवेकपूर्ण तौर पर अपनी विवेचना में लिखा था कि “पहली नज़र में देखने में लग सकता है कि ट्रम्प ने देश को दंडित किया होगा। लेकिन वास्तविक अर्थों में देखें तो सैन्य वापसी ने अपनेआप में एक नए अवसर को जन्म देने का काम किया है: इसने उन सभी रियलपोलिटिकर्स के लिए अवसरों के द्वार खोल दिए हैं, जो वर्षों से जर्मनी में आंशिक तौर पर शांतिप्रियता, आंशिक तौर पर जर्मनी में अमेरिका विरोधी बहुमत की राय रखते हैं, वे अब बदलाव के लिए लाभ की स्थिति में हैं।”

"क्या यह अभी भी एक 'शांतिपूर्ण राष्ट्र' बने रहने वाली आरामदायक स्थिति को बरकरार रखना चाहता है?" अभी तक तो इसका अर्थ था कि दूसरों ने शांति को सुनिश्चित कर रखा है। या क्या यह देश उस छाया से निकलने जा रहा है जो इसके खुद के अतीत के चलते फैली हुई है, और इससे बाहर निकलकर यह खुद के लिए और अपने यूरोपीय सहयोगियों के लिए शांति को सुरक्षित करने की कोशिश में लगने जा रहा है? ”

जर्मन जनता युद्ध और सैन्यवाद के खिलाफ लामबंद है। विश्व युद्धों की भयावहता और समूची मानवता पर नाजी जर्मनी द्वारा पहुंचाये गए आघात एवं अपराध की सामूहिक स्मृतियाँ अभी भी यादों में बसी हुई हैं। यहाँ पर जो कुछ देखने को मिल रहा है उसे विशेष तौर पर सत्ताधारी अभिजात्य वर्ग में जर्मन सैन्यवाद की वापसी के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है। इसे औद्योगिक समूहों की ओर से मजबूत समर्थन प्राप्त है, जिनका हथियार निर्माताओं तौर पर रक्तरंजित इतिहास होने के साथ-साथ युद्धों से मुनाफाखोरी का बेशर्म रिकॉर्ड रहा है। इसे यदि अलग तरीके से रखें तो पूँजीवाद के गहराते संकट और बढ़ते अंतरराष्ट्रीय तनावों को देखते हुए सत्तारूढ़ जर्मन संभ्रांत वर्ग अपनी धन-संपदा और ताकत को सुरक्षित बनाये रखने के लिए सैन्यवाद और युद्ध की शरण में लौट रहा है।

सैन्यवाद की वापसी 

इसी प्रकार पूरब में, हम जापानी सैन्यवाद की बढती लहर को देख रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध में अपनी भयावह हार के बाद टोक्यो ने शांतिवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए युद्ध का वर्षों तक परित्याग कर रखा था, और बलप्रयोग सिर्फ  बाहरी आक्रमण की सूरत में जापानी मातृभूमि की रक्षा के लिए करने की कसम खाई थी – और कभी भी गैर-आक्रमणकारी दुश्मन के खिलाफ युद्ध न छेड़ने की प्रतिज्ञा ली थी। हालाँकि हाल के वर्षों में जापान के राजनीतिक नेतृत्व ने, विशेषकर प्रधान मंत्री शिंजो आबे ने देश को युद्ध के बाद के खोल से बाहर निकालने की भरपूर कोशिशें की हैं।

चीन के उदय ने आबे को अपने देश की शक्तियों के न्यूनतम विरोध के बीच रास्ता निकालने के लिए एक उपयोगी बहाना दे दिया है। आबे क़ानूनी उपायों के जरिये जापान को सहयोगियों की रक्षा हेतु आगे कदम बढ़ा रहे हैं, एक नई दमदार रक्षा योजना को मंजूरी दे दी गई है, और दो हफ्ते पहले जब वे पद-त्यागने को मजबूर कर दिए गए, उससे पहले तक वे जापान के युद्ध-त्याग करने वाले संविधान में फेरबदल करने के लिए अभियान चला रहे थे ताकि राष्ट्र के सशस्त्र बलों के पुनर्जीवन को औपचारिक जामा पहनाया जा सके।

जापान अब चुनौती मिलने की स्थिति में पहले से अधिक प्रभावी ढंग से अपनी मुख्य भूमि और अन्य सैकड़ों द्वीपों की रक्षा करने में सक्षम है। समुद्री क्षेत्र की वैश्विक निगरानी करने और कहीं भी शत्रु शक्ति का मुकाबला करने में भी यह सक्षम है। सैन्य साम्राज्य से शांतिवादी राष्ट्र और एक बार फिर से सैन्य-समर्थक राजनीतिक संस्कृति के इस विकासवादी बदलाव के कारण यह अमेरिका के बेहद सक्षम सहयोगी के तौर पर मददगार साबित हो सकता है। लेकिन वहीँ दूसरी ओर यह क्षेत्रीय तनाव को गंभीर तौर पर बढाने के साथ-साथ चीन और रूस के साथ युद्ध की संभावनाओं के भी द्वार खोलने में मददगार साबित हो सकता है। 

आधुनिक इतिहास पर नजर दौडाएं तो रूस पहले से ही दो बार सैन्यवादी जर्मनी का शिकार रहा है। इसके साथ ही रूस और चीन दोनों को ही ऐतिहासिक तौर पर जापानी सैन्य विचारधारा के हाथों भारी कीमत चुकानी पड़ी है। 1904 में जापान ने रूस के खिलाफ अचानक से हमला बोलते हुए युद्ध शुरू कर दिया था। इसी तरह कई वर्षों तक युद्ध और प्रच्छन्न शासन के बाद जाकर जापान ने आधिकारिक तौर पर 1910 में कोरियाई प्रायद्वीप पर कब्जा जमा लिया था। और 1932 में, जापान ने चीन में खुद के कठपुतली शासन को बिठा रखा था।

यह एक निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्य है कि जापान असामान्य तौर पर चीन के प्रति बेहद शक्तिशाली, अविश्वसनीय तौर पर महत्वाकांक्षी, और बेहद क्रूरतापूर्ण व्यवहार रखता था। अकेले चीन में छह सप्ताह के नरसंहार के दौरान, जिसे अब "नानकिंग के बलात्कार" के तौर पर जाना जाता है, के दौरान दो महीने से भी कम समय में जापानी सैनिकों ने तकरीबन 300000 चीनी आम जनों को मौत के घाट उतार दिया था और 80000 से भी ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना को अंजाम दिया था।

जर्मनी और जापान के मामले में आरंभिक स्तर पर ही इतिहास के दोहराव के संकेत मिलते हैं। जापान कई मायनों में जर्मनी में जो कुछ अभी तक सामने आया है, उसकी कार्बन कॉपी है। आबे के हाथ में जापान की अर्थव्यवस्था को ताबड़तोड़ गति से आगे बढाने का जिम्मा था, और साथ ही दूसरी ओर चीन पर विशेष ध्यान देते हुए उसका मुकाबला करने के लिए एक दमदार विदेश नीति भी तैयार करनी थी। प्रधानमंत्री के रूप में पद संभालने के कुछ ही महीनों के भीतर ही आबे ने एक इंटरव्यू में वॉल स्ट्रीट जर्नल को बताया था कि “मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि जापान को न सिर्फ आर्थिक मोर्चे पर अपनी नेतृत्वकारी क्षमता को प्रदर्शित करने की जरूरत है, बल्कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा के क्षेत्र में भी जापान से नेतृत्व की उम्मीद की जा रही है।"

दिसंबर 2018 में आबे ने एक नई 10-वर्षीय रक्षा योजना को जारी किया था, जिसमें अन्य चीजों के अतिरिक्त इज़ुमो हेलिकॉप्टर वाहक को एक विमान वाहक युद्धपोत के तौर पर परिवर्तित करने की बात शामिल थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से देश को इस तरह का यह पहला पोत दिया जाने वाला है, और अगले पांच वर्षों में सेल्फ डिफेंस फोर्सेज (सेना) पर लगभग 240 बिलियन डॉलर खर्च करने का लक्ष्य रखा गया है, जिसमें देश में रक्षा व्यय में निरंतर वृद्धि को जारी रखने के साथ पुराने फाइटर जेट की जगह पर नए लड़ाकू विमानों की खेप खरीदी जानी तय की गई है। इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि ये सारे साजो-सामान सिर्फ मेनलैंड की सुरक्षा के लिए ही नहीं लिए जा रहे हैं, बल्कि विदेशों में भी जापानी परियोजना को ताकत पहुंचाने में बढ़ोत्तरी करने वाले हैं।

हालांकि जर्मनी के विपरीत आबे के नेतृत्व के तहत जापानी जनता की राय उनके सैन्यीकरण की विरासत को परिभाषित करने वाली पहल को लेकर कहीं ज्यादा विभाजित और शायद कुछ हद तक अस्पष्ट है। आबे के दल को सत्ता में बने रहने के लिए एक अन्य दल कोमिटो के साथ सत्ता को साझा करना पड़ रहा है, और जहाँ तक केमिटो के आधार का प्रश्न है तो वह काफी हद तक शांतिप्रिय है। जापान के संविधान में परिवर्तन करने और देश को वैश्विक दृष्टि से एक क्षेत्रीय ताकत बनाने के लिए आबे की महत्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाने में केमियो की दुविधा एक बड़ी बाधा बन कर सामने आई है।

स्पष्ट तौर पर कहें तो आबे के नेतृत्व में रहते हुए जापान को यह भी लगता है कि वह खतरे में हैं, एक आसन्न खतरे के तौर पर उत्तर कोरिया और दीर्घकालिक चैलेंजर के तौर पर वह चीन से घिरा हुआ है। जापान के भीतर जापानी सेना सबसे सम्मानित संस्था मानी जाती है और जापानी समाज अब सैन्य विरोधी नहीं रहा, हालाँकि अभी भी युद्ध-विरोधी है। लेकिन प्रश्न यह है कि आबे के आसन्न निकासी के बावजूद, भविष्य का नेतृत्व जिसकी चाहत जापान में और अधिक पारंपरिक सेना की दिखती है, के पास इस दिशा में परिवर्तन के लिए भविष्य में जोर लगाने के लिए और अधिक राजनीतिक माहौल मिलने की संभावना है।

युद्ध के मैदान में सच्ची मित्रता 

रूस के खिलाफ पश्चिमी आक्रमण में बर्लिन एक प्रमुख भूमिका निभा रहा है और लिथुआनिया में नाटो युद्धसमूह का नेतृत्व करता है। रूस के खिलाफ नाटो द्वारा उठाये जाने वाले कदमों में जर्मनी और अमेरिका घनिष्ठ रूप से मिलकर काम कर रहे हैं। रूस के साथ पूर्वी यूरोपीय सीमा पर तैनात नाटो इकाइयों के लिए जर्मनी सबसे महत्वपूर्ण मंच के तौर पर बना हुआ है। और जर्मन मीडिया इस राय के साथ पूरी तरह से जोशोखरोश में है और कि अंततः नाटो की प्रतिबद्धता अब पूरी होनी चाहिए और उसका सैन्य खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत तक बढ़ा दिए जाने को मंजूरी मिल जानी चाहिए। (वर्तमान में यह जीडीपी के 1.38 प्रतिशत के बराबर है, हालांकि हाल के दिनों में इसने भारी पैमाने पर अपने सैन्य खर्चों में बढ़ोत्तरी की है और कई अरबों मूल्य की आयुध परियोजनाओं की योजना बना रहा है।)

जबकि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आबे ने कभी इस बात को नहीं छिपाया है कि उनका प्राथमिक उद्देश्य बीजिंग की बढ़ती आर्थिक और सैन्य प्रगति का मुकाबला करने का रहा है, जिसकी बदौलत वह अपनी छवि में क्षेत्र और दुनिया को नए आकार में देख सकता है। जापान का रूस और चीन दोनों के साथ ही क्षेत्रीय विवाद चलता आ रहा है। आबे के आलोचकों का तर्क है कि उनकी सैन्यवादी सोच के चलते जापानी सेना के लिए अन्य देशों के खिलाफ युद्ध का रास्ता खुल सकता है, और कुछ जापानी आलोचकों का तो उनके द्वारा शुरू किये गए कानून में बदलाव के प्रयास को "युद्ध कानून" के तौर पर भी नाम दिया गया और उन्हें जर्मनी के एडोल्फ हिटलर के रूप में चित्रित किया गया।

निश्चित तौर पर ऐसे मार्मिक पृष्ठभूमि के साथ इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 11 सितंबर को मॉस्को में जारी संयुक्त बयान में रूसी-चीनी गठबंधन के उद्येश्यों पर पारित होने वाले प्रस्तावों में सबसे शक्तिशाली प्रस्ताव उभरती हुई अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में उनके नाजीवाद और जापानी साम्राज्यवाद के खिलाफ ऐतिहासिक संघर्ष की याद दिलाते हुए दी गई है: 

“सोवियत संघ और चीन ने नाज़ीवाद और सैन्यवाद की सबसे बड़ी मार झेली है और आक्रमणकारियों की खिलाफत के सबसे भारी बोझ को ढोया है। इंसानी जान-माल के भारी नुकसान की कीमत पर उन्होंने कब्जा जमाने वालों को रोकने, परास्त करने नेस्तनाबूद करने वाले इस संघर्ष में अद्वितीय आत्म-बलिदान और देशभक्ति का परिचय दिया था। नई पीढ़ी उन लोगों के प्रति बेहद आभारी है जिन्होंने स्वतंत्रता और आजादी की खातिर अपने प्राणों की आहुति दे डाली और अच्छाई, न्याय और मानवता की जीत को सुनिश्चित करने का काम किया। अब एक नए युग के सूत्रपात के साथ वर्तमान रूस-चीन संबंधों में व्यापक साझेदारी और रणनीतिक सहयोग के दृष्टान्त के तौर पर द्वितीय विश्व युद्ध के मैदान में विकसित हुई सच्ची कामरेडशिप की एक शक्तिशाली, सकारात्मक विशेषता पहले से मौजूद है। सम्पूर्ण मानवता का यह पवित्र कर्तव्य है कि उस युद्ध के बारे में ऐतिहासिक सच्चाई को संरक्षित करने के काम को निभाये। रूस और चीन संयुक्त रूप से इतिहास को झूठा साबित करने, नाजियों, सैन्यवादियों और उनके गुर्गों को महिमामंडित करने के प्रयासों और विजेताओं को कलंकित करने जैसे सभी प्रयासों का डट कर मुकाबला करेंगे। हमारे मुल्क किसी को भी द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामों को संशोधित करने की इजाजत नहीं देंगे।”

वास्तव में देखें तो यूरोप और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ऐतिहासिक समरूपता एक बार फिर से वर्तमान हालात में गहराई से प्रतिध्वनित होती नजर आ रही है। जर्मन सरकार खुले तौर पर रूसी सरकार को विपक्षी राजनीतिज्ञ एलेक्सी नवालनी को ज़हर देने का आरोप लगा रही है, और रूस के उपर प्रतिबंध थोपने की धमकी दे रही है। रूस के प्रति जर्मनी की भाषा में नाटकीय रूप से बदलाव देखने को मिल रहा है। इसमें किसी भी प्रकार के अपराध-बोध के साथ संयमित व्यवहार की झलक नजर नहीं आती, कि इनके हाथ 2.5 करोड़ सोवियत नागरिकों के खून से सने हुए हैं। फिलहाल यह इस तरह से बात कर रहा है गोया यह पहले से ही मास्को के खिलाफ अगले सैन्य अभियान की योजना बना रहा हो।

और इन सबसे ऊपर, जैसा कि 1930 के दशक में पहले भी घटित हो चुका है, अन्य पश्चिमी शक्तियों ने रूस और चीन के प्रति अपने जुनून के चलते, न सिर्फ जर्मनी और जापान में बढ़ती सैन्यवादी प्रवित्ति के प्रति नजरें फेर ली हैं बल्कि वे चोरी-चोरी इसे प्रोत्साहित करने में लिप्त हैं।

सौजन्य: इंडियन पंचलाइन

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Sino-Russian Alliance Comes of Age – I

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