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विशेष: राष्ट्रीय विज्ञान दिवस और विज्ञान की कविता

आज राष्ट्रीय विज्ञान दिवस है और इतवार भी तो क्यों न आज ‘इतवार की कविता’ में विज्ञान से ही जुड़ी कविताओं के बारे में बात की जाए। ऐसा सोचते ही मुझे सबसे पहले चकबस्त याद आए।
राष्ट्रीय विज्ञान दिवस

आज राष्ट्रीय विज्ञान दिवस है, तो आज इतवार की कविता में विज्ञान से ही जुड़ी किसी कविता को पढ़ा जाना चाहिए। हालांकि कवि-शायर अपने कहन, अपनी रचना में अपनी कल्पना, अपने जज़्बात और एहसास से काम लेता है लेकिन कभी भी जीवन के सच और विज्ञान का निषेध नहीं करता। इसके उलट वह ज्ञान-विज्ञान के गूढ़ रहस्यों को बहुत आसान शब्दों और अर्थों में भी प्रकट कर देता है। कभी-कभी कोई एक दोहा, चौपाई या शेर एक सूत्र रूप में प्रकट हो जाता है। जैसे जीवन या जीवन गति या कहें कि शरीर विज्ञान को 19वीं सदी का शायर किस ख़बसूरती से एक शेर में समेट देता है। वह कहता है- 

ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब

मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परेशाँ होना

जी हां, यह बृज नारायण चकबस्त का मशहूर शेर है। 1882 में उत्तर प्रदेश, उस समय के संयुक्त प्रांत के फ़ैज़ाबाद में जन्मे चकबस्त इस एक शेर में पूरे जीवन या इस शरीर के बनने और बिगड़ने का वैज्ञानिक सार कह देते हैं।

अनासिर कहते हैं पंचतत्व को, ज़ुहूर-ए-तरतीब यानी सही से लगाये हुए और अज्ज़ा मतलब सामग्री।

चकबस्त इस शेर में कह रहे हैं कि तत्व  या पंचतत्व का एक सही क्रम में एकत्रित होना ही ज़िंदगी है और उन्हीं का बिखर जाना मृत्यु है।

इसी बात को और आसान भाषा में पाकिस्तान के नौजवान शायर अम्मार इक़बाल कुछ इस तरह कहने की कोशिश करते हैं-

यूँ बुनी हैं रगें, जिस्म की

एक नस, टस से मस, और बस

तो आपने देखा कि कविता का विज्ञान से बहुत गहरा नाता है। अभी हाल में ही हमें छोड़कर गए वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल अक्सर इस बात को दोहराते थे कि कवि, कभी भी विज्ञान का निषेध नहीं करता। विज्ञान के विरुद्ध नहीं जाता। इस सिलसिले में वे वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह के कथन का हवाला देते थे कि ‘कविता विज्ञान नहीं है, लेकिन विज्ञान का निषेध भी नहीं करती।’

इससे आप समझ सकते हैं कि कविता कोरी कल्पना या खाम ख़याली नहीं है, बल्कि कवि इस माध्यम से समाज के चिंतन और चेतना के स्तर को ऊपर उठाने का काम करता है।

इसी सिलसिले में मुझे याद आते है अपने ज़िले बिजनौर के मशहूर शायर निश्तर ख़ानक़ाही। उनके बारे में एक किस्सा है कि एक शेर में वे असावधानीवश कह देते हैं कि

तिश्नगी में दूर बहती झील भी अच्छी लगी

और बाद में ख़्याल आने पर वे अफ़सोस से भर जाते हैं और इसके लिए खेद जताते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि झील नहीं, नदी बहती है। झरना गिरता है और झील ठहरी होती है।

यानी बहर, रदीफ़, क़ाफ़िया हर ऐतबार से शेर पुख़्ता होने के बावजूद निश्तर साहब इस बात को लेकर अफ़सोस से भर जाते हैं कि उन्होंने एक स्थापित सत्य या तथ्य को ग़लत तरीके से बयान किया और फिर वे इस शेर को ही अपनी ग़ज़ल से ही हटा देते हैं क्योंकि वे वैज्ञानिक चेतना से लैस शायर थे।

उनका एक शेर देखिए...कैसे वैज्ञानिक तथ्य की तर्जुमानी कर रहा है-

सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?

पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है।

कभी कवि या शायर को कुछ बात तथ्य से परे भी कहनी होती है तो वो उसमें भी साफ़ कर देता है कि ये असंभव वह कैसे संभव कर रहा है, किस तर्क के आधार पर छूट ले रहा है। ओम प्रकाश नदीम का एक शेर पढ़िए-

प्यार की तकनीक नामुम्किन को मुम्किन कर गई

हम तुम्हारी छांव में थे, तुम हमारी छांव में

तो इस शेर में शायर साफ़ कर देता है कि वह किस तर्क के आधार पर छूट ले रहा है। और अगले ही शेर को पढ़िए तो आप जानेंगे कि वे स्थापित तथ्य को कितनी ख़बसूरती से शेर में पिरो रहे हैं-

आप हैं रोशन दिया और मैं अंधेरा हूं मगर

घूम फिर कर मैं रहूंगा आप ही की छांव में

नदीम साहब के इस शेर को भी देखिए। कैसे वैज्ञानिक सच्चाई बयां कर रहे हैं-

हर तरफ़ से मुझ पे डाली जा रही है रौशनी

क़द न बढ़ पाए तो साया ही बड़ा हो कुछ तो हो

उनका एक और शेर है-

ये मौका ही न देना राख का सौदा करे कोई

कभी जलने की नौबत आए तो काफूर हो जाना

 

मिर्ज़ा जवां बख़्त जहांदार के इस शेर को पढ़िए-

आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई

पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था

यहां पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था को आप व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति या उसके डीएनए के अर्थ में भी पढ़ और समझ सकते हैं।

इस तरह अगर कविताओं को ठीक से पढ़ें-समझें-सुलझाएं तो बहुत कविताओं के भावार्थ में बहुत सारे वैज्ञानिक तथ्य या सत्य मिल जाएंगे। जैसे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना रंग शीर्षक की कविता में लिखते हैं-

सुबह उठ कर देखा तो आकाश

लाल, पीले, सिंदूरी और गेरूए रंगों से रंग गया था

मजा आ गया, 'आकाश हिंदू हो गया है '

पड़ोसी ने चिल्लाकर कहा !

'अभी तो और मजा आएगा ' मैंने कहा

बारिश आने दीजिए

सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।

कुछ कविताओं में तो यह तथ्य-सत्य बिल्कुल सामने से ही नज़र आते हैं या वे लिखी या कही ही इन तथ्यों के आधार पर हैं। जैसे मैंने चकबस्त का जिक्र किया। 

पाकिस्तान के शायर ओसामा ज़ोरेज़ का यह शेर देखिए-

यूरेनियम से बढ़ता हुआ कैंसर अलग

और बारिशें न होने का मातम जुदा करें

इस सिलसिले में एक शेर मुझे अपना भी याद आता है। जैसा मैंने शुरू में बताया कि आज विज्ञान दिवस है। और राष्ट्रीय विज्ञान दिवस रमन प्रभाव की खोज के कारण मनाया जाता है। इस खोज की घोषणा भारतीय वैज्ञानिक सर चंद्रशेखर वेंकट रमन ने 28 फरवरी सन् 1928 को की थी। इसी खोज के लिये उन्हे 1930 में भौतिकी का नोबल पुरस्कार दिया गया था। साल 1930 में यह पुरस्कार ग्रहण करने वाले भारत ही नहीं बल्कि एशिया के वह पहले वैज्ञानिक थे।

तो रमन प्रभाव होता क्या है। रमन प्रभाव के अनुसार, जब कोई एकवर्णी प्रकाश द्रवों और ठोसों से होकर गुजरता है तो उसमें आपतित प्रकाश के साथ अत्यल्प तीव्रता का कुछ अन्य वर्णों का प्रकाश देखने में आता है।

इसी को मैंने (मुकुल सरल) भी एक शेर में बांधने की कोशिश की थी। शेर कुछ यूं हैं-

हम जो टूटे भी तो जीने के नए ढंग बने,

धूप को तोड़ के देखा तो सात रंग बने। 

तो कविता का विज्ञान हो या विज्ञान की कविता कुल मिलाकर मूल उद्देश्य वैज्ञानिक चेतना विकसित करना होना चाहिए ताकि जीवन उन्नत हो सके। विज्ञान के बिना विकास की राह में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। इसलिए चाहे कविता हो या राजनीति कभी विज्ञान का निषेध नहीं करना चाहिए। और न गलत धारणाओं और अंधविश्वासों को बढ़ावा देना चाहिए।

इसी को लेकर कवि काज़ी नज़रूल इस्लाम कहते हैं –

मनुष्य से घृणा करके

कौन लोग क़ुरान, वेद, बाइबिल चूम रहे हैं बेतहाशा

किताब और ग्रंथ छीन लो

जबरन उनसे

मनुष्य को मारकर ग्रंथ पूज रहा है

ढोंगियों का दल

सुनो मूर्खो, मनुष्य ही लाया है ग्रंथ

ग्रंथ नहीं लाया किसी मनुष्य को !

और इस कोरोना के दौर ने तो एक बार फिर सबको विज्ञान और विज्ञानियों की अहमियत का एहसास दिलाया है।

दैरो हरम हैं बंद, बंद मौजिज़े सभी

चुप अल्लाह  भगवान!, इत्तू सा वायरस!

और कवि और कविता को तो एक बार छूट दी भी जा सकती है, लेकिन राजनीति और राजनेता को तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि यही राजनीति या राजनेता देश-दुनिया का वर्तमान और भविष्य तय करते हैं। शायद यही वजह है कि हमारे संविधान में वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार की बात बहुत ज़ोर देकर कही गई है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51 ए (एच) साइंटिफिक टेंपर' के विकास और ज़रूरत को नागरिकों के बुनियादी कर्तव्य के रूप में रेखांकित करता है।

तो राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर वैज्ञानिक उपलब्धियां याद करने के साथ वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देने की बात प्रमुखता से होनी चाहिए। वह वैज्ञानिक चेतना जिसके लिए हाल के सालों में हमारे प्रसिद्ध तर्कवादी-विज्ञानी, लेखक नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे और एमएम कलबुर्गी शहीद कर दिए गए।

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