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स्पेशल रिपोर्ट: दिल्ली MCD चुनाव और कूड़े के पहाड़: दावे-वादे और हक़ीक़त

दिल्ली एमसीडी चुनावों में एक अहम मुद्दा दिल्ली में बने तीन कूड़े के पहाड़ हैं। गाजीपुर, भलस्वा के अलावा ओखला में बने इन कूड़े के पहाड़ों पर अक्सर एमसीडी की सत्ता में काबिज़ बीजेपी और दिल्ली सरकार चला रही आम आदमी पार्टी के बीच जमकर राजनैतिक छींटाकशी होती रहती है। इस खींचतान के बीच ग्राउंड ज़ीरो पर जाकर जनता की असली दिक़्क़तें न्यूज़क्लिक ने जानने की कोशिश की।
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दिल्ली एमसीडी चुनावों में एक अहम मुद्दा दिल्ली में बने तीन कूड़े के पहाड़ हैं। गाजीपुर, भलस्वा के अलावा ओखला में बने इन कूड़े के पहाड़ों पर अक्सर एमसीडी की सत्ता में काबिज़ बीजेपी और दिल्ली सरकार चला रही आम आदमी पार्टी के बीच जमकर राजनैतिक छींटाकशी होती रहती है। इस खींचतान के बीच ग्राउंड ज़ीरो पर जाकर जनता की असली दिक़्क़तें न्यूज़क्लिक ने जानने की कोशिश की।

ओखला के कूड़े के पहाड़ को दक्षिणी दिल्ली के नीले आसमान में काले धब्बे के तौर पर भी देखा जा सकता है। ये कूड़े का पहाड़ न सिर्फ जानलेवा बीमारियों का घर है बल्कि इससे निकलने वाली जहरीली गैसें भी हवा में घुलकर पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचान रही हैं। बरसात में कूड़े के रिसने से यहां का ग्राउंड वॉटर भी प्रभावित हो रहा है। ओखला में ये कूड़े का पहाड़ तकरीबन 50 मीटर ऊंचा है और इस वक्त यहां करीब 30 हजार मीट्रिक टन कूड़ा जमा है, जो यहां  रहने वाले वाले लोगों के लिए जान की आफत बना हुआ है।

बता दें कि दिल्ली एमसीडी चुनावों में एक अहम मुद्दा दिल्ली में बने तीन कूड़े के पहाड़ हैं। गाजीपुर, भलस्वा के अलावा ओखला में बने इस कूड़े के पहाड़ पर अक्सर एमसीडी की सत्ता में काबिज बीजेपी और आम आदमी पार्टी के नेतृत्व में चल रही दिल्ली सरकार के बीच जमकर राजनैतिक छींटाकशी होती रहती है। इस खींचतान के बीच जनता की असली दिक्कतें न्यूज़क्लिक ने जानने की कोशिश की।

लैंडफिल साइट से करीब 2 किलोमीटर दूर विश्वकर्मा कॉलोनी में रहने वाले समर खान की छत से ये कूड़े का पहाड़ साफ नज़र आता है। उनके मुताबिक इससे सबसे बड़ी समस्या बदबू की है, जो यहां रह रहे लोगों के नाक में हर वक्त दम किए हुए है। तेज़ हवा या बारिशमें इतनी दुर्गंध होती है कि न आप घर में रह सकते हैं और न बाहर। समर कहते हैं, “बारिश के मौसम में लोग यहां ज्यादा बीमार पड़ते हैं, गले में इंफेक्शन हो जाता है। इसके अलावा सांस लेने में भी थोड़ी दिक्कत महसूस होती है। इसलिए हम चाहते हैं कि कूड़े का ये पहाड़, जो यहां रहने वाले हर एक के लिए मुसीबत का पहाड़ है, यहां से जल्द से जल्द हट जाए।"

पुल प्रहलादपुर के निवासी अखिलेश रावत मेडिकल की शॉप चलाते हैं, जो ओखला लैंडफिल साइट से करीब डेढ़ किलोमीटर के दायरेमें है। अखिलेश के मुताबिक मॉनसून सीजन में उनकी दवाइयों की ब्रिकी बड़ जाती है, क्योंकि यहां उस समय ज्यादा लोगों के बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इसके अलावा यहां कूड़े के पहाड़ के बिल्कुल साथ में ही ईएसआईसी अस्पताल भी है, जहां बड़ी संख्या में मरीज़ अपने इलाज़ के लिए आते हैं और उन्हें इस गंदगी, बदबू का सामना करना पड़ता है।

अखिलेश बताते हैं, “जब बारिश होती है तो यहां ज्यादा जहरीली गैसों के बनने की संभावना होती है, जिससे आस-पास के डाउनस्लोप वाले इलाके जैसे तुगलकाबाद, विश्वकर्मा कॉलोनी, पुल प्रहलादपुर, लाल कुआं बुरी तरह प्रभावित होते हैं। बरसात के मौसम में डेंगू, वायरल बुख़ार और अन्य बीमारियों के केस यहां एकाएक बढ़ जाते हैं।इसके साथ ही ईएसआईसी अस्पताल, जो मल्टी स्पेशिएलीटी अस्पताल है, वहां दूर-दूर से लोग इलाज के लिए आते हैं और इस कूड़े की पहाड़ की बदबू को महसूस करते हैं।"

वैसे ये विडंबना ही है कि एक अस्पताल के बगल में सालों से ये कूड़े का पहाड़ खड़ा है और प्रशासन को इसकी सुध लेने तक का समय नहीं है। यहां आस-पास बेहद कम दूरी पर रिहायशी इलाके हैं, जो पहाड़ के चलते सड़क, पानी और स्वच्छ हवा की दिक्कतें झेल रहे हैं। यहां हर बार पार्टियां अलग-अलग वादे तो कर जाती हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही बयां करती है।

अरूणा लाल कुआं के पास रहती हैं और अपने ऑफिस आने-जाने के लिए ओखला वाली सड़क का इस्तेमाल करती हैं, जो कूड़े के इस ढेर से सटी है। वो बताती हैं कि बारिश के मौसम में सड़क पर कूड़ा बहकर जमा हो जाता है, पानी भर जाता है, जो न सिर्फ बदबू और बीमारियां देता है बल्कि यहां घंटों-घंटे लंबा सड़क जाम भी देखने को मिलता है। जो रास्ता आम दिनों में 10 से 15 में कट जाए, वो बरसात में घंटे लगा देता है।

अरूणा कहती हैं, "यहां बदबू के चलते न आप शाम को घूमने के लिए बाहर निकल सकते हैं और न किसी को अपने घर ही बुला सकते हैं। क्योंकि आपको नहीं पता कि कब अचानक कूड़े का ये ढेर बदबू करना शुरू कर दे। कई बार सांस लेने में दिक्कत महसूस होने लगती है, आप सड़क पर ज्यादा देर रूक जाएं, तो सिरदर्द होने लगता है। ऐसे में हर समय आपको अपने घरों में ही सारे खिड़की-दरवाज़ें बंद करके रहना पड़ता है।"

लक्ष्मी बताती हैं कि वो सालों से सुन रहीं हैं कि ये कूड़े का पहाड़ अब खत्म होगा, तब खत्म होगा। इससे बिजली बनेगी लेकिन अभी तक यहां के लोगों को इससे कोई फर्क नहीं समझ में नहीं आया और न ही इसका कोई निदान हुआ है। सब बस बोल के चले जाते हैं, लेकिन इसका हल कोई नहीं निकालता।

कमाल बाबर खान, जो बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा के पूर्व उपाध्यक्ष, रह चुके हैं वो खुद यहां के निवासी हैं, उन्होंने बताया कि बीजेपी की ओर से सांसद रमेश बिधूड़ी कई बार इसके लिए केजरीवाल को खत लिख चुके हैं, लेकिन उन्होंने हर बार अनसुना किया है। अब केंद्र सरकार की पहल पर अगले 18 महीने में बीजेपी इस कूड़े के पहाड़ का खात्मा कर देगी। इसके लिए नए प्लांट्स पर काम चल रहा है।

ध्यान रहे कि बीते 15 साल से एमसीडी में बीजेपी सत्ता में है और इस बात पर जब हमने कमाल बाबर से सवाल किया कि आखिर अब तक इस कूड़े का निदान क्यों नहीं हुआ और अब चुनावों से पहले कैसे इन प्लांट्स के काम में तेज़ी आ गई इस पर उन्होंने पूरा ठीकरा केजरीवाल सरकार पर फोड़ दिया।

उधर केजरीवाल सरकार इस पूरे कूड़े के पहाड़ को बीजेपी की नाकामी के तौर पर पेश कर रही है, क्योंकि बीते तीन कार्यकाल से बीजेपी यहां एमसीडी में सत्ता पर काबिज़ है। कई बार प्रेस कॉनफ्रेंस में विधायक आतिशी ने भी इसे दिल्ली की शर्म करार दिया है।

टाइमलाइन से बहुत पीछे है कूड़े का ही निस्तारण

गौर करें कि जनवरी 2021 में एनजीटी में हुई सुनवाई के दौरान एमसीडी ने कूड़े का पूरी तरह निस्तारण करने की टाइमलाइन तय की थी। इसके मुताबिक ओखला साइट से दिसंबर 2021 तक 25 प्रतिशत, सितंबर 2022 तक 50 प्रतिशत और मार्च 2023 तक 100 प्रतिशत कूड़ा हटाने का निर्देश है। लेकिन मार्च 2022 की रिपोर्ट बताती है कि ओखला लैंडफिल साइट से अभी तक केवल 23.63 प्रतिशत कूड़े का ही निस्तारण हो पाया है।

इससे पहले साल 2018 में इंटरनेशनल रिसर्च जर्नल करंट वर्ल्ड एनवायरनमेंट में दिल्ली में भलस्वा, गाजीपुर और ओखला लैंडफिलसाइट के आसपास रहने वाले लोगों पर एक सर्वे प्रकाशित हुआ। इसमें सामने आया कि तीनों लैंडफिल साइट के आसपास रहने वालेलोगों की औसत लंबाई और वजन घट गया है। इनकी हाइट कम और वजन सामान्य से 9 किलोग्राम से कम पाया गया। सर्वे केमुताबिक, लैंडफिल साइट के आसपास का पानी जहरीला हो गया है। इस पानी को 15 साल पीने पर कैंसर हो सकता है। 

लैंडफिल साइट्स ग्राउंड वॉटर को बना रहीं जहरीला

केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने इसी साल अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि लैंडफिल साइट्स ग्राउंड वॉटर को जहरीला बना रहीं हैं। कूड़े के पहाड़ों के आसपास के रिहाइशी इलाकों के ग्राउंड वॉटर में कैल्शियम कार्बोनेट, सल्फेट आयरन और मैग्नीशियम, क्लोराइड, नाइट्रेट, अमोनिया, फिनॉल, जिंक जैसे केमिकल्स मिले हैं, जो शरीर के लिए बेहद हानिकारक होते हैं। साइंस जर्नल लैंसेट की स्टडी भी बताती है कि लैंडफिल साइट के पास 5 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों को अस्थमा, टीबी, डायबिटीज और डिप्रेशन कीपरेशानी होने का ज्यादा खतरा रहता है।

ग़ाज़ीपुर से तक़रीबन 33 किलोमीटर दूर दिल्ली के दूसरे लैंडफिल भलस्वा के बगल में रहने वाली 35 वर्षीय रमा देवी बताती है उनका 4 वर्षीय बच्चा बीते कई महीनों से बीमार है। हालत इतनी खराब हो गई थी की बच्चे को कई महीनों तक अस्पताल मे रखना पड़ा। पिछले हफ्ते ही बच्चे को लेकर वापस आईं और अभी भी बच्चे की दवाई चल ही रही है। रमा देवी बताती हैं कि उनके बच्चे को गंदगी की वजह से सांस की बीमारी हो गई है। जबकि कूड़े के पहाड़ और जलजमाव की वजह से मच्छर भी बहुत हैं, जिससे कई बीमारियाँ हो रही हैं।

रमा देवी भलस्वा लैंडफिल साइट के बिल्कुल पास बसी श्रद्धानंद कॉलोनी में रहती हैं। वो और उनका परिवार के सदस्य प्रवासी मजदूर है। उन्होंने किसी तरह से पैसे जोड़कर यहाँ अपना घर बनाया है।

वह कहती हैं, "कूड़े के पहाड़ (लैंडफिल) की वजह से तो हम परेशान हैं ही लेकिन हमारे घरों के आस पास गंदगी से भारी जलजमाव है। उससे और अधिक दिक्कत बढ़ रही है। मेरा बच्चा बीमार हुआ है तब से लेकर अबतक लाखों रुपए लगा चुकी हूँ। दवाई बहुत महंगी है इसलिए मुझे कई लोगों से उधार भी लेना पड़ा है। ये सिर्फ एक रमा देवी की बात नहीं है ये इस इलाके मे कई ऐसे परिवार हैं जो अस्थमा, सांस लेने में तकलीफ गले में खराश और दूसरी गंभीर बीमारियों से ग्रसित हैं। यहां खासकर बुजुर्गों और बच्चों को भी कई गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।"

रमा देवी के पड़ोस मे ही रहने वाली पूनम की उम्र लगभग 45 वर्ष है। वो कहती हैं वो 20 साल से अधिक से यहाँ रह रही हैं लेकिन उनके हाल जस के तस हैं। पूनम बताती हैं, "इस पहाड़ मे गर्मी के समय कई बार अपने आप आग लग जाती है। जिससे जहरीला धुआँ निकलता है। उस समय सांस भी नहीं लिया जाता है।"

इस साल अप्रैल मे ही कूड़े के पहाड़ मे भयानक आग लग गई थी। जो कई दिनों तक चलती रही जिससे जहरीला धुआँ और गैस हवाओं मे घुला रहा। इसी तरह कई मौके रहे हैं जब इस पहाड़ मे आग लगी है।

बिल्कुल पहाड़ से लगे मकान मे रहने वाले श्री भगवान जिनकी उम्र लगभग 58 साल है और वो यहाँ 30 से अधिक सालों से रह रहे हैं। वो कहते हैं कि जब वो लोग यहाँ रहने आए थे तब ये लैंडफिल पूरी तरह समतल था लेकिन अब ये कुतबमीनार बनता जा रहा है। इस पहाड़ में कई लोगों के मोल लिए हुए जमीन और मकान समा गए हैं।

उन्होंने बीजेपी के उस दावे की भी हवा निकाल दी जिसमें वो पहाड़ की ऊंचाई को 10 से 15 मीटर तक करने की बात कर रही है। उसकी पोल खोलते हुए कहा, "ये सब सफेद झूठ है क्योंकि हाइवे के पास कुछ मशीनों को लगाया गया है और उधर कुछ कूड़ा कम किया है लेकिन बस्ती की तरफ से पहाड़ की ऊंचाई लगातार बढ़ रही है।” हालाँकि सरकारी आकड़ों की मानें तो भी दिल्ली नगर निगम शहर के 75 फीसदी कूड़े का निस्तारण कर पा रही है। ऐसे में कूड़े के पहाड़ की ऊंचाई कम होने की बात संदेह तो पैदा करती ही है।

जब हम इस कालोनी से आगे भलस्वा की जे जे बंगाली कालोनी पहुँचे जो कूड़े के पहाड़ से लगभग 1 किलोमीटर दूर है तो पूरे इलाके में सड़कों का बुरा हाल था। चारों तरफ कूड़ा और गंदगी का भयानक अंबार लगा था। कई जगह तो सड़क और नाले का अंतर ही मिट गया है। 54 वर्षीय मुन्ने यहाँ सन 2000 से रह रहे हैं। उन्होंने बताया, "जब हवा जलती है तब घरों मे बैठकर खाना नहीं खाया जाता है। बरसात के मौसम में जब पानी आता है और कूड़ा गीला होता तो इतनी बुरी बदबू होती है क्या बताएं!" उनके साथ रहने वाले इमरान कहते हैं, हालात इतने खराब हैं कि हमारे रिश्तेदार भी यहाँ आना पसंद नहीं करते हैं। हाल यह है कि हमे हमारे बच्चों की शादी भी गाँव जाकर करनी पड़ती है क्योंकि ये हाल देखकर कौन हमसे रिश्ता करेगा!"

बिहार के दरभंगा ज़िला से अपना इलाज कराने अपने रिश्तेदार के यहाँ आई वीणा देवी जो पिछले तीन सालों से बंगाली बस्ती मे रहती हैं, उन्होंने कहा, "हम गाँव से यह सोच कर आए कि राजधानी दिल्ली जा रहे हैं लेकिन यहाँ का हाल हमारे गाँव से भी बुरा है। ऐसा लगता है कि इससे साफ जगह में हमारे जानवर रहते हैं। पूरे इलाके में कूड़ा बदबू कीचड़ के अलावा कुछ नहीं है।"

इसी कॉलोनी मे रहने वाले 26 वर्षीय मुकेश बताते हैं, "हमने हर पार्टी को यहाँ की दुर्दशा के बारे में बताया है लेकिन कोई इधर ध्यान नहीं दे रहा है। आम आदमी पार्टी और केजरीवाल कूड़े के पहाड़ पर तो बोल रहे हैं लेकिन गलियों में जो सीवर और बड़े नालों का हाल है उसपर चुप हैं। इस कूड़े और गंदगी से पानी भी गंदा हो गया है। हमें नहाने के लिए भी 20 रुपए देकर बाल्टी का पानी लेना पड़ता है क्योंकि अगर हम नल के पानी से नहाएं तो चर्म रोग हो जाता है।”

बिना वैज्ञानिक तरीक़े के, संभव नहीं समाधान

दिल्ली की रोज़ बदतर होती पर्यावरणीय हालत पर पर्यावरणविदों का मानना है कि कूड़े से निपटने के लिए दिल्ली नगर निगम ने कभी भी दूरदर्शिता नहीं दिखायी। दिल्ली साइंस फोरम से जुड़े डी रघुनंदन बताते हैं कि लैंडफिल की जगह को आम तौर पर शहर के बाहर रखा जाता रहा है लेकिन जब शहर फैला तो ये इसकी सीमा के अंदर आ गए। आबादी के बढ़ने के कारण इन लैंडफ़िलों पर दबाव भी कई गुना बढ़ गया। 

वे बताते हैं,” अगर हम रोज़ पैदा होते कूड़े को देखें तो हम पाते हैं कि ये तीनों लैंडफिल दिल्ली को इसके कूड़े से निजात नहीं दिला सकते। सही मायनों में लैंडफिल का डिज़ाइन ही ग़लत है। आम तौर पर कूड़े को स्रोत पर अलग अलग कर दिया जाता है जैसे सूखाकूड़ा अलग और गीला कूड़ा अलग। इसके बाद सूखा कूड़ा निस्तारित कर दिया जाता है और गीले कूड़े को वैज्ञानिक लैंडफिल में डाला जाता है। यह पूरे तौर पर ढका होता है और पाइपों की मदद से पैदा होने वाली मीथेन और लीचट को अलग अलग किया जाता है। दिल्ली के संदर्भ में किसी भी नियम को माना नहीं जा रहा है। जब हम लंदन और न्यूयॉर्क जाते हैं तो हमें ऐसे पहाड़ नहीं दिखाई देते जबकि ये शहर दिल्ली से कई गुना बड़े हैं। ज़ाहिर तौर पर हमें बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है। हम केरल के उदाहरण से भी सीख सकते हैं जहां पंचायतों को साथ में लेकर सरकारों ने सकारात्मक पहल की। इन्हें विंड रो कहा है। इसके तहत गाँव से दूर गीले कूड़े को ढककर रखा जाता है। जब यह खाद बन जाता है तो इसे खेतों में इस्तेमाल कर लिया जाता है।” 

रघुनन्दन बताते हैं कि राजनैतिक छींटाकशी के बीच जो समाधान सुझाए जा रहे हैं वो पूरी तरह से अवैज्ञानिक हैं। वह कहते हैं, "आम आदमी पार्टीकह रही है कि वो कूड़े से बिजली बनाने वाले संयंत्र लगाएगी जबकि ये बात स्पष्ट है कि आग लगाने से ख़तरनाक गैसें पैदा होंगी। ओखला और उसके आस पास रिहायशी इलाक़ों में रहने वाले लोग तमाम अदालतों के चक्कर लगाकर परेशान हैं कि राख उड़कर उनके घरों में पहुँच रही है और उन्हें बीमार कर रही है। इसलिए ये बेहद ज़रूरी है कि सरकारें तय करें कि कितना कूड़ा पैदा हो रहा है और इसका निस्तारण कैसे करना है। किसी भी पार्टी के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है।”

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