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भारत में छात्र और युवा गंभीर राजकीय दमन का सामना कर रहे हैं 

राज्य के पास छात्रों और युवाओं के लिए शिक्षा और नौकरियों के संबंध में देने के लिए कुछ भी नहीं हैं। ऊपर से, अगर छात्र इसका विरोध करने के लिए लामबंद होते हैं, तो उन्हें आक्रामक राजनीतिक बदले की कार्रवाई और पुलिसिया अत्याचारों का सामना करना पड़ता है।
Repression

हाल के वर्षों में देश भर में छात्रों और नौजवानों की विरोध की आवाजों को लगातार दमन का शिकार होना पड़ रहा है। ये विरोध की आवाजें युवाओं के बीच में बड़े पैमाने पर बढ़ती बेरोजगारी, कई छात्रों के लिए शिक्षा पाने के अवसरों से बहिष्कृत करने एवं भगवाकरण के एजेंडे के तहत शिक्षा की एक विनाशकारी प्रणाली के पैदा होने की पृष्ठभूमि के चलते उत्पन्न हो रहा है।

महामारी के दौरान पेश की गई नई शिक्षा नीति (एनईपी) में शिक्षा के अधिकार (आरटीई) को मान्यता नहीं देने का प्रयास किया गया है। शिक्षा के सार्वभौमिकरण के उद्देश्य पर ही एनईपी के तहत हमला किया जा रहा है, जिसमें मुख्य धुरी के रूप में निजीकरण है। बड़ी संख्या में कॉलेजों को प्रतिबंधित किया जा रहा है; और इसके अलावा, सरकार के द्वारा शिक्षा पर खर्च में कटौती की जा रही है और मुनाफाखोरी की मंशा ने छात्रों की शैक्षणिक संसाधनों तक पहुँच को पहले ही काफी हद तक सीमित कर दिया है।

पाठ्यक्रम के भगवाकरण, सांप्रदायिक हमले एवं नफरती भाषणों ने शैक्षणिक परिसरों में अपनी घुसपैठ बना ली है, और छात्रों को इसमें प्रमुख रूप से लक्षित किया जा रहा है। उदहारण के लिए अभी हाल ही में रामनवमी के दौरान मांसाहारी भोजन को लेकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रावास में छात्रों पर हुए हमले परिसरों में व्याप्त विषाक्त वातावरण को स्पष्ट रूप से बयां कर रहे हैं।

महामारी आने से पूर्व ही बेरोजगारी की दर देश में 40 वर्षों के अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच गई थी। कोविड-19 के चलते लगाये गए लॉकडाउन ने रोजगार की स्थिति को और भी बदतर बनाने में अपना योगदान दिया। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के द्वारा जारी किये गये आंकड़ों के मुताबिक, भारत में वर्ष 2021 में स्नातकों के बीच में बेरोजगारी की दर 19.4% के साथ सबसे अधिक थी। बजटीय आंकड़े यह भी बयां करते हैं कि सिर्फ 26% स्नातकों को ही नौकरी पर रखा गया है। 2022 की पहली तिमाही तक युवाओं के बीच में बेरोजगारी की दर 26% है। नौकरियों के लिहाज से देखें तो, छात्रों और नौजवानों का भविष्य लगातार अंधकारमय और अनिश्चित होता जा रहा है।

शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय में लगातार हो रही गिरावट के चलते यह स्थिति और भी अधिक बिगड़ रही है, जिसके चलते कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में बुनियादी ढांचे का भारी अभाव होता जा रहा है। एनईपी ने अपने शुरूआती मसौदे में हजारों शिक्षकों, छात्रों और नागरिक समाज के संगठनों के द्वारा बताई गई तमाम कमियों को दूर करने पर शायद ही कोई कोशिश है। 

वर्तमान में 65% से अधिक आबादी 35 साल से कम उम्र की है। छात्र और युवा लोग ही, सामान्य तौर पर भारत के भविष्य को आकार देंगे। भारत सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में शिक्षा में सार्वजनिक निवेश  में बढोत्तरी एवं युवाओं के लिए रोजगार को उपलब्ध कराना होना चाहिए। लेकिन, क्रोनी पूंजीवाद के हितों को ध्यान में रखते हुए, अल्पकालिक निजी लाभ के लिए इन उपायों की सरासर अनदेखी की जा रही है। 

शैक्षणिक संस्थानों में विकट स्थिति को छात्रों और युवाओं पर अभूतपूर्व पैमाने पर पुलिस अत्याचारों और राज्य-प्रयोजित हिंसा में भी देखा जा सकता है। हाल के वर्षों में, छात्रों के विरोध प्रदर्शन को क्रूर बल के साथ निपटा गया है। ये घटनाएं, वो चाहे 2016 में हैदराबाद में, रोहित वेमुला की उकसाने वाली आत्महत्या रही हो या 2022 में पश्चिम बंगाल में अनीस खान की हत्या का मामला हो, यह प्रवृति उपर की ओर ही बनी हुई है।

वेमुला ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था, “मेरा जन्म एक घातक दुर्घटना है।” क्या इस देश में एक दलित छात्र का जन्म एक दुर्घटना है? क्या सभी वंचित भारतीय युवाओं का जन्म दुर्घटना है?  क्या उनका जन्म नहीं होना चाहिए था? यह भारतीय राज्य के द्वारा दलित घृणा की एक घटना थी, जिसका नकाब भारतीय संविधान के बनने और अपनाए जाने के लंबे अर्से बाद बेनकाब हुआ है। इसके इस स्वरुप की कभी भी कल्पना नहीं की गई थी।

इस घटना के बाद हैदराबाद विश्वविद्यालय एवं अन्य प्रमुख विश्वविद्यालयों में शिक्षकों और छात्रों के द्वारा धरने और विरोध प्रदर्शन किए गए थे।

एक घटना में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, चेन्नई में छात्रों के एक समूह, अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध ने देश भर में विरोध प्रदर्शनों को भड़का दिया, जिसे दमन का सामना करना पड़ा। हिंदुत्व की महक के साथ सांठगाँठ वाली क्रोनी पूंजीवाद की आक्रामकता के इस दौर में भारतीय छात्र अपनी  ऐतिहासिक भूमिका को निभा रहे हैं। 

2017 में, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, (बीएचयू) में सैकड़ों की संख्या में छात्राओं ने एक छात्रा के साथ छेड़छाड़ की घटना के बाद विरोध प्रदर्शन किया और परिसर के भीतर सुरक्षा मुहैया कराये जाने की मांग की थी। लेकिन बदले में उन्हें पुलिस लाठीचार्ज का सामना करना पड़ा था। इन सभी मामलों में, प्रदर्शनकारियों को “राष्ट्र-विरोधी” करार दिया गया।

स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ (एसएफआई) की एक छात्र नेता दिप्शिता धर के मुताबिक, “सांस्थानिक उत्पीड़न और भेदभाव के खिलाफ़ छात्रों का आंदोलन अखिल भारतीय स्तर का बन गया। राज्य के द्वारा आवाजों को खामोश करने के लिए हमेशा पुलिस बल का प्रयोग किया जा रहा है। लेकिन आंदोलन ने देश के अधिकांश राज्यों में मजबूती हासिल कर ली है।” 

धर ने 2015 में छात्रों के एकताबद्ध आंदोलन का भी जिक्र किया, जिसमें आक्युपाई-यूजीसी आंदोलन में शिक्षा के सार्वजनिक वित्तपोषण पर तब सवाल उठाया जब सरकार ने गैर-नेट रिसर्च फेलो को फेलोशिप देना बंद कर दिया था। जहाँ एक तरफ यूजीसी ने अपने मेम्बरान की सिटिंग फीस बढ़ा दी, वहीँ दूसरी तरफ फण्ड के संकट को छात्रों के कंधों पर डाल दिया। यह एक ऐसी घटना थी, जिसमें छात्रों ने शिक्षा के व्यावसायीकरण एवं निजीकरण के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन की श्रृंखला की शुरुआत कर दी थी।

फरवरी 2016 में आत्महत्या के कारण वेमूला की हुई मौत के कुछ सप्ताह बाद ही, कन्हैया कुमार और उमर खालिद सहित जेएनयू के कई छात्रों के ऊपर देशद्रोह का आरोप लगा दिया गया। नारों में ‘आजादी’ शब्द का इस्तेमाल करने पर आपत्ति जताने वाली पालतू मीडिया की मदद से सरकार ने छात्रों पर दोगुने वेग से प्रहार करना शुरू कर दिया था। जिसका नतीजा यह हुआ कि ‘जेएनयू बचाओ’ आंदोलन को देश भर के परिसरों में व्यापक समर्थन हासिल हुआ।

पांडिचेरी विश्विद्यालय (पीयू) के परिचय के साथ धर ने छात्र आंदोलन के द्वारा उठाए गए मुद्दों के इर्दगिर्द वामपंथी राजनीति को मजबूत किये जाने के बारे में बात की।

पीयू के छात्र 2020 में फीस वृद्धि के खिलाफ़ विरोध कर रहे थे। यह।शिक्षा के व्व्यावसायीकरण के खिलाफ़ एक आंदोलन था। ठीक उसी दौरान, जेएनयू और अम्बेडकर विश्वविद्यालय के छात्र भी फीस वृद्धि के खिलाफ़ आंदोलनरत थे। जेएनयू और पीयू दोनों में, छात्रों को निष्कासित करने और निलंबनजैसे दंडात्मक उपायों का सामना करना पड़ा था। जेएनयू में, दमन अपने चरम पर था, क्योंकि कथित एबीवीपी के गुंडों के द्वारा प्रदर्शनकारी छात्रों पर हमला किया गया, जिसमें तत्कालीन जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्षा आइशी घोष को बेरहमी से घायल कर दिया गया था। 

परिचय का इस बारे में कहना था, “ये सभी मुद्दे भारत में सार्वजनिक शिक्षा के व्यावसायीकरण और निगमीकरण की ओर इशारा करते हैं। सभी परिसरों में छात्र लगभग इसी प्रकार की मांगों को लेकर विरोध कर रहे थे।” उन्होंने आगे विस्तार से बताया, “देश में प्रत्येक छात्र को सार्वजनिक शिक्षा पाने का अधिकार है,  और इस अधिकार से इनकार करने का हर हाल में विरोध किया जायेगा।’

इन आंदोलनों में शामिल कई छात्र कार्यकर्ताओं को राज्य के द्वारा कैद में रखा गया है, जिनमें से कुछ को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोपों का सामना करना पड़ रहा है। पिंजरा तोड़ संगठन की छात्र कार्यकर्ता देवांगना कलिता और नताशा नरवाल को 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों के मामले में गिरफ्तार किया गया था। कई महीनों तक जेल में बिताने के बाद 2021 में जाकर उन्हें जमानत मिली।

2019 में, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्रों के द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ किये जा रहे विरोध प्रदर्शन पर क्रूर पुलिस बल का प्रयोग किया गया, जिसमे इस प्रक्रिया में कई लोग घायल हो गए थे। इसके फौरन बाद, देश भर के परिसरों में सीएए और एनआरसी विरोधी छात्र आंदोलनों का सिलसिला शुरू हो गया था। कई स्थानों पर तो पुलिसिया कार्रवाई का स्तर अभूतपूर्व स्तर पर देखने को मिला।

एक हालिया मामले में, पश्चिम बंगाल में अल्लाह विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता अनीस खान की फरवरी 2022 में कथित तौर पर पुलिस की मिलीभगत से उनके घर पर हत्या कर दी गई थी। राज्य में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सरकार अभी तक इस मामले की जांच को पूरा नहीं कर पाई है। अनीस खान, जिन्होंने स्थानीय गुंडों से धमकी मिलने का आरोप लगाते हुए पुलिस संरक्षण की मांग की थी, को उनके घर में पीटा गया, और गंभीर चोटों के साथ उन्हें उनके तिमंजिला घर से नीचे फेंके जाने के बाद उनकी मौत हो गई थी। अनीस खान के पिता सालेम खान ने बाद में बताया कि उक्त घटना में शामिल चार लोगों में से एक ने पुलिस की वर्दी पहन रखी थी।

पश्चिम बंगाल में 2021 में कोलकाता में रोजगार की मांग कर रहे छात्रों और युवाओं के एक जुलूस के खिलाफ़ पुलिस ने भीषण बर्बरता का परिचय दिया था। इस पुलिसिया कार्यवाई में एक छात्र, मोइदुल मिद्या  की मौत हो गई। परिसर का माहौल प्रतिशोधी हो गया है, और छात्र इसके प्राथमिक शिकार हैं।

राज्य के पास छात्रों और नौजवानों को शिक्षा और नौकरी के संबंध में देने के लिए कुछ भी नहीं है।और उर से, जब कभी भी छात्र इसके खिलाफ विरोध करने के लिए लामबंद होते हैं, तो उन्हें आक्रामक राजनीतिक बदले की भावना और पुलिसिया अत्याचारों का सामना करना पड़ता है।

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग की  प्रोफेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Students and Youth in India are Under Severe State Repression

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