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“बाहर निकलो डरना छोड़ो...ज़िंदा हो तो मरना छोड़ो”

‘इतवार की कविता’ में आज पढ़ते हैं हमारे दौर के अहम शायर अशोक रावत की दो ग़ज़लें।
Shaheen Bagh

ग़ज़ल

1.

बाहर निकलो डरना छोड़ो,
ज़िंदा हो तो मरना छोड़ो.

 

बात हमारी सुननी होगी,
कैसे अनशन धरना छोड़ो.

 

या तो साथ निभाओ दिल से,
नाटक करना वरना छोड़ो.

 

लड़ना सीखो इस दुनिया से,
छुप कर आहें भरना छोड़ो.

 

हिम्मत से माँगो हक़ अपना,
रोना और बिफरना छोड़ो.

 

पूंछ हिलानादाँत दिखाना,
जी-जीसर-सर करना छोड़ो.

 

सच्चाई से निपटो पहले,
सजना और सँवरना छोड़ो.

 

तुमको अच्छी लगती होंगी,
झूठी बातें करना छोड़ो.
 

2.

वतन के नाम पर नफ़रत का कारोबार करते हैं,
हम उनका साथ देने से खुला इनकार करते हैं.

 

जहाँ ग़लती करोगे तुम वहाँ उंगली उठाएंगे,
जहाँ ग़लती हुई हमसे उसे स्वीकार करते हैं.

 

उसे ही तोड़ने की बात क्यों करते हैं आख़िर लोग,
बड़ी मुश्किल से तो एक पुल को हम तैयार करते हैं.

 

नहीं डरते वो दुश्मन से भी जिनमें वाकई दम है,
जो कायर हैं वो छुप कर दोस्तों पर वार करते हैं.

 

अभी हालात इतने भी नहीं बिगड़े कि मुश्किल हो,
चलो एक अम्न का माहौल फिर तैयार करते हैं.

 

यही महसूस होता है कोई अपना ही हो जैसे,
किसी का थामकर कंधा सड़क जब पार करते हैं.

 

किसी के पास काँटे भी नहीं जाते कभी चुभने,
न सुंदर फूल अपनी गंध का व्यापार करते हैं.

 

उन्हें भी खिड़कियों जितनी उजालों से मुहब्बत है,
अँधेरों की हिमायत कब दरो-दीवार करते हैं.

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