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कोई तो काग़ज़ होगा…!

इतवार की कविता : ना कोई साया/ ना छावज होगा/ पर कोई तो काग़ज़ होगा!
shaheen bagh
साभार : सोशल मीडिया

CAA-NPR-NRC को लेकर आज पूरा देश आंदोलित है। ऐसे में कवि/शायर कैसे चुप रह सकता है। ऐसे समय के लिए ही जर्मनी के कवि बर्तोल्त ब्रेख्त ने कहा था : "क्या ज़ुल्मतों के दौर में भी गीत गाये जायेंगें/ हाँ ज़ुल्मतों के दौर के ही गीत गाये जायेंगे"। इसी कड़ी में दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज के शिक्षक सौम्य मालवीय ने 'कोई तो काग़ज़ होगा' शीर्षक से कविता लिखी है। आइए पढ़ते हैं उनकी यह कविता-

कोई तो काग़ज़ होगा

ना रोटी ना कथरी होगी
और गिरस्ती बिखरी होगी
ठनठन होंगे बर्तन भांडे
साँस साँस साँसत में होगी
ना कोई साया,
ना छावज होगा
पर कोई तो काग़ज़ होगा!


कौन मुलुक है
कहाँ जनम है
किस मिट्टी का दीन-धरम है
बरसों बीते होंगे यां पे
इनकी गिनती कहाँ रक़म है
कहता फिरता देसी हूँ मैं
उनको लगता
जारज होगा
कोई तो काग़ज़ होगा


पाण्डुरंग से बच्चे तेरे
औ' मरियम सी एक बीवी है
चर्खे-पीर से वालिद हैं तो
अम्मी ज़ैनब की पीरी है
होगा पा-ए-क़ैस का छाला
तंगहाल सा एक गुवाला
पुरइन-पात-पखावज होगा
पर कोई तो काग़ज़ होगा


बुर्ज और बारादरियों में
जो नहीं रहीं उन बाबरियों में
क्या कोई दुआ तेरी बाकी है?
उम्मीदों के इस मक़तल में
क्या ख़्वाबों का इक घर बाकी है?
बे-दस्तावेजी जीता आया
अब क्या पसे मुर्दन
दो ग़ज़ होगा?
कोई तो काग़ज़ होगा?


जल-जंगल-ज़मीन तेरे थे
मोमिन और मतीन तेरे थे
हर पैमाइश से बच जाएं
ऐसे सब यक़ीन तेरे थे
आदिवास के दावे होंगे
अबसे चौपट नगरी मरकज़ होगा,
कोई तो काग़ज़ होगा?


सरहद-सरहद के खेलों में
कबीर-ओ-सरमद की बातें कैसी?
राष्ट्रवाद के जमे नगर में
चलती दुनिया की ऐसी-तैसी
बसना और उखड़ना छोड़ो
मिलना और बिछड़ना छोड़ो
तक़सीमों के इस मौसम में
ये सहरा है अपना छोड़ो
जो इंसां का मुज़रिम होगा
वो ही इंसां का जज होगा
कोई तो काग़ज़ होगा।

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