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तमिलनाडु चुनाव: लोकलुभावन वादे नाकाफ़ी, घटती महिला कार्यबल से निपटने की ज़रूरत

ढेर सारी योजनाएं समाज में महिलाओं की यथास्थिति को  सुदृढ़ बनाएं रखीं हैं। महिला श्रमशक्ति की भागीदारी की दर में तेज गिरावट ने भी यथास्थिति को मजबूत करने का काम किया है, जिसके चलते ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को घरों की चारदीवारी के भीतर धकेली जा रही हैं।
तमिलनाडु
प्रतीकात्मक तस्वीर।

द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (डीएमके) और आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (एआईडीएमके) - इन दोनों ही दलों के चुनावी अभियानों में महिला-केंद्रित कल्याणकारी योजनाओं के वादे बेहद महत्वपूर्ण रहे हैं। इन दोनों ही पार्टियों ने पिछले पांच दशकों से तमिलनाडु में बारी-बारी से अपना शासन चलाया है। इन चुनावी घोषणापत्रों में महिलाओं के घरेलू काम-काज पर मासिक भुगतान का वादा, हर राशनकार्ड धारक के लिए वाशिंग मशीन और प्रत्येक परिवार को हर साल छह गैस सिलिंडर देने का वादा किया गया है।

इन योजनाओं को हासिल कर पाने में आने वाली अड़चनों के अलावा इन तथाकथित ‘फ्रीबीज’ को महिलाओं के बोझ को कम करने वाला बताया जाता है। हालाँकि इनके जरिये महिलाओं की समाज में यथास्थिति को बनाये रखने का काम भी होता है। महिला श्रम शक्ति में भागीदारी में तीव्र गिरावट ने भी यथास्थिति को मजबूत बनाये रखने, और महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा घरों की चारदीवारी के भीतर धकेलने का काम किया है।

इस साल के चुनाव कोरोना वायरस महामारी से उपजे विनाशकारी आर्थिक प्रभाव के बाद होने जा रहे हैं। महिलाओं के लिए यह देखना अहम होगा कि अन्नाद्रमुक सरकार किस प्रकार से इस संकट से निपटी, और आने वाले दिनों में राजनीतिक दलों की ओर से क्या वादे किये जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले भी बढ़े हैं। यह बेहद शर्म की बात है कि तमिलनाडु ने निर्भया फण्ड से आवंटित 177 करोड़ रूपये में से सिर्फ 28.75 करोड़ रूपये को ही इस्तेमाल में लाया है। 

तमिलनाडु की कुल 6.10 करोड़ मतदाता आबादी में से महिलाओं की मतदाता संख्या पुरुषों की तुलना में दस लाख से अधिक की संख्या में बनी हुई है।

कार्यबल से निकाल बाहर किया गया 

निवर्तमान अन्नाद्रमुक और विपक्षी डीएमके दोनों ने ही सत्ता में आने पर ‘गृहणियों’ के लिए एक तयशुदा मासिक राशि देने का वादा किया है। यह एक स्वागत योग्य कदम है कि बड़े दलों ने घरेलू कामकाज को भी काम के तौर पर पहचान देने की शुरुआत की है। हालाँकि शिक्षा और रोजगार के माध्यम से महिलाओं का सशक्तीकरण करने के बजाय घरेलू काम को किसी महिला के काम के तौर पर स्थापित करने पर इसकी आलोचना भी हो रही है। 

महिलाओं की देखभाल के काम में किये जाने वाले भुगतान को राज्य और देश भर में महिला श्रम शक्ति की भागीदारी (एफएलएफपी) दर में निरंतर गिरावट की पृष्ठभूमि में देखने की जरूरत है। यह 2001 में तमिलनाडु में 31.80% से घटकर लगभग 25%, और सारे देश में 1993 के 28.6% से गिरकर 2017-18 में 16.5% के चिंताजनक स्तर पहुँच चुकी थी। ऐसा कहा जा रहा है कि महामारी के दौरान यह इस संख्या में और भी गिरावट आई है।

तमिलनाडु में महिलाओं के बीच रोजगार की दर में गिरावट के विपरीत साक्षरता दर में गुणात्मक सुधार देखने को मिला है। 2001 के 64% की तुलना में 2011 में यह बढ़कर 73% तक पहुँच चुकी थी। लेकिन महिला साक्षरता की दर में बढ़ोत्तरी के बावजूद महिला कार्यबल की भागीदारी में गिरावट आई है। इसका अर्थ यह हुआ कि तमिलनाडु में भारी संख्या में ऐसी महिलाएं हैं जो साक्षर और पढ़ी-लिखी तो हैं, लेकिन उनके पास रोजगार नहीं है और मुख्य रूप से वे बच्चों को बड़ा करने, बुजुर्गों की देखभाल करने  से लेकर घरेलू काम-काज में व्यस्त हैं। 

आल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन (एआईडीडब्ल्यूए) की राष्ट्रीय नेत्री, यू. वासुकी ने न्यूज़क्लिक को बताया: “हमारा मानना है कि महिलाओं के काम को मान्यता दी जाए और उनके बोझ को कम किया जाए। संयुक्त राष्ट्र ने इस बात को स्वीकार किया है कि महिलाओं के घरेलू काम-काज के मूल्य को निर्धारित नहीं किया गया है। “उरिमाई थोगाई” (अधिकारों को मान्यता देने वाली राशि) को मुहैया कराने के जरिये उनके काम को कम से कम मान्यता दी जाएगी, हालांकि उसे पूरे तौर पर नहीं चुकाया जा सकता है। दूसरा, महिलाओं के घरेलू कामकाज के बोझ को कम करना होगा। इसके लिए उन्हें खुद से आगे बढ़कर सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों जैसे अन्य माध्यमों में खुद को शामिल करना होगा, या यहाँ तक कि मनोरंजन के मकसद से घर से बाहर कदम निकालना होगा।” उन्होंने आगे कहा “क्रांति के बाद, सोवियत संघ ने महिलाओं के घरेलू कामकाज में सचेतन प्रयासों के जरिये कमी लाई, और इस से महिलाओं का सशक्तिकरण हुआ।

कोविड-19 महामारी से संघर्ष 

असंगठित क्षेत्र 

तमिलनाडु में कुल महिला आबादी में से एक चौथाई से भी कम महिलाओं की श्रमशक्ति में भागीदारी होती है। इनमें से ज्यादातर महिलाएं असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं। देश में महिला कर्मियों का (94.50%) हिस्सा असंगठित क्षेत्र में कार्यरत ह जो पुरुष श्रमिकों की तुलना में कहीं ज्यादा है। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण यह क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित था।

नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इंडियन वीमेन की राज्य सचिव, जी. मंजुला का कहना था “कोरोना महामारी की मार का खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ा और वे आज भी इसके दंश को झेल रही हैं। अड़ोस-पड़ोस के फूल विक्रेताओं, मछली स्टाल मालिक, सब्जी विक्रेता, इडली की दुकानों...इन सभी को महिलाओं द्वारा संचालित किया जाता है, और आज उन्हें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।” 

मनरेगा 

जहाँ एक ओर तमिलनाडु में श्रमशक्ति में इनकी भागीदारी में तेज गिरावट देखने को मिली है, लेकिन मनरेगा श्रमिकों के तौर पर कार्यरत महिलाओं की भागीदारी लगभग 85% तक है। इस योजना की रुपरेखा और मजदूरी की दर महिलाओं की भागीदारी को महत्वपूर्ण तरीके से प्रोत्साहित करती है। मार्च 2020 में जब तालाबंदी प्रभाव में आई थी, तो अकेले डेल्टा जिलों में इस योजना के तहत करीब 40,000 श्रमिक कार्यरत थे। 

आल वीमेन फेडरेशन (एडब्ल्यूएफ) के तौर पर तमिलनाडु में लगभग 40 महिलाओं के संगठनों का एक छतरी निकाय है, जिसकी ओर से न्यूनतम मजदूरी की दर को 263 रूपये प्रतिदिन से बढ़ाकर 400 रूपये तक करने और कार्य दिवस की संख्या को प्रति वर्ष 100 से बढ़ाकर 200 दिनों तक किये जाने की मांग की जाती रही है। इसके द्वारा शहरी इलाकों में भी इसी प्रकार के रोजगार गारंटी को सुनिश्चित करने के लिए समान अधिनियम की मांग भी उठाई जाती है। 

पैसे के लिए गिरवी रखना 

पैसों की जरूरत पड़ने पर महिलाओं के बीच में सोने या चाँदी को गिरवी रखने की प्रथा बेहद आम है, और महामारी द्वारा उत्पन्न आर्थिक मुश्किलों से निजात पाने के लिए इसे भारी संख्या में अपनाया गया। इसमें कई महिलाएं फंस गईं, उन्हें रेहन में माल रखने वाले दलालों से मुसीबतें झेलनी पड़ीं। वे ब्याज नहीं चुका पाईं या अपनी रेहन रखी जमा-पूंजी को नहीं छुड़ा सकीं।

मुख्यमंत्री पलानीस्वामी ने छह संप्रभु वाले सोने को गिरवी रखे गए ऋण को माफ़ करने की घोषणा कर दी, लेकिन यह सिर्फ सहकारी बैंकों के जरिये लिए गए ऋणों पर ही लागू होता था। जी. सरस्वती, चेन्नई में क्लर्क के तौर पर कार्यरत हैं। महामारी के दौरान उनकी नौकरी छूट गई थी। उनका कहना था “मैंने जो कर्ज लिया था उस पर छूट पाने का दावा करना चाहती थी। लेकिन यह सुनकर निराशा हाथ लगी कि इसे सिर्फ सहकारी बैंकों से लिए गए ऋण पर ही लागू किया गया है।”

स्वंयसेवी समूह 

इस वर्ष फरवरी में निवर्तमान अन्नाद्रमुक सरकार ने आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए स्वयं सेवी समूहों (एसएचजी) द्वारा लिए गए ऋणों को माफ़ करने का प्रावधान किया है। महिलाओं की ये समितियां छोटे स्तर पर वस्तुओं के उत्पादन करने और एक समुदाय के रूप में मुनाफा कमाने के लिए सहकारी समिति के तौर पर काम करती हैं। इन्हें प्राथमिक तौर पर आत्म-निर्वाह और गरीबी उन्मूलन के लिए गठित किया गया था। लेकिन उनके उत्पादों के लिए बाजार की अनुपलब्धता के चलते उन्हें इसे जारी रख पाने में मुश्किलें आ रही हैं।

मंजुला के अनुसार “एसएचजी के लिए बाजार नहीं पैदा किये गए। अगर एसएचजी द्वारा अप्पलाम्स का उत्पादन किया जाता है तो इस प्रतिस्पर्धी दुनिया में वे इसे कहाँ पर बेच सकते हैं? उन्हें बड़े कॉर्पोरेट उत्पादों से प्रतिस्पर्धा में जाना पड़ रहा है। इसके लिए एसएचजी को कर्ज लेना पड़ता है, जिसे सरकार को समय-समय पर माफ़ करना पड़ता है। सरकार को उनके उत्पादों के लिए बाजार बनाने की जिम्मेदारी लेनी होग।”

महिलाओं के खिलाफ हिंसा की सरकार द्वारा अनदेखी 

आंकड़े इस बात का खुलासा करते हैं कि तमिलनाडु में रेप के मामले 2016 में 336, 2017 में 294 और 2018 में 341 प्रकाश में आये थे। तमिलनाडु सरकार की ओर से महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराधों के मामलों में त्वरित प्रतिक्रिया, कठोरतम सजा के प्रावधान के तौर पर सितम्बर 2020 में देखने को मिली।

मंजुला के अनुसार “तमिलनाडु राज्य महिला आयोग, जो महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों से निपटने के लिए एक संवैधानिक निकाय है, यहाँ पर निष्क्रिय पड़ी है।” पूर्व में यह निकाय काफी बेहतर तरीके से संचालित हो रही थी। इसकी बदहाल स्थिति का जिक्र करते हुए वह कहती हैं “यह निकाय बेहद महत्वपूर्ण है। यह निकाय बेहद आसानी के साथ पोल्लाची यौन उत्पीड़न मामले को उठा सकता था। लेकिन, महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर इसके पास अब कोई नजरिया नहीं बचा है।” 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

TN Elections: A Declining Women Workforce Must be Tackled, Freebies Will Not Suffice

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