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तमिलनाडु चुनाव : क्यों उभर रहा है संदिग्ध किस्म का प्रतियोगी लोकप्रियतावाद?

यह सत्य है कि प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से तमिलनाडु राज्यों में तीसरे नंबर पर है। लेकिन प्रति व्यक्ति आय की गणना करने के लिए सकल राज्य घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी को राज्य की जनसंख्या से भाग करना होता है; पर इससे जनसंख्या के निचले हिस्से में गैरबराबरी और सापेक्षिक आय विपन्नता तथा बदतर जीवन-स्थितियां अदृष्य हो जाती हैं।
AIADMK और DMK ने जो वायदे किये हैं उनका सरकारी ख़जाने पर बोझ आएगा 45,000 करोड़ से लेकर 50,000 करोड़ प्रति वर्ष, जो बजट का 1/6 हिस्सा है।
AIADMK और DMK ने जो वायदे किये हैं उनका सरकारी ख़जाने पर बोझ आएगा 45,000 करोड़ से लेकर 50,000 करोड़ प्रति वर्ष, जो बजट का 1/6 हिस्सा है।

हर कोई जानता है कि विरोधियों के खिलाफ आयकर छापा भाजपा नेतृत्व के प्रतिशोधी राजनीति का एक राजनीतिक हथियार बन गया है। पर प्रधानमंत्री सहित बहुतों को यह नहीं मालूम कि यह उन्हीं पर ‘बैकफायर’ कर सकता है। तमिलनाडु के प्रमुख विपक्षी नेता एमके स्टालिन की बेटी व दामाद सबारीसन के घर पर ‘राजनीतिक रूप से प्रेरित’ रेड ने उन लोगों तक में नकारात्मक प्रतिक्रिया पैदा की है, जो न ही किसी के प्रतिबद्ध मतदाता हैं न स्टालिन या डीएमके के समर्थक।

तमिलनाडु विधानसभा की सभी 234 सीटों के लिए मंगलवार, 6 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे। लेकिन मतदान के केवल तीन दिन पूर्व जिस निर्लज्जता से ये रेड कराए गए, उसने व्यापक खेमे में चिंता पैदा कर दी है। कइयों को लगने लगा है कि यह केंद्र में बैठे भाजपा नेतृत्व की हताशा का द्योतक है। ऐसा लग रहा है कि सत्ताधारी समस्त आत्म-संयम खो चुके हैं और राजनीति में मर्यादित व्यवहार को तिलांजलि दे चुके हैं।

यहां तक कि जो लोग अच्छी तरह जानते हैं कि केंद्र का मोदी-शाह शासन तानाशाह है, वे भी चौंक गए हैं कि सत्ता कैसे सारी सीमाएं लांघ रही है। बहुतों को यह चिंता सताने लगी है कि इस रफ्तार से तो भारत का लोकतंत्र संगठित गुंडागर्दी (gangsterism) में बदल जाएगा।

लोकतंत्र तो जीत-हार का खेल होता है। इसलिए लोकतंत्र के किसी भी मंजे हुए खिलाड़ी को हार या जीत, दोनों ही स्थितियों में अपना विवेक नहीं खोना चाहिये। क्या हार का तनिक सा आभास भी एक शक्तिशाली नेता को अपना संयम खो देने पर मजबूर कर देता है? ऐसे में लोकतंत्र, या उसका जो कुछ अंश आज बचा हुआ है, के भविष्य के बारे में गहरी चिंता होती है, खासकर तब और भी जब शासन तानाशाह बन गया हो। क्या कारण है ऐसी अति का?

केवल ओपिनियन पोल ही नहीं, यहां तक कि निष्पक्ष एजेंसियां भी कह रही हैं कि तमिलनाडु में सभी दलों के पार्टी कतारों के हिसाब से जमीनी रिपोर्टें बता रही हैं कि डीएमके की स्थिति बेहतर है।

दूसरी ओर, भविष्यवाणी यह भी है कि एआईएडीएमके सरकार ऐंटी-इन्कम्बेंसी झेल रही है। यहां तक कि मोदी की गोदी मीडिया में उनके समर्थक तक इतने तक सीमित हैं कि दोनों के बीच मुकाबला टक्कर का है पर वे पूरे आत्मविश्वास के साथ दावा नहीं कर पा रहे हैं कि एआईएडीएमके-भाजपा गठबंधन विजयी होगा।

यद्यपि जनवरी के पोंगल (Pongal) त्योहार में अन्नाद्रमुक पार्टी ने राज्य के कोष से खुले हाथों कई मुफ्त उपहार दिये, फिर भी क्यों सत्ता-विरोध की लहर खासा मजबूत दिख रही है? क्यों भाजपा-एआईएडीएमके गठबंधन इतनी अलोकप्रिय है, जबकि मोदी स्वयं राज्य का दौरा कर चुनाव आचार संहिता लागू होने से पूर्व ढेर सारी स्कीम घोषित कर चुके हैं?

सच्चाई यह है कि अन्नाद्रमुक पार्टी का ‘फ्री फॉल’ 2017 के बाद से शुरू हो गया था, जब राज्य ने 140 वर्षों में सबसे भयंकर सूखाड़ का सामना किया था। जबकि 2018 में केवल 3 जिलों को सूखा-प्रभावित घोषित किया गया था। किसान आकस्मिक बाढ़ की चपेट में आ गए थे। पुनः 2019 में 22 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित करना पड़ा। अगले साल लॉकडाउन का तांडव चला।

दूसरों का अधिकार हड़पने (Usurper) के आरोपी मुख्यमंत्री एड्डापाडी के पलानीस्वामी ने सोचा था कि वे पोंगल पर तोहफे बांटकर जनाक्रोश को ठंडा करने में सफल होंगे। पर 2019 के लोकसभा चुनाव ने दिखा दिया कि अन्नाद्रमुक सरकार के प्रति लोगों की भावना कैसी है।

यह भांपते हुए कि चुनावी जमीन उनके पैरों तले खिसक रही है, एआईएडीएमके ने हताशा में चुनावी आचार संहिता लागू होने से एक दिन पूर्व विधानसभा में एक कानून पारित किया। इसके तहत पीएमके की मांग के अनुसार ओबीसी (OBC) आरक्षण के भीतर वन्नियर समुदाय के लिए 10.5 प्रतिशत पृथक आरक्षण ऑफर किया गया। पीएमके वन्नियर समुदाय का दल है और उसने इसे गठबंधन की शर्त बनाया था। इस कानून के बनते ही गठबंधन बन गया और एआईएडीएमके (AIADMK) ने आशा की कि इस गठबंधन के कारण वे उत्तरी जिलों में जीत सकेंगे, जहां डीएमके मजबूत है और जहां वन्नियर वोट अधिक हैं। पर ओपिनियन पोल उत्तरी जिलों में अन्नाद्रमुक पार्टी के लिए बहुत अधिक बढ़त के संकेत नहीं दे रहे। परंतु आरक्षण के चलते दक्षिणी जिलों में तीन ओबीसी जातियों- थेवर, कल्लर, अगामुडयर (Thevar, Kallar, Agamudayar) से बनी श्रेणी, मुक्कुलाथोर (Mukkulathor) समुदाय के बीच अप्रत्याशित प्रतिक्षेप हुआ। इन्हें लगने लगा कि उनकी कीमत पर अब वन्नियर (Vanniyar) समुदाय को लाभ मिलेगा, क्योंकि अब उन्हें संपूर्ण ओबीसी कोटे में 10.5 प्रतिशत कम नौकरियों व सीटों में से अपना हिस्सा लेना होगा।

इत्तेफाक से, AIADMK की विद्रोही नेता शशिकला भी कल्लर समुदाय से आती हैं। और उप-मुख्यमंत्री, ओ. पनीरसेल्वम जो मुख्यमंत्री एड्डपडी के प्रतिद्वन्द्वी हैं, कल्लर समुदाय से हैं। यद्यपि शुरुआत में ऐसा आभास हुआ कि AIADMK पार्टी ने एक विकट जातीय गठबंधन बना लिया है, एक अप्रत्याशित सामाजिक व क्षेत्रीय विभाजन दिखाई पड़ रहा है, जिसके चलते चुनावी धक्का लग सकता है। पर इसका एक और कारण है कि AIADMK के बढ़ते चुनावी उपहार (sops) अब घटते चुनावी लाभांश देने लगे हैं।

चुनावी उपहारों के पीछे की सच्चाई क्या है?

तमिलनाडु में प्रतिद्वन्द्वी दल एक दूसरे को मात देने के लिए बड़े-से-बड़े तोहफे ऑफर करते हैं। राज्य के बाहर के राजनीतिक पर्यवेक्षक अक्सर ऐसे मुफ्त उपहारों की झड़ी देखकर दंग रह जाते हैं। तमिलनाडु में भी यह परिहास का विषय बनता जा रहा है। एक स्वतंत्र प्रत्याशी, जिसने मदुरई की सीट के लिए नामांकन भरा था, ने एक दिखावटी घोषणापत्र (mock manifesto) जारी किया था, जिसमें उसने हर परिवार के लिए ‘फ्री हेलिकॉप्टर, स्विमिंग पूल, और यहां तक कि चांद तक निःशुल्क यात्रा’ का वायदा किया।

तमिलनाडु जैसे उन्नत राज्य में ऐसी राजनीतिक संस्कृति को लेकर जग-हंसाई हो रही है। पर इस राजनीतिक संस्कृति की जड़ें गहरी हैं और यह दशकों से इन्हीं तमाम पार्टियों के शासनकाल में हुए राज्य के विकृत विकास में निहित है।

यह सत्य है कि प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से तमिलनाडु राज्यों में तीसरे नंबर पर है। पर प्रति व्यक्ति आय की गणना करने के लिए सकल राज्य घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी को राज्य की जनसंख्या से भाग करना होता है; पर इससे जनसंख्या के निचले हिस्से में गैरबराबरी और सापेक्षिक आय विपन्नता तथा बदतर जीवन-स्थितियां अदृष्य हो जाती हैं।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 ने दर्शाया था कि तमिलनाडु की जनसंख्या के मात्र 31 प्रतिशत हिस्से को घर में पाइपलाइन से पानी मिल रहा था, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, हरियाणा और पंजाब में 57 प्रतिशत जनसंख्या को मिल रहा था।

गैरबराबरी को नापा जाता है गिनी कोइफिशियेंट इंडेक्स (Gini Coefficient Index) से और यद्यपि तमिलनाडु ने 2005 से सबसे अधिक विकास प्रदर्शित करने वाले राज्यों में अपने को दर्ज किया था, उसका गिनी कोइफिशियेंट भी काफी अधिक रहा। उसका ग्रामीण गैरबराबरी के मामले में गिनी कोइफिशियेंट 2012 तक स्थिर बना रहा।

तमिलनाडु में काफी उच्च स्तर का शहरीकरण (urbanization) हुआ और अब राज्य की लगभग 55 प्रतिशत जनसंख्या शहरी है। पर 2017 के विश्व बैंक रिपोर्ट के अनुसार शहरी तमिलनाडु का गिनी कोइफिशियेंट केवल 0.2 प्रतिशत गिरा। इसके मायने हैं कि विकास तमिलनाडु के उच्च वर्ग (top layers) को ही अधिक सम्पन्न बना रहा है, जिससे कि वह सामाजिक व आर्थिक रूप से बहुत अधिक ध्रुवीकृत प्रदेश बन गया है। राज्य के 40 प्रतिशत से अधिक गैर-कृषि श्रमिक निम्न आय वाले अनौपचारिक मज़दूर हैं। यह उपहारों की संस्कृति ऐसी गैरबराबरी का ही परिणाम है।

तमिलनाडु क़र्ज़ के जाल में फंसता जा रहा है

वित्त मंत्री ओ पनीरसेल्वम द्वारा हाल में पेश किये गए 2020-21 राज्य बजट के अनुसार, 2020-21 का जीएसडीपी करीब 21 लाख करोड़ रुपये था, पर तमिलनाडु का लगभग 5 लाख करोड़ का ऋण था। इस कर्ज पर सालाना ब्याज 42,000 करोड़ है। राज्य अभी से ऋण जाल में फंसता नजर आ रहा है, क्योंकि उसके पास ऋण अदा करने के लिए पैसे नहीं हैं।

यहां तक स्थिति बिगड़ गई है कि ब्याज भरने के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है। 2020-21 में, यानी महामारी वर्ष में, तमिलनाडु का जीएसडीपी (GSDP) विकास केवल 2 प्रतिशत रहा, इसलिए उच्च राजस्व विकास के कोई लक्षण नहीं नजर आते। राज्य में हाल का राजस्व व्यय 2.5 लाख करोड़ है और कुल व्यय 3 लाख करोड़ है।

AIADMK और DMK ने जो वायदे किये हैं उनका सरकारी खजाने पर बोझ आएगा 45,000 करोड़ से लेकर 50,000 करोड़ प्रति वर्ष, जो बजट का 1/6 हिस्सा है। तब, आखिर इन वायदों को पूरा करने के लिए पैसे कहां से आएंगे?

कुल मिलाकर इन वायदों के लिए राजकोषीय गुंजाइश है ही नहीं। फिर भी वायदों पर वायदे किये जा रहे हैं और कोई दल यह बताने की जहमत नहीं उठाता कि इनको पूरा करने के लिए राजस्व कैसे जुटाया जाएगा। तो हम कह सकते हैं कि यह एक फर्जी लोकप्रियतावाद है (fraud populism) जिसे मतदाताओं पर आज़माया जा रहा है।

इससे भी अधिक चिंता का विषय है कि तमिलनाडु चुनावी लोकतंत्र के पतन के लिए देश में अव्वल है। तमिलनाडु चुनाव में वोट एक व्यापार-योग्य वस्तु बन चुका है और कुछ चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं को प्रति वोट 2000-2500 रुपये कैश या इतनी कीमत का सामान दिया जाता है। मतदाता के निराशावाद की भी हदें पार हो चुकी हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि भ्रष्ट लोग ही सत्ता में आएंगे और सरकारी खजाने को लूटेंगे, वे एक-एक वोट की कीमत भी ले लेना चाहते हैं! इसने लोकतंत्र का माखौल बना दिया है। चुनाव के माध्यम से तत्काल इस समस्या का निदान तो संभव नहीं है, पर जो लोग लोकतंत्र को पतन से बचाना चाहते हैं, उन्हें अब भी चेत जाना चाहिये और भविष्य में इस दिशा में काम करना चाहिये।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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