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तेलंगाना हाईकोर्ट का 26वें हफ़्ते में गर्भपात का फ़ैसला ज़रूरी क्यों लगता है?

हमारे समाज में महिलाओं के अस्तित्व को अक्सर उनके यौनी और प्रजजन से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में एक रेप पीड़िता को 26वें हफ़्ते में गर्भपात की अनुमति देकर तेलंगना हाईकोर्ट का ये कहना की भ्रूण की जिंदगी एक मां की जिंदगी से बढ़कर नहीं हो सकती एक नई उम्मीद कायम करता है।
high court

''भ्रूण की जिंदगी या जो अभी पैदा होना है उसको मां की ज़िदगी से ऊपर रखकर नहीं देखा जा सकता।"

ये महत्वपूर्ण टिप्पणी तेलंगाना हाईकोर्ट ने एक 16 साल की बलात्कार पीड़िता की याचिका पर सुनवाई करते हुए की। कोर्ट ने कहा कि गरिमा, आत्म-सम्मान और स्वस्थ ज़िंदगी ( मानसिक और शारीरिक दोनों) जैसे पहलू संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत दिए गए जीने और निजी आज़ादी के अधिकार के तहत आते हैं। इसी अधिकार के तहत एक महिला का यह अधिकार भी शामिल है कि वो गर्भवती बनी रहे या गर्भपात करवा ले ख़ासकर उस मामले में जब वो बलात्कार या यौन शोषण के कारण गर्भवती हो गई हो या फिर उस मामले में जब वो गर्भवती तो हो गई लेकिन वो इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं हो।

बता दें कि नाबालिग बलात्कार पीड़िता ने कोर्ट से गर्भपात की इजाज़त मांगी थी। फिलहाल पीड़िता 26 हफ़्ते की गर्भवती है और अपना गर्भ नहीं रखना चाहती। लड़की की तरफ़ से उनके माता-पिता ने याचिका डालकर मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 (संशोधित) क़ानून के तहत गर्भपात की अनुमति माँगी थी। जिसे कोर्ट ने स्वीकार कर लिया और अपने पीड़ित लड़की को गर्भपात की अनुमति दे दी।

क्या है पूरा मामला?

लाइव लॉ की खबर के मुताबिक दुष्कर्म पीड़िता की ओर से पेश अधिवक्ता सरव्या कट्टा ने तर्क दिया कि एक महिला को गर्भावस्था का चुनाव करने का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक पहलू है जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निहित है।

उन्होंने आगे कहा कि एक महिला का अपने शरीर पर स्व-शासन होता है और इसके तहत गर्भावस्था का चुनाव करने और गर्भावस्था को समाप्त करने का अधिकार भी शामिल है। यह भी तर्क दिया गया कि 24 सप्ताह से अधिक की गर्भवती महिला को कानूनी स्थगन के अधीन करना अमानवीय है क्योंकि बलात्कार पीड़िता के जीवन के अधिकार गर्भ में बल रहे बच्चे के जीवन के अधिकार से अधिक है।

कोर्ट का क्या अवलोकन रहा?

कोर्ट ने कहा कि अगर नाबालिग रेप पीड़िता को गर्भपात की अनुमति नहीं दी जाती है तो उसके गंभीर शारीरिक और मानसिक तनाव से गुजरने की पूरी संभावना है, जिसका उसके भविष्य के स्वास्थ्य और संभावनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

कोर्ट ने आगे कहा, "याचिकाकर्ता की उम्र 16 साल है और वह जिस मानसिक तनाव से गुजर रही है, उसे लेकर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि याचिकाकर्ता बच्चे के जन्म तक गर्भधारण करने में सक्षम होगी। याचिकाकर्ता और भ्रूण या पैदा होने वाले बच्चे के लिए भी चिकित्सा संबंधी जटिलताएं हो सकती हैं।"

मालूम हो कि इस मामले में मेडिकल बोर्ड 26वें हफ़्ते में गर्भपात को लेकर सहमति तो दे चुका है लेकिन उसके साथ होने वाली स्वास्थ्य परेशानियों का भी बोर्ड ने उल्लेख है। पीड़िता की मेडिकल जांच के बाद मेडिकल बोर्ड का मानना था कि 16 साल की ये लड़की गर्भपात कराने के लिए फिट है लेकिन उसके बाद कुछ दिक्कतें आ सकती हैं जैसे गर्भपात के बाद ब्लीडिंग और उसे ब्लड ट्रांसफ्यूशन(ख़ून की कमी के कारण, ख़ून चढ़ाना) की भी ज़रूरत पड़ सकती है।

बोर्ड ये भी कहता है कि इस प्रक्रिया से लड़की के शरीर में रिएक्शन या प्रभाव अभी या फिर बाद में भी हो सकता है। साथ ही गर्भापात में लंबा समय लगेगा जिससे सेप्सिस हो सकता है और सर्जरी या ऑपरेशन करके भी डिलीवरी करानी पड़ सकती है।

शारीरिक और मानसिक प्रभाव

हालांकि पीड़िता की नाजुक स्थिति को देखते हुए जानकार इस मामले में कोर्ट के इस फैसले का स्वागत करते हैं लेकिन ये भी मानते हैं कि 26वें हफ़्ते में होने वाला गर्भपात इस लड़की की शारीरिक ही नहीं मानसिक स्थिति पर भी असर डाल सकता है और उसके दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं।

पीजीआई लखनऊ में स्त्री रोग विशेषज्ञ के तौर पर सेवाएं दे चुकीं डॉ प्रिया सिंह कहती हैं कि मां की मानसिक और शारीरिक स्थिति गर्भपात में बहुत महत्तवपूर्ण रोल निभाती हैं। इस मामले में मां खुद एक 16 साल की बच्ची है, जो जाहिर तौर पर एक बच्चे के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में उसका शरीर भी नॉर्मल या सी-सेक्शन डिलीवरी के लिए तैयार नहीं होगा, जो शारीरिक प्रभाव के साथ-साथ जो मनौवैज्ञानिक प्रभाव होगा वो भी बहुत ज्यादा हो सकता है।

डॉ सिंह आगे बताती हैंं कि अमूमन इतनी लेट में गर्भपात को मंजूरी नहीं दीए जाने के पीछे कई कारण हैं, जैसे गर्भपात के दौरान ख़ून ज्यादा बह सकता है और लड़की को ख़ून की कमी भी हो सकती है, आगे जाकर कंसीव करने में भी दिक्कत आ सकती है। इसके अलावा इन्फेक्शन, यूट्रस रपचर का भी ख़तरा होगा। लेकिन इन सब खतरों के बावजूद जो सबसे बड़ा दर्द बच्ची इस वक्त महसूस कर रही होगी वो शायद कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता और इसी दर्द को देखकर कोर्ट का ये फैसला भी आया है।

पंजाब विश्वविद्यालय से जुड़ी मनोचिकित्सक मनिला गोयल मानती हैं कि इस वक्त पीड़िता एक अलग तरह के मेंटल ट्रॉमा से गुज़र रही है, ऐसे में उसे शायद कम ही शारीरिक कष्टों का होश हो। इस वक्त बच्ची को अच्छी मेडिकल सुविधा के साथ-साथ एक अच्छे मनोचिकित्सक के काउनसलिंग की भी जरूरत है।

मनिला के अनुसार बच्ची रोज़-रोज़ अपने अंदर जिस दर्द को महसूस कर रही है, वो कहीं न कहीं उसके गर्भ से जुड़ा है। ऐसे में कोर्ट का फैसला बिल्कुल सही लगता है। भला हम एक बच्ची को नज़रआंदाज कर एक ऐसे बच्चे की उम्मीद कैसे कर सकते हैं, जो अभी इस दुनिया में ही नहीं आया है।

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी (संशोधित) बिल 2020

गौरतलब है कि भारत के स्वास्थ्य और कल्याण मंत्रालय के अनुसार भारत में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी (संशोधित) बिल 2020 बिल को राज्यसभा में 16 मार्च 2021 को पास किया गया है। इस बिल के मुताबिक़ गर्भपात की अवधि 20 हफ़्ते से बढ़ाकर 24 हफ़्ते की गई है। इससे पहले देश में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी एक्ट1971 था, प्रावधान था कि अगर किसी महिला का 12 हफ़्ते का गर्भ है, तो वो एक डॉक्टर की सलाह पर गर्भपात करवा सकती है। वहीं 12-20 हफ़्ते में दो डॉक्टरों की सलाह अनिवार्य थी और 20-24 हफ़्ते में गर्भपात की महिला को अनुमति नहीं थी।

नए बिल में कहा गया है कि 24 हफ़्ते की ये अवधि विशेष तरह की महिलाओं के लिए बढ़ाई गई है, जिन्हें एमटीपी नियमों में संशोधन के ज़रिए परिभाषित किया जाएगा और इनमें दुष्कर्म पीड़ित, सगे-संबंधियों के साथ यौन संपर्क की पीड़ित और अन्य असुरक्षित महिलाएँ (विकलांग महिलाएँ, नाबालिग) भी शामिल होंगी। लेकिन इस संशोधित बिल में 12 और 12-20 हफ़्ते में एक डॉक्टर की सलाह लेना ज़रूरी बताया गया है। इसके अलावा अगर भ्रूण 20-24 हफ़्ते का है, तो इसमें कुछ श्रेणी की महिलाओं को दो डॉक्टरों की सलाह लेनी होगी और अगर भ्रूण 24 हफ़्ते से ज़्यादा समय का है, तो मेडिकल सलाह के बाद ही इजाज़त दी जाएगी।

ये सच है कि हमारे समाज में महिलाओं के अस्तित्व को अक्सर उनके यौनी और प्रजजन से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में एक रेप पीड़िता को 26वें हफ़्ते में गर्भपात की अनुमति देकर तेलंगाना हाईकोर्ट का ये कहना की भ्रूण की जिंदगी एक मां की जिंदगी से बढ़कर नहीं हो सकती एक नई उम्मीद कायम करता है।

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