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इस बुलडोज़रकाल के आगे फीका है वह आपातकाल

यह बुलडोजरकाल है जो उस आपातकाल का नया और बेहद क्रूर संस्करण है। 
Modi and Indira
फ़ोटो साभार: गूगल

आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह और शर्मनाक अध्याय....एक दु:स्वप्न...एक मनहूस और त्रासद कालखंड! सात साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा हैरान-परेशान होकर बगले झांक रही थी। वह भाजपा जो कि आपातकाल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रहती है। 

आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर है और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं। बकौल आडवाणी, ''भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं।''  

आडवाणी का यह बयान यद्यपि सात वर्ष पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता सात वर्ष पहले से कहीं ज्यादा आज महसूस हो रही है। आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय (अच्छी या बुरी) भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है। इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर पर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर। 

यह सच है कि उस आपातकाल में देश के तमाम विपक्षी नेताओं और हजारों कार्यकर्ताओं को आंतरिक सुरक्षा कानून मीसा के तहत जेल में बंद कर दिया गया था, जो लोग गिरफ्तार नहीं किए जा सके थे उनके परिजनों को प्रताड़ित किया गया था और जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के नाम पर लाखों लोगों की जबरन नसबंदी कर दी गई थी। लेकिन उस दौरान कहीं सरकार प्रायोजित दंगे नहीं हुए थे और सांप्रदायिक व जातीय आधार पर लोगों को प्रताड़ित नहीं किया गया था। लेकिन मोदी राज के अघोषित आपातकाल यह सब संगठित और सुनियोजित रूप से नियमि हो रहा है, जिसमें शासन-प्रशासन की भी पूरी भागीदारी है। 

दंगा कराने के सत्ताधारी दल का एक विशेष कॉडर है जिसके लिए किसी मस्जिद पर भगवा झंडा लहरा कर, किसी मजार पर भगवा रंग पोत कर या किसी मुस्लिम बस्ती में जाकर भकाऊ नारे लगा कर दंगा कराना मामूली बात है। दंगे के दौरान भरपूर आगजनी और लूटपाट के बाद पीड़ितों की ही दंगाइयों के रूप में शिनाख्त होती है और बगैर कोई अपील-दलील सुने उनके मकानों-दुकानों पर चढ़ा दिए जाते हैं बुलडोजर। प्रशासन की ओर सफाई दी जाती है कि तोड़े गए मकान अवैध रूप से बनाए गए थे। 

दैत्याकार बुलडोजर समूची शासन व्यवस्था का प्रतीक बन गया है, जो कहीं विकास के नाम पर तो कहीं कानून-व्यवस्था के नाम पर कभी भी, किसी के भी कच्चे-पक्के मकान-दुकान को देखते ही देखते जमींदोज कर देता है। प्रतिरोध करने वालों को नियंत्रित करने के लाठी-गोली का इस्तेमाल करना तो मानो पुलिस का नैसर्गिक अधिकार हो गया है। ऐसे सौ में से एकाध मामले में अदालत दखल देती है यह दिखाने के लिए कि उसका वजूद अभी कायम है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह बुलडोजरकाल है जो उस आपातकाल का नया और बेहद क्रूर संस्करण है। 

दरअसल केंद्र सहित देश के लगभग आधे राज्यों में सत्तारू या सत्ता में भागीदार भारतीय जनता पार्टी के भीतर अटल-आडवाणी का दौर खत्म होने के बाद पिछले सात-आठ वर्षों में ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों से कोई सरोकार नहीं है। सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं। 

आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चापलूसी और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए 'इंदिरा इज इंडिया- इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था। आज भाजपा में तो अमित शाह, जेपी नड्डा, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फडणवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते। वैसे इस सिलसिले की शुरुआत करने वाले वेंकैया नायडू थे, जो फिलहाल देश के उप राष्ट्रपति हैं और कुछ ही दिनों बाद सेवानिवृत्त होने वाले हैं। कुछ समय पहले भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो देवकांत बरुआ ही नहीं, बल्कि अपनी पार्टी के बाकी नेताओं को भी मात देते हुए राजनीतिक निर्लज्जता और चापलूसी की नई मिसाल पेश की थी। उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी तो देवताओं के भी नेता हैं।

आज तो देश में लोकतंत्र का पहरुआ कहे जा सकने वाला एक भी ऐसा संस्थान नजर नहीं आता, जिसकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारु दल से ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही है। यही नहीं, सरकार के मंत्री अदालतों को नसीहत दे रहे हैं कि उन्हें कैसे फैसले देना चाहिए। ज्यादातर मामलों में अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं- सिर्फ नीतिगत और संवैधानिक मामलों में ही नहीं बल्कि आपराधिक मामलों में भी। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीश सत्तारू दल के नेताओं की सार्वजनिक मंचों से प्रधानमंत्री मोदी की चापलूसी भरी तारीफ कर रहे हैं और सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद 'उचित पुरस्कार’ पा रहे हैं। कुल मिला व्यावहारिक तौर पर न्यायपालिका सरकार के प्रति प्रतिबद्ध हो चुकी है। 

चुनाव आयोग की साख और विश्वसनीयता पूरी तरह चौपट हो चुकी है और वह एक तरह से चुनाव मंत्रालय में तब्दील हो गया है। किसी भी चुनाव का कार्यक्रम प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी की सुविधा को ध्यान रख कर बनाया जाता है। चुनाव में मिले जनादेश को दलबदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, उसकी मिसाल पिछले आठ वर्षों के दौरान हम गोवा, मणिपुर, बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, महाराष्ट्र आदि राज्यों में देख चुके हैं। महाराष्ट्र में तो यह खेल इस समय भी दोहराया जा रहा है। राज्यसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए सत्तारू दल की ओर से विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त का नजारा भी देश पिछले आठ वर्षों से लगातार देख रहा है। 

नौकरशाही की जनता और संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पती है। सूचना का अधिकार कानून लगभग बेअसर बना दिया गया है। सीबीआई, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियां विपक्षी नेताओं और सरकार से असहमत सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और बुद्धिजीवियों को परेशान करने का औजार बन गई हैं। इस काम में भी न्यायपालिका सरकार की परोक्ष रूप से सहायक बनी हुई है। 

जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नही रह गई है। इसकी अहम वजह है- बड़े कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़। इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को पूरी तरह जनविरोधी और सरकार का पिछलग्गू बना दिया है। 

सरकार ने मीडिया को दो तरह से अपना पालतू बनाया है- उसके मुंह में विज्ञापन ठूंस कर या फिर सरकारी एजेंसियों के जरिए उसकी गर्दन मरोड़ने का डर दिखा कर। इस सबके चलते सरकारी और गैर सरकारी मीडिया का भेद लगभग खत्म सा हो गया है। व्यावसायिक वजहों से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, पेशागत, नैतिक तथा लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी कमोबेश लोप हो चुका है। 

पिछले पांच-छह वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई वह है सरकार, सत्तारू दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन। यह सही है कि हमारे सैन्यबलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किल चुनौतियों से जूझना पडता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना और सैन्य नेतृत्व द्वारा सरकार के समर्थन में राजनीतिक बयानबाजी करना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा है। 

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीयकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। अब तो उससे भी ज्यादा भयावह परिदृश्य दिखाई दे रहा है। सारे अहम फैसले संसद तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते; सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री और उनके मुख्य सिपहसालार यानी गृह मंत्री अमित शाह की चलती है। 

आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता-संचालन में गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है। संसद को लगभग अप्रासंगिक बना दिया गया है। जनहित से जुड़े मामलों में न्यायपालिका के यदा-कदा आने वाले आदेशों की भी सरकारों की ओर से खुलेआम अवहेलना होती है और न्यायपालिका खामोश बनी रहती है। असहमति की आवाजों को बेरहमी से चुप करा देने या फर्जी देशभक्ति के शोर में डूबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं। 

आपातकाल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमेरिका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था तो अब स्थिति यह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान परस्त या देशविरोधी करार दे दिया जाता है। आपातकाल में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों का शोर था तो आज विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में हिंदुत्ववादी एजेंडे पर तेजी से अमल किया जा रहा है। इस एजेंडा के तहत अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों का तरह-तरह से उत्पीड़न हो रहा हैं। 

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक औपचारिक तौर पर तो लोकतांत्रिक व्यवस्था चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण तेजी से जारी है। लोगों के नागरिक अधिकार गुपचुप तरीके से कुतरे जा रहे हैं। पिछले आठ सालों के दौरान इस सिलसिले में अभूतपूर्व तेजी आई है। लोगों की निजता और नागरिक आजादी का पूरी तरह अपहरण कर लिया गया है। 

आपातकाल के दौरान केंद्र सहित लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस का शासन था। इसके बावजूद उस समय का विपक्ष आज की तरह दीन-हीन नहीं था। विपक्षी दलों का जनता से जुड़ाव था और विपक्षी नेताओं की साख थी। इसलिए आपातकाल के दौरान सरकार ने तमाम विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेलों में बंद कर दिया गया था। हालांकि इस समय भाजपा भी केंद्र के साथ ही देश के आधे से ज्यादा राज्यों में अकेले या सहयोगियों के साथ सत्ता पर काबिज है। उसकी इस स्थिति के बरअक्स देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की ताकत का लगातार क्षरण होता जा रहा है। वह कमजोर इच्छा शक्ति और नेतृत्व के संकट की शिकार है। लंबे समय तक सत्ता मे रहने के कारण उसमें संघर्ष के संस्कार कभी पनप ही नहीं पाए, लिहाजा सक से तो उसका नाता टूटा हुआ है ही, संसद और विधानसभाओं में भी वह प्रभावी विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पा रही है। बाकी विपक्षी दलों की हालत भी कांग्रेस से बेहतर नहीं है। विपक्ष की यह दारुण स्थिति भी सरकार के निरंकुश बनने में सहायक बनी हुई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

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