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कोरोना संकट ने बेपरदा कर दीं “मज़बूत नेताओं” की जानलेवा कमज़ोरियां !

महामारी के इस दौर में ऐसे कुछ नेताओं के योगदान के बारे मे सोचने का समय आ चुका है। अगर वह इससे निपटने में सक्षम रहे हों, तब तो वास्तव में उनकी मज़बूती को हमें सराहना चाहिए लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो फिर हमें सोचना चाहिए कि ऐसी मज़बूती किस काम की या फिर किसके काम की?
trump, boris and bolsonaro
फोटो साभार : operamundi

बहुत लोग मानते हैं कि तमाम समस्याओं का निदान है एक अकेला, मज़बूत नेता। एक ऐसा नेता जो अपने इरादे का पक्का हो, जो इस बात को कहते नहीं थकता हो कि वह किसी के सामने झुकने वाला नहीं है। वह विरोधियों को नाप देगा और सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण कि वही असली देश भक्त है जिसे देशद्रोहियों की पहचान है।

इस तरह के कई नेता दुनिया भर मे देखे जा रहे हैं। जहां कुछ साल पहले तक ऐसे नेताओं की प्रशंसा की जाती थी जो दुनिया मे शांति कायम करने और प्रजातन्त्र को मज़बूत करने की बात करते थे। अब इन बातों को नकारा जा रहा है। ऐसे नेताओं को अनावश्यक नरमी बरतने वाला बताया जा रहा है और ‘मज़बूत नेताओं’ का डंका पीटा जा रहा है।

कोरोना के संकट के दौरान ऐसे कुछ नेताओं के योगदान के बारे मे सोचने का समय आ चुका है। अगर वह इससे निपटने में सक्षम रहे हों, तब तो वास्तव में  उनकी मज़बूती को हमें सराहना चाहिए लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो फिर हमें सोचना चाहिए कि ऐसी मज़बूती किस काम की या फिर किसके काम की?

तीन मज़बूत नेताओं के बारे मे कुछ सोचा जाये। इन तीनों का हमारे देश की सरकार चलाने वालों के साथ बड़े अच्छे संबंध हैं, इसलिए उनके बारें मे जानना भी लोग चाहेंगे।

पहले हैं ब्राज़ील के बोलसनारो, उनके बारे में हमारे देशवासियों को पहले कम पता था, लेकिन इसी साल 26 जनवरी, गणतन्त्र दिवस के परेड में वह हमारी सरकार और हम सबके विशेष अतिथि थे। उनके बारे में जो कुछ कहा जाता है, उसकी परवाह न करके, इसी पर गौर किया जाये कि कोरोना के संकेत के दौरान उनका क्या रवैया रहा? दूसरे हैं, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन। इन्होंने ब्रेक्जिट के सवाल पर उपचुनाव करवाया और उसे बड़ी मज़बूती के साथ जीता भी। उनकी विरोधी लेबर पार्टी ने चुनाव से पहले सीएए/एनआरसी/एनपीआर का विरोध किया था। स्वाभाविक है कि हमारी सरकार को यह बात नागवार गुज़री और उसका समर्थन करने वाले भारतीय मूल के ब्रिटेन मे रहने वाले लोगों ने जॉनसन को जिताने में तन मन और धन लगा दिया। तीसरे हैं डोनल्ड ट्रम्प -अमेरिका के राष्ट्रपति जिनकी हमारे प्रधानमंत्री से आत्मीयता जग ज़ाहिर है, जिनके स्वागत की तैयारी में हमारे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने पूरा फरवरी का महीना ही लगा दिया।

इन तीनों मज़बूत नेताओं की बहुत सारी विशेषतायें एक-दूसरे से मिलती हैं।

तीनों ने ही कोरोना के खतरे को गंभीरता से लेने से ही इंकार किया। 24 मार्च को जब ब्राजील में हज़ार से अधिक केस सामने आ चुके थे और 100 से ऊपर लोगों की मौत हो चुकी थी, बोलसनरो ने अपने देश को संदेश देते समय कहा कि क्वारंटीन और आवाजाही पर नियंत्रण की बातें बकवास हैं और उन्होंने अपने देशवासियों से काम और स्कूल लौटने के लिए कहा। जबकि उनका स्वास्थ मंत्रालय इससे उल्टी सलाह दे रहा था। उन्होंने यहाँ तक कहा कि एक-दूसरे से दूरी बनाना आवश्यक नहीं है और यह वायरस जानलेवा नहीं, एक ‘छोटा सा फ्लू’ ही है। इसके कुछ ही हफ्ते बाद, 17 अप्रैल को बोलसनारों ने अपने स्वास्थ्य मंत्री को पद से हटाकर एक ऐसे व्यक्ति को स्वास्थ्य मंत्री बनाया जो निजी स्वास्थ्य संस्थानों का मालिक है। बोलसनारो का इस मौके पर कहना था कि कोरोना के कारण प्रतिबंध लगाने से ज़्यादा ज़रूरी था- उद्योग का चलते रहना।

निश्चित रूप से इस मज़बूत नेता के रवैये का नतीजा है कि आज तक ब्राज़ील मे 43,368 केस निकले हैं और 2,761 लोगों की मौत हो चुकी हैं।

अपनी ज़बरदस्त जीत के बाद इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन छुट्टी मनाने चले गए। जब वह लौटे तो चीन का पहला केस सामने आ चुका था लेकिन इसका कोई खास असर उन पर नहीं पड़ा। वह अपने मंत्रिमंडल के विस्तार और ब्रेक्जिट को छोड़ने के उत्सव की तैयारी में जुट गए। 29 जनवरी को इंग्लैंड मे पहले केस का पता चल गया। केस बढ़ते गए लेकिन जॉनसन की चिंता नहीं बढ़ी और 3 फरवरी को उन्होंने भाषण दिया कि इस खतरे के सामने झुकने की बजाए आर्थिक स्थिति पर काम करने  की जरूरत है। फरवरी भर केस बढ़ते गए और खास तौर से बुज़ुर्गो के। लेकिन 7 मार्च को जॉनसन खुद इंग्लैंड बनाम वेल्स के रग्बी मैच को देखने गए और वहाँ उन्होंने तमाम लोगों से हाथ मिलाये। यही नहीं उन्होंने कहा कि मैं हाथ मिलाकर दिखाऊँगा कि हमारा इस बीमारी से निपटने का तरीका क्या है? इसके बाद रेस के शौकीन ढाई लाख लोगों को एक उत्सव मे भाग लेने की अनुमति भी दी गयी।

इन्हीं दिनों कोरोना से मौतों की खबर भी आने लगी और कुछ दिन बाद इंग्लैंड के स्वास्थ्य मंत्री इससे बीमार पड़ गए। अब सरकार का रवैया थोड़ा बहुत बदला लेकिन बहुत समय बर्बाद हो चुका था। इंग्लैंड की शानदार राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा (NHS) को लगातार सरकारों ने कमजोर किया है और स्वास्थ्य सेवाओं मे निजीकरण पर ज़ोर दिया है। इसका नतीजा था कि इस महामारी से निपटने के लिए पर्याप्त सामाग्री ही नहीं थी। केस बढ़ते गए और इनका इलाज करना दिन-ब-दिन असंभव होता गया। आखिर जॉनसन की गर्भवती प्रियतमा ही बीमार पड़ गईं और 27 मार्च को बारिस जॉनसन खुद कोरोना के शिकार हो गए और उनको उसी एनएचएस का सहारा लेना पड़ा जिसे अंदर से खोखला करके निजी हाथों में सौंपने का काम उनके दल ने दशको पहले शुरू कर दिया था। अभी तक वह अपने काम पर वापस नहीं आ पाये हैं लेकिन उन्हें यह मानना पड़ा है कि उनकी जान एनएचएस ने ही बचाई। ये लेख लिखे जाने तक इंग्लैंड मे कुल 1,29,044 लोगों को कोरोना हो चुका है, जिनमें से 17,337 लोगों की मौत हो चुकी है।

अमेरिका दुनिया का सबसे धनी और शक्तिशाली देश है। उसकी सेनाएं दुनिया भर के तमाम अड्डों मे जमी हुई है। उसके पास समस्त दुनिया को बर्बाद करने के पर्याप्त हथियार और सैन्य सामग्री है। अमेरिका का राष्ट्रपति ट्रम्प भी यह कहते नहीं थकता कि वह दुनिया का सबसे ताकतवर और प्रभावशाली नेता है। लेकिन कोरोना संकट के दौर ने ट्रम्प के बड़बोलेपन के पीछे छिपे उसकी और जिस प्रणाली की वह पूरी ताकत लगाकर सेवा करता है—अनियंत्रित पूंजीवाद—की तमाम जानलेवा कमजोरियों को ढकने वाले पर्दों को बड़ी बेरहमी से फाड़ फेंका है।

ट्रम्प ने भी कोरोना संकट के प्रति बोलसनारो की तरह एक गैर-वैज्ञानिक रवैया अपनाया। मार्च के पहले हफ्ते में जब 149 कोरोना के केस सामने आ चुके थे और 11 लोग मर चुके थे तो  ट्रम्प लगातार संकट की गंभीरता को लोगों के सामने कम करने मे लगे रहे। उनके विशेषज्ञों ने बार-बार कहा कि टेस्टिंग बढ़ाने के आवश्यकता है लेकिन ट्रम्प अपने देशवासियों को एक जादुई वैक्सीन के बहुत जल्द तैयार होने का दिव्यस्वप्न दिखाते रहे। 6 मार्च को अमेरिका के राष्ट्रीय इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इनफेक्शियस डिजीज (NIAID) के अध्यक्ष फ़ौची (Dr. Anthony S. Fauci) ने उन्हें एक बैठक मे बताया कि कोरोना के लिए वैक्सीन तैयार करने मे 18 महीने लग सकते हैं तो ट्रम्प ने जवाब दिया कि अगर कुछ ही महीनों की बात करते तो मुझे अच्छा लगता। उसी दिन एक आम सभा में अपने भाषण मे ट्रम्प ने कहा कि वैक्सीन बहुत जल्द उपलब्ध होने वाली है।

अमेरिका में मार्च भर और उसके बाद कोरोना के केस और उनसे होने वाली मौतें बढ़ती गयी। ट्रम्प की प्रतिक्रिया बहुत अजीब थी। पहले उन्होंने चीन पर बड़े आरोप लगाने की शुरुआत की और कोरोना को चीनी वायरस कह कर पुकारना शुरू किया। उन्होंने इस बात के संकेत दिये कि शायद चीन ने साजिश के तहत कोरोना वायरस को फैलाने का काम किया है। इसके साथ ही अमेरिका में आने वाले प्रवासियों पर उन्होंने अपने हमलों को इस हद तक तीव्र किया कि जब कोरोना से निपटने के लिए उनसे पैसा उपलब्ध कराने की मांग तमाम राज्यों के नेता कर रहे थे तब कोरोना की चपेट मे 27,000 अमरीकी मर चुके थे। उन्होंने एक ऐसी कंपनी जिसके अच्छे राजनीतिक संबंध हैं को 500,000,000 डालर का ठेका अमेरिका और मेक्सिको के बीच बन रही दीवार के 25 किलोमीटर बनाने के लिए दे दिया। यानी जितना इससे पहले उन्हीं के शासन मे खर्च होता था उसका डेढ़ गुना।

यही नहीं,अपनी विचित्र सोच के चलते ऐसी हालत में जब अमेरिका मे सबसे अधिक केस निकल चुके थे और कोरोना से मरने वालों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक हो गयी थी तो ट्रम्प लोगों के आवागमन और तमाम उद्योग और बिज़नस पर लगे प्रतिबंधों का लगातार प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीके से विरोध कर रहे थे। पिछले हफ्ते तीन ऐसे राज्यों में जहां डेमोक्रेटिक दल के गवर्नर हैं। वहां प्रतिबंधों के खिलाफ ज़बरदस्त प्रदर्शन हुए हैं। यहाँ तक कि प्रदर्शनकारी अपने हाथों में हथियार लिए देखे गए हैं। उत्तेजनात्मक नारे खूब गूँजे हैं। गाड़ियों की लंबी कतारे लगाकर खूब हार्न बजाए गए। प्रदर्शनकारी ट्रम्प के समर्थक ही थे,जिन्होंने इनका आयोजन सोशल मीडिया द्वारा खुलकर किया।

ट्रम्प समर्थक ईसाई कट्टरपंथियों ने भी इनमें भाग लिया। एक का तो बैनर था ‘ईसा ही वैक्सीन है’। इन प्रदर्शनों के बारे में ट्रम्प ने दो तरह की बातें कीं एक तरफ तो उन्होंने आह्वान किया कि जनता मुक्ति का संघर्ष करे। दूसरी ओर उन्होंने कोरोना से निपटने की कुछ बातें कीं। लेकिन इन प्रदर्शनों के लिए उनको और उनकी विचारधारा और उसके समर्थक लोगों को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इस तरह कि गतिविधियों और उनको प्रोत्साहित करने वाली सोच के चलते आज अमेरिका की स्थिति यह है कि वहाँ 8,26,024 केस हैं और 75,405 लोग मर चुके हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि ट्रम्प पागल हैं—अमेरिका के कई वरिष्ठ नेताओं, पत्रकारों, वैज्ञानिक इत्यादि ऐसा कई बार कह चुके हैं। और इस तरह की बात बोलसनारों और जॉनसन के बारे मे भी की जाती हैं। लेकिन पते की बात तो यह है कि ये मज़बूत नेता ऊल जलूल और गैर-वैज्ञानिक बाते करते हैं। दुनिया के सामने अपनी धूर्तता का प्रदर्शन करते हैं लेकिन जहां निजी उद्योगो को संरक्षण देने की बात करते हैं, वहाँ वह पूरी लगन और होश-हवास के साथ काम करते हैं।

बोलसनारों ने कोरोना संकट के दौरान अमेज़न (Amazon) के जंगलों पर अपना हमला कई गुना बढ़ा दिया है। वह जंगल जो मानव भविष्य के लिए अति-महत्वपूर्ण माना जाता है, उसमें हजारों वर्ग-किलोमीटर आग के हवाले कर दिये गए हैं। बोलसनारों ने इस जंगल के नाश करने की घोषणा के साथ साथ उसमे रहने वाले हजारों आदिवासियों के बारे में कहा है कि उन्हें अपनी ज़मीन पर एक पुरातन काल के जानवर की तरह रहने नहीं दिया जाएगा। इन आदिवासियों के स्वास्थय-लाभ के लिए क्यूबा के डॉक्टर दूर दराज़ के गांवों मे जाकर लोगों की सेवा करते थे। उनको बोलसोलानारों ने 2019 मे पद संभालते ही एकाएक वापस क्यूबा भेज दिया। उनके स्कूलों मे शिक्षकों ने आना छोड़ दिया क्योंकि सरकार ने उनका वेतन देना बंद कर दिया है। बोलसनारो की विनाशकारी नीतियों का नतीजा तब सामने आया जब 2 अप्रैल को अमेज़न के जंगल मे एक आदिवासी महिला को कोरोना पॉजिटिव घोषित किया गया।

यह संयोग नहीं है कि इससे कुछ ही दिन पहले 30 मार्च को जब फ्रांस के नेता ने ब्राज़ील से उसकी अमेज़न के प्रति विनाशकारी नीति के चलते वाणिज्य समझौता न करने का प्रस्ताव रखा तो बॉरिस जॉनसन ने इसका समर्थन करने से इंकार किया जिसके लिए बोलसोनारों ने उनका बार-बार धन्यवाद दिया।

ट्रम्प भी अपने असली एजेंडे के प्रति बहुत वफादार हैं। वह किसी तरह के सार्वजनिक सुविधा को उपलब्ध कराने के घनघोर विरोधी हैं और निजी क्षेत्र के हितों की रक्षा मे दिन-रात जुटे रहते हैं। उनकी यही निष्ठा आज अमेरिकी जनता के स्वास्थ्य कि सबसे बड़ी दुश्मन साबित हो रही है और इसी सच्चाई को ट्रम्प हर कीमत पर छुपाना चाहते हैं।

ट्रम्प ने अपने शासन काल के पहले दो वर्षों मे ही सरकारी वैज्ञानिक संस्थाओं मे काम करने वालों की जमकर कटौती की। 1,600 सरकारी वैज्ञानिकों ने अपनी नौकरियाँ छोड़ी। कोरोना के बाद अपने 2021 के बजट के  लिए ट्रम्प ने सेंटर फार डीजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) के बजट मे 16% कटौती कर डाली।

निजीकरण के ज़बरदस्त पक्षधर ट्रम्प ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के सवाल को हमेशा हिकारत की नज़र से देखा है। अपने चुनाव अभियान में भी उन्होंने ओबामा के सीमित स्वास्थ्य बीमा योजना पर जमकर प्रहार किया और अपने शासन काल में उन्होंने इस योजना को निरर्थक बनाने की पूरी कोशिश की है। 2018 मे अमेरिका में 3 करोड़ लोग थे जो स्वास्थ्य बीमा से वंचित थे। अब जब बेरोजगारों की संख्या पिछले हफ़्तों मे डेढ़ करोड़ से अधिक से बढ़ गयी है यह संख्या भी बहुत बढ़ जाएगी। इसका नतीजा है कि हर मरीज के सामने बड़े प्रश्न हैं कि इलाज का पैसा कौन देगा? यही नहीं, लाखों लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने पिछले सालों मे महंगे इलाज के डर के कारण अक्सर अपना इलाज किया नहीं है। अब यह कोरोना के शिकार अधिक आसानी से हो सकते हैं। यही कारण है कि कोरोना के मरीजों मे काली नस्ल के लोगों का अनुपात बहुत अधिक है। अब डॉक्टरों का कहना है कि अगर लोग खर्चे के डर के मारे डॉक्टर के पास नहीं जाएंगे, टेस्ट नहीं करवाएंगे तो फिर कोरोना से निपटना बहुत मुश्किल होगा।

यही नहीं, निजी स्वास्थ्य संस्थानों की मुनाफाखोरी भी संकट को और गंभीर बना रही है। कल्पना से परे यह बात लगती है कि इस संकट के दौर मे बहुत सारी निजी स्वास्थ्य संस्थाएं अपना खर्च बचाने के लिए अपने कर्मचारियों को छुट्टी दे रही हैं। इसका एक कारण यह है कि यह संस्थाएं ‘अमीरों’ के इलाज—प्लास्टिक सर्जरी, सुंदरीकरण, दांतों को सीधा करना इत्यादि—में ही खूब कमा रहीं थी। अब इसकी संभावना फिलहाल नहीं दिखाई दे रही है तो स्टाफ को छुट्टी दी जा रही है। स्वास्थ्य कर्मियों कि परेशानी केवल कोरोना से लड़ने की नही हैं। उनको भी डर है कि अगर वे बीमार पड़ गए या उनके परिवार के किसी सदस्य को उनके द्वारा इन्फेक्शन हो गया तो उन्हें लेने के देने पड़ जायेंगे। हाल ही में एक भारतीय मूल की अमेरिकी नर्स की कोरोना वार्ड में मौत हो गयी और इसके साथ ही उसके पति और बेटी का उस अस्पताल में इलाज करवाने की सुविधा समाप्त कर दी गयी।

दूसरी तरफ, निजी स्वास्थ बीमा कंपनियों की चाँदी है। कोरोना के डर के मारे लोग अपना बीमा करवा रहे हैं, प्रीमियम भर रहे हैं लेकिन इस डर से कि बीमा कंपनियों से पैसा वसूलना बहुत कठिन साबित होगा वह इलाज कराने से कतरा रहे हैं। इसका भरपूर फायदा बीमा कंपनियाँ उठा रही हैं।

एक अस्पताल के ICU के चिकित्सक डॉ. गैफनी ने कहा कि जिस तरह से अमेरिका मे स्वास्थ्य सेवा की प्रणाली को चलाया जाता है वह महामारी के प्रहार को और ज़बरदस्त कर रहा है।

और यही वह स्वास्थ्य सेवा की प्रणाली है जिसे ट्रम्प अपनी पूरी ताकत लगाकर ज़िंदा रखना चाहते हैं। इसी निजी स्वास्थ्य सेवाओं की प्रणाली को जॉनसन अब तक इंग्लैण्ड मे वहाँ की एक जमाने में आदर्श रही एनएचएस का निजीकरण करके अपनाना चाहते थे—हो सकता है कि खुद कोरोना की चपेट में आने के बाद वे अपनी राय बदलेंगे। बोलसोनारो तो निजीकरण के ऐसे अंध भक्त हैं कि वह अपनी देश की सबसे कीमती सम्पदा—अमेज़न का जंगल—को जलाकर राख़ करके उसकी पूरी ज़मीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर देना चाहते हैं।

इन मज़बूत नेताओं से उनके देशवासियों को ही नही, दुनिया भर के लोगों को अनेक खतरे हैं। इसीलिए दूसरे देशों और हमारे अपने देश के मज़बूत नेताओं को उनको अपना आदर्श न मानकर उनकी विनाशकारी नीतियों से परहेज करने की आदत डालनी चाहिए। निजीकरण के खतरों से अपनी जनता को बचाने की शुरुआत करनी चाहिए।

अच्छी बात तो यह है कि अपने ही देश में एक ऐसे मज़बूत नेता की अलग तरह की मिसाल मौजूद है। केरल के मुख्यमंत्री भी बहुत मज़बूत नेता माने जाते हैं। लेकिन उनकी मज़बूती आम जनता और खास तौर से गरीब, मेहनत करने वाली जनता, से मज़बूत संबंध से प्राप्त होती है। वे जिस वाम परंपरा का हिस्सा हैं, उसने उनके राज्य मे स्वास्थ सेवा (और अन्य सेवाओं) का मज़बूत ढांचा भी तयार किया है। इसीलिए जब 30 जनवरी को केरल मे कोरोना का पहला मरीज पाया गया तो वह मज़बूत नेता, उनके राज्य की मज़बूत जनता और उस राज्य मैं मौजूद स्वास्थ्य सेवा का मौजूद मज़बूत ढांचा इस नई चुनौती का सामना करने के लिए तैयार थे।

(लेखक संसद की पूर्व सदस्य और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमन्स एसोसिएशन (AIDWA) की उपाध्यक्ष हैं।)

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