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बेरोज़गारी का महाविस्फोट और काम के संवैधानिक अधिकार का सवाल

मोदी-योगी राज में प्रदेश और देश रोजगार-संकट के महाविस्फोट के मुहाने पर पहुंच गया है। स्वाभाविक रूप से इस पर तमाम लोकतांत्रिक हलकों में चिंता गहराती जा रही है और तरह तरह की कोशिशें शुरू हुई हैं।
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फ़ोटो साभार: ट्विटर

15-16 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग ( UPSSSC ) द्वारा आयोजित UP PET परीक्षा के लिए जान की बाजी लगाकर ट्रेन में लटककर, छतों पर चढ़कर जाते युवाओं के जो वीडियो और फोटो आये हैं वे दिल दहला देने वाले हैं।

साढ़े 36 लाख युवा इसमें शामिल होने थे। शुचिता के नाम पर दूर-दूर रखे गए परीक्षा-केंद्रों की ओर वे सीमित संख्या में उपलब्ध ट्रेनों में जानवरों की तरह ठूंस कर, बाहर लटककर या छत पर बैठकर जाने को मजबूर थे। राजधानी लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर भगदड़, एक प्रतियोगी छात्र की ट्रेन में दम घुटने से मौत, एक अन्य के घायल होने, लखनऊ से परीक्षा देकर लौटने के अगले दिन ही इलाहाबाद में एक छात्र की आत्महत्या की खबर आ चुकी है। शायद पूरी खबरें आनी अभी बाकी हैं। यह संयोग ही है कि कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ।

इसमें खास तौर से छात्राएं-युवतियां कैसे गयी होंगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। लगभग 12 लाख से ऊपर अर्थात एक तिहाई छात्रों की परीक्षा छूट गई। जाहिर है इनमें कमजोर तबकों के युवा और सर्वोपरि छात्राएं/युवतियां होंगी जो सूदूर केंद्रों पर इन हालात में जाना afford नहीं कर सकते थे। जिस शुचिता के नाम पर छात्र-युवाओं की जान-जोखिम में डाली गयी उसका आलम ये रहा कि समाचारों के अनुसार  " 8 साल्वर व अभ्यर्थी गिरफ्तार। यूपी एसटीएफ को मिली बड़ी सफलता । UPPET परीक्षा में सॉल्वरों, अभ्यर्थियों समेत 8 लोगों की गिरफ्तारी। अमेठी से 2, उन्नाव से 3 सॉल्वर गिरफ्तार। जौनपुर और कानपुर से 2-2 सॉल्वर गिरफ्तार।"

जाहिर है जहाँ नौकरियों की परीक्षाओं, नियुक्तियों में भ्रष्टाचार के संगठित गिरोह फल-फूल रहे हों वहाँ परीक्षा केन्द्र 200 से 500 किमी दूर रखकर बेरोजगारों को अमानवीय यातना देने से शुचिता नहीं आने वाली है। वरना यह वही प्रदेश है जहां सर्वोच्च सिविल सेवाओं की परीक्षा भी इलाहाबाद में रहने वाले छात्र इलाहाबाद में ही देते थे।

मजेदार यह है कि यह किसी विज्ञापित नौकरी में भर्ती के लिए परीक्षा नहीं थी।बल्कि यह महज यह टेस्ट करने के लिए है कि UPSSSC की भविष्य में कोई vacancy निकले तो उसकी परीक्षा में बैठने के लिए आप पात्र हैं कि नहीं, वह भी मात्र 1 साल के अंदर। इसकी सर्टिफिकेट से आपको मिलने वाली पात्रता की वैलिडिटी मात्र 1 साल है। अर्थात 1 साल बाद वैकेन्सी निकले तो यह पात्रता परीक्षा आपको फिर पास करनी होगी!

सरकार की संवेदनहीनता का आलम यह है कि यह सब तब हुआ जब प्रदेश के कई इलाके भीषण बाढ़ की चपेट में हैं।

योगी सरकार इस आपराधिक कृत्य के लिए प्रतियोगी छात्रों से माफी मांगने, कोई स्पष्टीकरण देने और भविष्य के लिए corrective measures लेने की बजाय denial mode में है।

सोशल मीडिया में चल रही कुछ तस्वीरों और वीडियो को दूसरे प्रदेश के रेलवे स्टेशन की भीड़ बताकर समाज में अफवाह फैलाने, लोगों को गुमराह करने और अस्थिरता उत्पन्न करने का आरोप लगाकर मुख्यमंत्री कार्यालय ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लिया।

दरअसल, इन तमाम ऊलजलूल परीक्षाओं के मकड़जाल में साल दर साल भर्ती प्रक्रिया को लटकाए रखने के पीछे सरकार की रणनीति है छात्र-युवाओं को इनमें लगातार उलझाए रखना। क्योंकि इन्हें नौकरी देने की सरकार की न नीयत है,न उसके पास नीति है।

मोदी-योगी राज में प्रदेश और देश रोजगार-संकट के महाविस्फोट के मुहाने पर पहुंच गया है। स्वाभाविक रूप से इस पर तमाम लोकतान्त्रिक हलकों में चिंता गहराती जा रही है और तरह तरह की कोशिशें शुरू हुई हैं।

एक स्वागतयोग्य पहल हाल ही में 11अक्टूबर को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब से हुई है जहां 32 साल बाद फिर रोजगार को मौलिक अधिकार में शामिल करने की बात जोरदार ढंग से उठी। इसमें रोजगार के अधिकार को लेकर एक व्यापक आधार वाला जनान्दोलन खड़ा करने की रणनीति और कार्ययोजना पर विचार-विमर्श हुआ और इसे मूर्त रूप देने के लिए महत्वपूर्ण फैसले लिए गए।

देश बचाओ अभियान की ओर से गठित "रोजगार और बेरोजगारी पर जन आयोग " की ओर से सुविख्यात अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का शीर्षक है, "भारत को सही मायनों में एक सभ्य और लोकतान्त्रिक राष्ट्र बनाने के लिए रोजगार का अधिकार सम्भव ( feasible ) है और अपरिहार्य ( indispensable ) है।" इस दावे के समर्थन में रिपोर्ट में आर्थिक नीतियों और उपायों का ठोस ब्लूप्रिंट पेश किया गया है जिससे इसे जमीन पर उतारा जा सकता है।

वैसे तो तमाम प्रगतिशील छात्र-युवा संगठन और लोकतान्त्रिक ताकतें इस सवाल को लंबे समय से उठाती रही हैं, लेकिन1989 वह आखिरी साल था जब यह सवाल एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न बना था।

3 दिसम्बर 1989 को देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने राष्ट्र के नाम अपने पहले प्रसारण में कहा था, " मानव संसाधन हमारे देश की सबसे बड़ी सम्पदा है। बेरोजगारी उस संसाधन के समुचित उपयोग के रास्ते में बाधा है। हम काम के अधिकार को संविधान का अंग बनाएंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि सबको सरकारी नौकरी मिल जाएगी। लेकिन इसका यह अर्थ जरूर है कि लोगों के पास एक राजनीतिक अधिकार होगा जो सरकारों को ऐसी नीतियां लागू करने के लिए बाध्य करेगा जिससे बेरोजगारों के लिए काम पैदा हो।"

1 जनवरी 1990 को सरकार ने अपने इस संकल्प की घोषणा किया कि वह संसद के बजट सत्र में काम को भारतीय संविधान के  मौलिक अधिकारों में शामिल करने के लिए बिल ले आएगी। वह घोषणा मूर्त रूप नहीं ले सकी थी, सरकार 11 महीने में ही गिर गयी थी।

बहरहाल, 1991 में नवउदारवादी नीतियों के आगमन के बाद से पिछले तीन दशक से तो राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठना भी बंद हो गया है। रोजगार का संकट लगातार गहराता गया, लेकिन मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं रह गया।

यह सच है कि अर्थव्यवस्था के विकास के एक निश्चित स्तर के बिना सबको रोजगार मुहैया नहीं कराया जा सकता। यह भी साफ है कि देश में political economy के मौजूदा ढांचे में रेडिकल बदलाव के बिना इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता क्योंकि बेरोजगारी प्रभुत्वशाली आर्थिक ताकतों के हित में उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों द्वारा लागू नीतियों का सीधा परिणाम है और इसे बनाये रखने में उनका निहित स्वार्थ है।

बहरहाल, प्रो. अरुण कुमार आयोग ने ठोस तथ्यों और तर्कों के साथ यह साबित किया है कि हमारे दिए हुए राष्ट्रीय संसाधनों में ही आर्थिक नीतियों के पुनर्विन्यास द्वारा सबके लिए काम के अधिकार की गारंटी करना सम्भव है और यह अंततः हमारी सम्पूर्ण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास को भी जबरदस्त आवेग देगा।

एक मौलिक संवैधानिक अधिकार के बतौर काम के अधिकार की  स्वीकृति इसे एक justiciable right तो बनाएगी ही, इसे सामाजिक-राजनीतिक वैधता प्रदान करेगी, और राज्य को जवाबदेह बनाएगी।  यह बेरोजगारी बढ़ाने वाली नीतियों के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा करेगी तथा इससे रोजगार-सृजन की दिशा में आर्थिक नीतियों को बदलने के लिए सरकार पर दबाव बनेगा। 

सरकार इस संवैधानिक अधिकार को लागू करने से पीछे हटती है तो इसके ख़िलाफ़ प्रतिवाद जनता  की चेतना को उन्नत करेगा और बड़े लोकतान्त्रिक आंदोलन की प्रेरणा बनेगा। हर संवैधानिक अधिकार जनता को empower करता है, लोकतन्त्र को व्यापक बनाता है, उसे गहरा करता है। 

काम के अधिकार के लिए प्रो. अरुण कुमार आयोग के सुस्पष्ट तर्कों और convincing रोडमैप के बावजूद असली सवाल तो सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति का है। जाहिर है इसकी संवैधानिक स्वीकृति के लिए व्यापक आधार वाले बड़े जनान्दोलन की जरूरत है। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में आज इसका भारी महत्व है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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