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'वन नेशन वन इलेक्शन’ के जुमलों के बीच एक राज्य में 8 चरणों में चुनाव के मायने!

इस चुनाव कार्यक्रम से न सिर्फ़ चुनाव आयोग की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगता है, बल्कि इन आरोपों को भी बल मिलता है कि केंद्र सरकार ने अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह चुनाव आयोग की स्वायत्तता का भी अपहरण कर लिया है।
वन नेशन वन इलेक्शन
फोटो साभार: eci.gov.in

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुछ चर्चित इरादों में से एक है- 'वन नेशन वन इलेक्शन।’ यानी देशभर में पंचायत से लेकर लोकसभा तक के सारे चुनाव एक साथ। पिछले छह सालों के दौरान वे यह इरादा कई बार जता चुके हैं। यहां तक कि संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति के मुंह से भी यह बात कहलवा चुके हैं। प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाते हुए चुनाव आयोग भी एक से अधिक बार कह चुका है कि वह सारे चुनाव एक साथ कराने में पूरी तरह सक्षम है। लेकिन प्रधानमंत्री अपने इस इरादे को लेकर कितने गंभीर हैं और चुनाव आयोग इस इरादे को अमली जामा पहनाने में कितना सक्षम है, इसका अंदाजा पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए घोषित कार्यक्रम को देखकर लगाया जा सकता है।

चुनाव आयोग ने चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनाव का जो कार्यक्रम घोषित किया है, वह पूरे दो महीने चलने वाला है। इस कार्यक्रम से न सिर्फ़ उसकी क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगता है, बल्कि इन आरोपों को भी बल मिलता है कि केंद्र सरकार ने अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह चुनाव आयोग की स्वायत्तता का भी अपहरण कर लिया है। क्योंकि पूरा चुनाव कार्यक्रम केंद्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक हितों और उसके प्रधान प्रचारक नरेंद्र मोदी की सहूलियत को ध्यान में रखकर बनाया गया लगता है!

घोषित चुनाव कार्यक्रम के मुताबिक जिन राज्यों में भाजपा चुनावी मुकाबले में नहीं है वहां सभी सीटों पर एक ही दिन मतदान होगा लेकिन जहां भाजपा मुख्य मुकाबले में है या खुद को मान रही है, वहां तीन से लेकर आठ चरणों में मतदान होगा। इसलिए सवाल उठने स्वाभाविक हैं।

मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा द्वारा शुक्रवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जारी किए गए 62 दिन लंबे चुनाव कार्यक्रम के मुताबिक तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में एक ही चरण में सभी सीटों के लिए मतदान होगा, जबकि पश्चिम बंगाल में आठ और असम में तीन चरणों में मतदान होगा। सभी राज्यों के चुनाव नतीजे 2 मई को आएंगे।

तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में सभी सीटों के लिए 6 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे, जबकि पश्चिम बंगाल में मतदान का पहला चरण 27 मार्च को, दूसरा चरण 1 अप्रैल को, तीसरा चरण 6 अप्रैल को, चौथा चरण 10 अप्रैल को, पांचवा चरण 17 अप्रैल को, छठा चरण 22 अप्रैल को, सातवां चरण 26 अप्रैल को ओर आठवां चरण 29 अप्रैल को संपन्न होगा। इसी तरह असम में पहले चरण का मतदान 27 मार्च को, दूसरे चरण का 1 अप्रैल को और तीसरे चरण का मतदान 6 अप्रैल को होगा।

पुदुचेरी में 30 सदस्यों वाली विधानसभा के लिए तो एक ही चरण में मतदान कराने का औचित्य समझा जा सकता है लेकिन तमिलनाडु में 234 सीटों वाली विधानसभा और केरल की 140 सीटों वाली विधानसभा के लिए भी एक ही चरण में मतदान कराना किसी भी तरह से तर्कसंगत नहीं लगता है, खासकर ऐसी स्थिति में जबकि 126 सीटों वाली असम विधानसभा के लिए तीन चरणों में और 294 सीटों वाली पश्चिम बंगाल विधानसभा के लिए आठ चरणों में मतदान कराया जाना है।

तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक मौजूदगी नाममात्र की है और वहां उसका कुछ भी दांव पर नहीं है। तमिलनाडु में चुनावी मुकाबला सीधे-सीधे दोनों द्रविड पार्टियों ऑल इंडिया अन्ना द्रविड मुनैत्र कडगम यानी अन्ना द्रमुक (एआईएडीएमके) और द्रविड मुनैत्र कडगम यानी द्रमुक (डीएमके) के बीच होना है। यहां कांग्रेस डीएमके की सहयोगी पार्टी रहेगी, जबकि भाजपा अपनी नाममात्र की उपस्थिति के साथ एआईएडीएमके के गठबंधन का हिस्सा होगी। पुदुचेरी में भी कांग्रेस और डीएमके गठबंधन का सीधा मुकाबला एआईएडीएमके से होगा, जिसमें भाजपा कहीं नहीं होगी। इसी तरह केरल में भी मुख्य मुकाबला वामपंथी मोर्चा और कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन के बीच होगा। इसलिए वहां भी सभी सीटों के लिए एक ही दिन मतदान रखा गया है।

दूसरी ओर असम में जहां भाजपा की सरकार है और वहां उसे इस बार कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाले युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के गठबंधन से कड़ी चुनौती मिलने की उम्मीद है, इसलिए वहां तीन चरणों में मतदान रखा गया है। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में जहां भाजपा ने इस बार सरकार बनाने का दावा करते हुए पिछले कई महीनों से अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है, वहां आठ चरणों में मतदान कराया जाएगा। इतने अधिक चरणों में मतदान तो 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भी नहीं करवाया गया था, जो कि आबादी और विधानसभा सीटों के साथ ही क्षेत्रफल के लिहाज से भी पश्चिम बंगाल की तुलना में बहुत बड़ा है। 403 सदस्यों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए 2017 के चुनाव में सात चरणों में मतदान कराया गया था। यही नहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मतदान के सात चरण ही रखे गए थे।

बहरहाल पश्चिम बंगाल का चुनाव कार्यक्रम तो ऐसा लगता है मानो भाजपा मुख्यालय में तैयार कर मुख्य चुनाव आयुक्त को प्रेस कॉन्फ्रेंस में पढ़ने के लिए भेज दिया गया हो। इसे हद पार करना ही कहेंगे कि दक्षिण बंगाल और जंगलमहल जैसे इलाकों में जहां भाजपा मजबूत स्थिति में है, वहां एक साथ मतदान होगा जबकि जिन इलाकों में तृणमूल कांग्रेस मजबूत है वहां कई चरणों में मतदान निर्धारित किया गया है। इनमें भी कहीं-कहीं तो एक ही जिले की सीटों पर अलग-अलग चरणों में मतदान कराया जाएगा।

दरअसल चुनाव कार्यक्रम ज्यादा लंबा होने से राजनीतिक दलों के चुनाव अभियान का खर्च भी बढ़ जाता है। चूंकि भाजपा देश की सर्वाधिक साधन संपन्न पार्टी है और इस समय वह केंद्र सहित कई राज्यों में सत्तारुढ़ भी है, लिहाजा उसे कॉरपोरेट घरानों से चुनावी चंदा भी इफरात में मिलता है, इसलिए ज्यादा लंबे चुनाव कार्यक्रम उसे खूब रास आते हैं। इससे उसकी आर्थिक सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उसकी विपक्षी पार्टियां इस मामले में उसके आगे कहीं नहीं ठहरतीं।

वैसे यह सवाल कोई पहली बार नहीं उठे हैं कि चुनाव आयोग ने सत्तारुढ़ दल के राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए इतना बेतुका और लंबा चुनाव कार्यक्रम जारी किया हो। 2015 से लेकर अब तक हुए लगभग सभी विधानसभा चुनावों के कार्यक्रम इसी तरह तय हुए हैं। यही नहीं, कुछ राज्यों में तो राज्यसभा की एक साथ रिक्त हुई दो सीटों के चुनाव भी अलग-अलग तारीखों में कराए हैं। ऐसे मौकों पर जब भी किसी राजनीतिक दल ने सवाल उठाए हैं तो केंद्र सरकार के मंत्री और भाजपा के दूसरे नेता ही नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री मोदी चुनाव आयोग के बचाव में सामने आए हैं। इस बार भी जो सवाल उठ रहे हैं, उनका जवाब चुनाव आयोग नहीं, बल्कि उसकी ओर से भाजपा के नेता दे रहे हैं।

चुनाव आयोग पर सिर्फ यही आरोप नहीं है कि उसने चुनाव कार्यक्रम तय करने में पक्षपात किया है बल्कि यह भी आरोप हैं कि पिछले कई विधानसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री तथा अन्य केंद्रीय मंत्रियों द्वारा खुलेआम आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने के मामलों को भी उसने सिरे नजरअंदाज किया है और विपक्षी दलों की ओर से की गई शिकायतों को सिरे से खारिज किया है। ईवीएम मशीनों की गड़बड़ियों और मतों की गिनती के मामले में हुई धांधलियों की घटनाओं पर आयोग मूकदर्शक बना रहा है। ऐसी भी ख़बरें सामने आईं कि आचार संहिता के उल्लंघन के प्रधानमंत्री से जुड़े एक मामले में एक चुनाव आयुक्त ने मुंह खोलने की कोशिश की भी थी, लेकिन कुछ ही दिनों बाद उनके परिवारजनों के यहां इनकम टैक्स और प्रवर्तन निदेशालय के छापे पड़ गए थे।

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के शासनकाल में चुनाव आयोग पक्षपात के आरोपों से मुक्त रहा हो या उस दौर के मुख्य चुनाव आयुक्त दूध के धुले रहे हों। टीएन शेषन और जेएम लिंगदोह के अलावा लगभग सभी मुख्य चुनाव आयुक्तों के साथ थोडे-बहुत विवाद तो जुड़े ही रहे हैं लेकिन मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा और 2017-18 के दौरान इस पद पर रहे अचल कुमार ज्योति तो विवादों के पर्याय ही बन गए।

बहरहाल पांच राज्यों के लिए घोषित अजीबोगरीब चुनाव कार्यक्रम से चुनाव आयोग की साख पर पहले से उठ रहे सवाल तो गहराए ही हैं, साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'वन नेशन, वन इलेक्शन’ का इरादा भी शिगूफा साबित हुआ है। उनकी ओर से जब-जब भी सारे चुनाव एक साथ कराने की बात कही गई, तब-तब चुनाव आयोग ने भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि वह सारे चुनाव एक साथ कराने के लिए तैयार है। लेकिन सवाल है कि जो चुनाव आयोग पांच राज्यों के चुनाव एक साथ नहीं करा सकता, वह पूरे देश के सभी चुनाव कैसे एक साथ करा लेगा?

जो भी हो, हास्यास्पद और कई तरह के विरोधाभासों से भरे चुनाव कार्यक्रम से एक बार फिर इन्हीं बातों को बल मिला है कि चुनाव आयोग पिछले लंबे समय से सरकार के रसोईघर में तब्दील हो गया है, जिसमें मुख्य चुनाव आयुक्त रसोइए की भूमिका निभाते हुए वही सब कुछ पकाते हैं जो केंद्र सरकार और सत्ताधारी पार्टी चाहती है। इसलिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, वामपंथी दल, कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों का घोषित हुए चुनाव कार्यक्रम पर बिफरना और चुनाव आयोग की नीयत पर सवाल उठाना स्वाभाविक ही है।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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