NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu
image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
धारणाओं की जंग में तब्दील होता किसान आंदोलन
धारणाओं के खेल में बाजी उसके हाथ लगती है जिसके पास प्रचारतंत्र होता है। कहानी गढ़ने वाले होते हैं और उन गढ़ी हुई कहानियों को आधार बनाकर क़ानूनी कार्यवाहियों के अधिकार होते हैं।
सत्यम श्रीवास्तव
28 Jan 2021
किसान आंदोलन
Image courtesy: Twitter

जब देश के दानिशमंद इस निष्कर्ष पर लगभग पहुँच ही रहे थे कि इस किसान आंदोलन ने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ-साथ मौजूदा मीडिया से धारणाओं की लड़ाई जीत ली है। अब तक देश में हुए जन आंदोलनों को जिस पैटर्न पर कुचला गया उसमें धारणाओं का ही खेल सबसे प्रमुख रहा। 

हमने देखा है कि फिल्म एण्ड टेलिविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) के विद्यार्थियों का आंदोलन जो गजेंद्र चौहान जैसे निम्नस्तरीय कलाकार को संस्थान का निदेशक बनाए जाने से शुरू हुआ था, उसे किस तरह से मीडिया के माध्यम से उन्हीं विद्यार्थियों के चरित्र हनन का माध्यम बना दिया गया। उभरते हुए  राष्ट्रवाद की लहर पर सवार देश की जनता के मन में स्थायी तौर पर यह बिठा दिया गया कि इस संस्थान के विद्यार्थी युधिष्ठिर जैसी भूमिका निभाने वाले गजेंद्र चौहान का विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि ये विद्यार्थी कुसंस्कारी हैं। ड्रग्स लेते हैं। वहाँ पढ़ने वाले लड़के और लड़कियां व्यभिचार में लिप्त रहते हैं। इस नैरेटिव को बहुसंख्यक जनता का अपार समर्थन मिला और यह आंदोलन विद्यार्थियों और उस संस्थान की खुली संस्कृति के खिलाफ जाकर, आंदोलन के नेताओं के खिलाफ मुक़द्दमे डालकर खत्म हुआ। आंदोलनों को कुचलने की यह पहली सफलता सरकार को मिली।  

इसके बाद हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या से उपजे देशव्यापी छात्र आंदोलन को मृत रोहित और उसके बहाने उसके संगठन और उसकी समूची अस्मिता पर न केवल निम्न दर्जे के प्रहार करके इस असंतोष को दबाया गया बल्कि छात्रों के स्वत: स्फूर्त लोकतान्त्रिक, अहिंसक आंदोलन के खिलाफ पूरे देश में माहौल बनाया गया। रोहित वेमुला दलित हैं या नहीं इसे लेकर केन्द्रीय स्तर के मंत्री लगातार प्रेस कान्फ्रेंस कर रहे थे। मीडिया रोहित की पैदाइश पर सवाल उठा रही थी। हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर में भाजपा और उसके छात्र संगठनों ने छात्र आंदोलन दबाने के लिए हिंसा तक सहारा लिया और यह आंदोलन भी लगभग उसी गति को प्राप्त हुआ जैसा FTII के आंदोलन के साथ हुआ। विद्यार्थियों को ही विलेन बताया गया। शोधार्थियों को मिलने वाली फैलोशिप को अय्याशी का साधन बताने और बहुसंख्यकों के मन इसे ठीक से बिठाने में सरकार फिर कामयाब हुई।  

इसी आंदोलन की लपट देश के अन्य राज्यों में पहुंची और अलग-अलग विश्वविद्यालयों के छात्रों ने एक समन्वय समिति बनाई और इसकी ज़िम्मेदारी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने ली। इसके बाद से ही जेएनयू सरकार के निशाने पर आ गया था। न केवल जेएनयू के छात्र संगठनों और छात्रों को ही बल्कि शैक्षणिक परिसरों की आधुनिक संस्कृति को भारतीय संस्कृति के बरक्स खड़ा करके पूरे देश में ऐसे शैक्षिक परिसरों के खिलाफ एक धारणा बनाई गयी और निस्संदेह इससे देश के सर्वोच्च विश्वविद्यालय की मुक्त व स्वायत्त अवधारणा को स्थायी तौर पर गंभीर नुकसान पहुंचाने की सफल कोशिश की गई। राष्ट्रवाद के आवरण में हिंसक सुनियोजित साज़िशों ने छात्रों की कल्पनाशीलता और उनके बौद्धिक विकास के लिए ज़रूरी उन्मुक्त वातावरण को ही भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताकर बहुत नकारात्मक असर पैदा किए गए। हालांकि इससे पूरे देश में भाजपा को एक नैरेटिव बनाने में मदद मिली और जिन लोगों ने कभी जेएनयू जैसे कैंपस नहीं देखे उन्होंने भी उच्च शिक्षा के इन एडवांस परिसरों के खिलाफ स्थायी राय बना ली। इस आंदोलन में एक मोड़ तब आया जब एक चैनल ने और तत्कालीन शिक्षा मंत्री की स्टाफ ने मिलकर एक अप्रामाणिक वीडियो बनाया और उसे दिन रात चैनलों पर चलाया। इस वीडियो में जेएनयू के छात्रों को देश विरोधी नारे लगाते हुए दिखलाया गया। इस वीडियो की प्रामाणिकता आज भी संदेहास्पद है। लेकिन मीडिया के बहाने सरकार को जो नैरेटिव गढ़ना था वो गढ़ लिया गया। बल्कि इस बहाने अपनी राष्ट्रवादी छवि को और मुखर किया गया। इसका बड़ा चुनावी फायदा सरकार को मिला।

धारा 370 के खात्मे के साथ वर्षों से कश्मीरियों और उनके बहाने पूरे मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया गया। कश्मीर में प्लॉट खरीदने के सब्ज-बाग दिखलाए गए और ताकि उनकी इस नफरती मुहिम को पूरे देश के बहुसंख्यक समुदायों का अपार समर्थन मिले। मिला भी। इतना सघन और तीक्ष्ण नैरेटिव रचा गया कि तमाम उदार वादी लोग भी इस कदम की सराहना करते नज़र आए। कश्मीर आज भी कैद में है। लेकिन वह देश के लोगों की नज़र से ओझल हो चुका है या किया जा चुका है। 

धारणाओं की इस जंग में अगला शिकार फिर से मुस्लिम समुदाय को बनाया गया ताकि ध्रुवीकरण की धार कम न हो। इस बार नागरिकता संशोधन कानून केंद्र में रहा। निसंदेह यह कानून देश के संविधान की आत्मा के खिलाफ है, लेकिन व्यावहारिक दुष्प्रभावों को और तीव्र करने के लिए इसके साथ राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर जैसे भावी कदम उठाने की कसमें खाकर देश के नागरिकों के जहन में गंभीर असुरक्षा बोध भरा गया। नतीजतन लोग बाहर निकले। इस बाहर निकलने का इंतज़ार जैसे इस सरकार को था। इस स्वत: स्फूर्त प्रतिरोध का असर यह हुआ कि इसके बहाने जामिया मिलिया इस्लामिया जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय और देश के अलग-अलग पेशों में लगे युवाओं को आसानी से शिकार बनाया जा सका। शाहीन बाग में अगर महिलाओं ने नेतृत्व सँभाला तो उसके बहाने भी धारणाओं का ऐसा चक्रव्यूह रचा गया कि पहले से बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में बनाई गयी मुसलमानों की छवि की छाप और गहरी हो गई। नतीजा हिंसा में हुआ। यह हिंसा प्रायोजित थी, स्वत: स्फूर्त थी या इसका होना संभावी था जो आम तौर पर धारणाओं के उन्माद में होती हैं। कहना कठिन है क्योंकि इसके लिए एक निष्पक्ष जांच दरकार है और निष्पक्षता के लिए प्रतिबद्ध संस्थान फिलहाल एनेस्थीसिया लेकर पड़े हैं। 

कोरोना के आने के साथ, तबलीगी जमात के खिलाफ और उसके बहाने फिर से मुसलमानों को शिकार बनाया गया। सरकार, मीडिया और शुरूआत में अदालतों तक ने तबलीगियों के खिलाफ एक ऐसा माहौल बनाया जिसकी कीमत दूर दराज के मुसलमानों को भी सामाजिक बहिष्कार जैसी वर्जित कार्यवाहियों से चुकानी पड़ी। बाद में भले ही दो उच्च न्यायालयों ने इन मामलों में विधि सम्मत काम किया लेकिन इस दुष्प्रचार का इतना व्यापक असर हुआ कि हाल ही में देश के मुख्य न्यायधीश ने किसान आंदोलन में बैठे लोगों की कोरोना प्रोटोकॉल के मामले में तबलीगी जमात से तुलना कर दी। हम अनुमान लगा सकते हैं कि जब देश के सबसे प्रबुद्ध व्यक्तियों में गिने जाने वाले प्रमुख न्यायधीश के मन में उस भ्रामक धारणा का इस कदर असर हुआ तो आम जनता के मन में क्या तबलीगियों या मुसलमानों की छवि बादल पाएगी? संभव है कि मुख्य न्यायधीश ने यह तुलना ठीक उसी मंशा से न की हो जो इन धारणाओं को फैलाने के पीछे थीं लेकिन यह अवचेतन में कहीं न कहीं बस गयी बात हो ही गयी। 

इस बीच हर मामले में धारणाओं का ऐसा वातावरण बनाया गया कि तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण या लोकतान्त्रिक संवाद और स्वस्थ बहस के लिए जगह सीमित होती गयी।

खेती किसानी से जुड़े तीन कानून लाकर सरकार ने किसानों और आम उपभोक्ताओं, श्रम क़ानूनों में बदलाव लाकर मजदूरों के मन में असुरक्षा का भाव जगाया। ज़ाहिर है किसान इसका विरोध करने सड़क पर आ गए। लेकिन इस बार किसानों ने भी पूर्व के आंदोलनों और सरकार के इस चक्रव्यूह को समझा और सबसे बड़ी बात एक लंबी वैचारिक तैयारी से वो आए। पुराने आंदोलनों में शामिल लोगों और किसान आंदोलन में शामिल लोगों में एक महत्वपूर्ण अंतर यह भी रहा कि किसान आंदोलन में अगर पंजाब को छोड़ दिया जाए तो जिन अन्य राज्यों में इसकी धमक रही और जहां से बड़े पैमाने पर किसान इस आंदोलन में शामिल हुए, चाहे वो भाजपा शासित राज्य से हों या निसंदेह ये भाजपा के कोर समर्थक रहें हों। भाजपा ने इन्हीं किसानों के वोटों से उत्तर प्रदेश और हरियाणा में सरकारें बनायीं हैं। इसलिए चक्रव्यूह थोड़े संयम से रचा गया। इस आंदोलन में सबसे पहले पंजाब को लक्षित किया गया ताकि इसे एक राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता की तरह दिखलाया जा सके। फिर धार्मिक अल्पसंख्यक सिखों को शिकार बनाने का काम किया गया। इसमें भी आक्रामकता की जगह देश के प्रधानमंत्री द्वारा सिख धर्म की भलाई के लिए किए गए कामों का हवाला ही ज़्यादा दिया गया। किसानों ने लेकिन इस धार्मिक अस्मिता को तवज्जो नहीं दी और बार-बार यह बताया कि हम सिख होने के नाते यहाँ नहीं बैठे हैं बल्कि हमारी लड़ाई तीन कृषि क़ानूनों को लेकर है। यह एक विभाजन कारी राजनीति की पहली हार थी और किसानों की पहली जीत। 

इसके बाद मीडिया ने अपना खेल शुरू किया। ज़ाहिर है उन्हें इस पूरे आंदोलन में कोई किसान नज़र नहीं आया बल्कि उन्हें इन किसानों में खालिस्तानी, आतंकवादी, अर्बन नक्सल और देशद्रोही नज़र आए लेकिन इस नैरेटिव को भी कोई ठौर नहीं मिला। इस बीच एक तरफ वार्ताओं का औपचारिक दौर चलता रहा और सरकार और उसके रणनीतिकार अपनी योजनाएँ बनाते रहें। हर दौर की बातचीत के बाद सुलह की गुंजाइशें एक जगह टिकीं रहीं। इसे किसानों का अड़ियल रवैया कहा गया। किसान आंदोलन ने जन धारणाओं को लेकर एक सतर्कता बरती और उनके मंसूबे इस लिहाज से पूरे नहीं होने दिए क्योंकि वो संवाद से बचे नहीं और एक भी चर्चा का प्रस्ताव उन्होंने ठुकराया नहीं। इस बीच जब सरकार व्यूह रचना के लिए समय ले रही थी तो किसान आंदोलन का कारवां भी बढ़ते जा रहा था। एक तरफ सरकार आंदोलनकारी किसानों से वार्ताएं कर रही थी, तो दूसरी तरफ अपने समर्थक संगठनों का गठन भी कर रही थी और उनसे मुलाकातें भी कर रही थी। ये नवगठित किसान संगठन सरकार को इन विवादित क़ानूनों के प्रति समर्थन पत्र सौंप रहे थे। 

इस सरकार ने एक खास पैटर्न का ईज़ाद भी किया है। किसी एक कानून के खिलाफ लोगों के बरक्स उस कानून के समर्थन में भी कुछ आंदोलन खड़े करना। इसका भी भरपूर इस्तेमाल किया गया। झूठ, भ्रम, अफवाह सबका इस्तेमाल करते हुए अंतत: किसान आंदोलन काबू में नहीं आया। इस बीच गणतन्त्र दिवस आ गया। किसानों ने शांतिपूर्ण ढंग से ट्रेक्टर परेड की अनुमति मांगी। सरकार ने शुरुआती  न-नुकुर के बाद अनुमति दे दी। यह मौका सरकार खो नहीं सकती थी और जैसे कि इस सरकार में होता है हर मामले का  सक्षम प्राधिकरण या तो प्रधानमंत्री कार्यालय है या गृहमन्त्रालय। मामला चाहे शिक्षा मंत्रालय का हो, श्रम मंत्रालय का हो, रेलवे का हो या कृषि कल्याण का उसकी मंजिल अंतत: गृह मंत्रालय होती है। 26 जनवरी ने अंतत: किसान आंदोलन को गृहमंत्रालय के अधीन ला दिया। उल्लेखनीय है कि कृषि कल्याण मंत्री के नेतृत्व में जो अन्य दो मंत्री किसान वार्ता के लिए नियुक्त किए गए वो ‘ऑन द स्पॉट’ कोई निर्णय ले सकने की क्षमता से लैस नहीं थे बल्कि अधिकृत ही नहीं थे। ऐसे में कायदे से इन वार्ताओं के दौर का कोई मतलब नहीं रह जाता। संवाद बराबरी वालों में होता है।

अगर किसान आंदोलन के प्रतिनिधि चर्चा में सलाह मशविरा कर के और एक राय बनाकर जाते थे और सरकार के प्रतिनिधियों विशेष रूप से अपने मुद्दे के मंत्रालय के मंत्री के समक्ष बैठ रहे थे तो मंत्री या मंत्री समूह को भी इस अधिकार से सम्पन्न होना चाहिए था कि चर्चा के दौरान अगर कहीं सहमति बनती दिखती है तो वो उस पर तत्काल निर्णय ले सकें। लेकिन हमने देखा कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसकी एकमात्र वजह यही रही कि ये समूह निर्णय लेने के लिए सक्षम नहीं था। बहरहाल, किसानों ने अपनी तरफ से यह ज़ाहिर नहीं होने दिया और यह जानते हुए भी कि वो महज़ ढकोसले में शामिल हो रहे हैं, होते रहे। 

26 जनवरी को जो कुछ भी हुआ, सभी ने देखा। सभी के मन में कुछ बुनियादी सवाल भी उठे मसलन, गणतन्त्र दिवस जैसे संवेदनशील अवसर पर देश की राजधानी में अफरा तफरी कैसे हुई? किसान मार्च की अनुमति थी और उसके रास्ते तय थे तो भी सुरक्षा में चूक कैसे हुई? इंटेलीजेंस ने सरकार को क्या सही सही जानकारी नहीं दी? किसान नाराज़ हैं, उनका धैर्य चूक सकता है, वो आक्रोशित भी हो सकते हैं। इसका अंदाज़ा क्या नहीं था? जिनके नाम इस अफरा-तफरी मचाने में आ रहे हैं और जिनसे उनके रिश्ते ज़ाहिर हो रहे हैं, क्या उनकी भनक राजधानी की पेशेवर पुलिस और इंटेलिजेंस को नहीं थी? खैर ये सवाल हैं और ये बने रहेंगे क्योंकि अब जो भी कार्यवाही होगी वो राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर होगी जिसे गुप्त रखा जाना ज़रूरी है और देश के हर नागरिक का परम कर्तव्य है कि वो इन जानकारियों के लिए पुलिस और अदालत की तरफ देखे, वो जो बताएं उसे सही माने। लेकिन इन सबके बीच यह कहना पड़ेगा कि किसान आंदोलन ने इस ऐतिहासिक तौर पर इतनी लंबी अवधि के इस आंदोलन में सरकार की हर चाल को असफल किया। अब जो सामने है वो एक मौका है। जो किसानों ने दिया नहीं बल्कि सरकार ने जबरन लिया है। किसानों ने पाँच लाख ट्रेक्टर्स के साथ दिल्ली की सीमाओं पर अनुशासन बद्ध ढंग से अपना मार्च निकाला ही। और अपने इरादे ज़ाहिर भी कर दिये। कुछ छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसे अराजकता कहा जा सकता है और जो अराजकता की स्थिति में वास्तव में घटित हो सकता था।  

धारणाओं के खेल में बाजी उसके हाथ लगती है जिसके पास प्रचारतंत्र होता है। कहानी गढ़ने वाले होते हैं और उन गढ़ी हुई कहानियों को आधार बनाकर कानूनी कार्यवाहियों के अधिकार होते हैं। पहले कहानी गढ़ी जाती है, फिर उसे दुनिया को बार-बार सुनाया जाता है। फिर लोगों के ज़हन में बस चुकी उस कहानी के मुताबिक कार्यवाहियों को अंजाम दिया जाता है। अब देखना यह है कि जिन लोगों ने रोहित की सच्चाई सुन ली, गजेन्द्र चौहान की काबिलियत देख ली, जेएनयू के वीडियों की सच्चाई भी जान ली, कश्मीर को आज भी खुला न छोड़ पाने की हकीकत देख ली, तबलीगी जमात को कोर्ट से बाइज्जत बरी होते देख लिया, सीएए के खिलाफ आंदोलन में शामिल लोगों के खिलाफ बिना सबूत कार्यवाहियों पर अदालत की टिप्पणियां सुनीं, क्या उन्हें किसान आंदोलन के खिलाफ रची जा रही कहानियों पर यकीन होगा या उनका यकीन तात्कालिक धारणाओं के ही अधीन रहेगा? 

(लेखक पिछले 15 सालों से जन आंदोलनों से संबद्ध हैं। समसमायिक विषयों पर लिखते है। विचार व्यक्तिगत है।)

farmers protest
Farm bills 2020
kisan andolan
Kisan Ekta Morcha
AIKS
AIKSCC
BJP
Farmers vs Government
Modi government
Narendra modi
FTII
Media

Trending

#MeToo​: 'प्रतिष्ठा का अधिकार गरिमा के आधिकार से ऊपर नहीं'
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: महिला किसानों के नाम
100 दिनः अब राजनीतिक मार करेंगे किसान
अक्षर-अश्विन की फिरकी में फंसी इंग्लैंड टीम, भारत श्रृंखला जीतकर विश्व टेस्ट चैम्पियनशिप फाइनल में
तापसी पन्नू, कश्यप ने छापेमारी के बाद पहली बार अपनी बात रखी, ‘दोबारा’ की शूटिंग फिर से शुरू की
लखनऊ में महिला दिवस पर कोई रैली या सार्वजनिक सभा करने की इजाज़त नहीं!

Related Stories

kisan protest
न्यूज़क्लिक डेस्क
इतवार की कविता: “काश कभी वो वक़्त ना आए/ जब ये दहक़ां लौट के जाएँ/ गाँव की हदबंदी कर लें…”
07 March 2021
तिरछी नज़र : सरकार की कोशिश है कि ग़रीब ईश्वर के नज़दीक रहें
डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
तिरछी नज़र : सरकार की कोशिश है कि ग़रीब ईश्वर के नज़दीक रहें
07 March 2021
देश में महंगाई दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती जा रही है। जिस गति से महंगाई तरक्की कर रही है उस गति से तो बुलेट ट्रेन भी नहीं चलेगी। बुलेट ट्रेन, अ
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
सोनिया यादव
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: सड़क से कोर्ट तक संघर्ष करती महिलाएं सत्ता को क्या संदेश दे रही हैं?
07 March 2021
यूं तो आप हर साल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च के अवसर पर महिलाओं को स्पेशल फील करवाने वाली कई खबरें और सरकारी बयानों को पढ़ते होंगे, लेकिन आज

Pagination

  • Next page ››

बाकी खबरें

  • #MeToo​: 'प्रतिष्ठा का अधिकार गरिमा के आधिकार से ऊपर नहीं'
    न्यूज़क्लिक टीम
    #MeToo​: 'प्रतिष्ठा का अधिकार गरिमा के आधिकार से ऊपर नहीं'
    07 Mar 2021
    प्रिया रमानी ने #मीटू​ अभियान के तहत एमजे अकबर पर जो आरोप लगाए थे उनके बारे मेंI इसके बाद कई महिलाओं ने एमजे अकबर पर यौन शोषण के आरोप लगाएI अकबर ने प्रिया रमानी पर मानहानि का केस किया और हाल ही में…
  • अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: महिला किसानों के नाम
    न्यूज़क्लिक टीम
    अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: महिला किसानों के नाम
    07 Mar 2021
    इस 8 मार्च यानी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कृषि क़ानून विरोधी आंदोलन में महिला किसानों की जुझारू भूमिका को एक बार फिर से देखते हैंI
  • kisan protest
    न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता: “काश कभी वो वक़्त ना आए/ जब ये दहक़ां लौट के जाएँ/ गाँव की हदबंदी कर लें…”
    07 Mar 2021
    दिल्ली की सरहद पर किसान आंदोलन अपने सौ दिन पूरे कर चुका है। इन सौ दिनों में किसानों ने क्या कुछ नहीं झेला। ‘इतवार की कविता’ में पढ़ते और सुनते हैं इन्हीं सब हालात को बयान करती शायर और वैज्ञानिक गौहर…
  • तिरछी नज़र : सरकार की कोशिश है कि ग़रीब ईश्वर के नज़दीक रहें
    डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र : सरकार की कोशिश है कि ग़रीब ईश्वर के नज़दीक रहें
    07 Mar 2021
    ये पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के बढ़ते दाम, ये खाने पीने की चीजों के बढ़ते दाम, बढ़ता हुआ रेल भाड़ा, ये सब देश की जनता को आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचाने का, ईश्वर के नज़दीक ले जाने का सरकारी प्रयास है।
  • लखनऊ में महिला दिवस पर कोई रैली या सार्वजनिक सभा करने की इजाज़त नहीं!
    असद रिज़वी
    लखनऊ में महिला दिवस पर कोई रैली या सार्वजनिक सभा करने की इजाज़त नहीं!
    07 Mar 2021
    कोविड-19 के नाम पर राजधानी में 5 अप्रैल तक धारा-144 लागू है। महिला संगठनों का कहना है कि ऐसा पहली बार होगा कि महिला दिवस का आयोजन केवल सभागारों की चारदीवारी तक सीमित रह जायेगा।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें