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“देश की जनता अभी भी प्रजा बनी हुई है, उसने नागरिक बनना नहीं सीखा”

“आप संविधान को श्रेय दें या न दें। यदि आपने मनुस्मृति को लागू किया तो निश्चित तौर पर जितनी भी स्त्रियाँ विभिन्न पदों पर दिखाई दे रही हैं वो वापस घरों में पहुँच जाएंगी”। लेखक, एक्टिविस्ट प्रो. हेमलता महिश्वर से ख़ास बातचीत।
Hemlata Mahishwar

हेमलता महिश्वर दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया की प्रोफ़ेसर एवं हिन्दी विभाग की पूर्व अध्यक्ष हैं। उनकी कहानी जैन विश्वविद्यालय, बैंगलोर और इटली के पाठ्यक्रम का हिस्सा रहीं। कुछ कहानी, कविताओं और लेखों का मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ। उनकी आलोचना और कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन किया है। वे सोशल एक्टिविस्ट भी हैं। और समय समय पर विभिन्न मुद्दों पर खासतौर से दलित आदिवासी और स्त्री मुद्दों पर अपनी गंभीर टिप्पणियां  दर्ज करती रहती हैं। पेश है हाल ही में उनसे समसामयिक मुद्दों पर हुई बातचीत के प्रमुख अंश:

प्रश्न- हेमलता जी सबसे पहले शुरुआत यहीं से करते हैं कि आप प्रोफ़ेसर हैं, लेखिका हैं, सोशल एक्टिविस्ट हैं, तो आप अपने इस सफ़र के बारे में कुछ बताएं।

उत्तर— बालाघाट विदर्भ का क्षेत्र था ही यहां दलितों का एक मोहल्ला था जिसे गूढ़ी कहा जाता है। वहां दलितों द्वारा  26 जनवरी, 15 अगस्त, आंबेडकर जयन्ती आदि बड़े धूम धाम से मनाए जाते थे। इसमें बच्चों की भी भागीदारी हुआ करती थी। यह समय 1976-77 का था। उस समय मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी। ये राष्ट्रीय पर्व और आंबेडकर जयन्ती हमारे उत्सव हुआ करते थे। मनुष्य के रूप में हमें अधिकार देने वाले ये ही दिन थे। मेरे पापा का जॉब ट्रांसफ़र वाला था। तो हम इधर-उधर होते रहे। बालाघाट की चीजें वहीं छूट गईं। मैंने अपनी पूरी पढाई के दौरान देखा कि आंबेडकरी मूवमेंट वैसा रहा नहीं जैसा उस वक्त था। ये तो मैंने काफी लम्बे समय के बाद जब विलासपुर में नौकरी करते हुए वापस फिर हमारे अपने मोहल्ले में हमारा जाना शुरू हुआ। और वहां जिस तरह की बातचीत की जाती थी वो फिर पुराने दिनों की याद दिलाती थी।

यहां मेरी मुलाकात कपूर वासनिक जी से हुई। बाद में पता चला कि ये मराठी के शुरुआती दौर के बड़े दलित कवि हैं जो डब्ल्यू कपूर के नाम से प्रसिद्ध हैं। जब उनकी कविताएं मैंने पढ़ी तो मुझे लगा मैंने हिंदी में ऐसी कविताएं तो बिलकुल नहीं पढ़ीं। ये बिलकुल नई लगीं।  नए प्रतीक नए बिम्ब। धम्म दीक्षा, पीपल का पेड़, सफ़ेद पक्षी, ये कुछ दूसरी ही दुनिया थी। फिर पीपल को बोधिवृक्ष से जोड़ना। उसके बाद मैंने तारा बल्वेकर की कविताएं पढीं वो भी बिलकुल नई दुनिया ही थीं मेरे लिए।  मैंने देखा कि ये वास्तविक कविताएं थीं। ये रोमांटिसिज्म क्रिएट नहीं करतीं ये आप में  चिंतन पैदा करती हैं। और इस चिंतन से मेरे अन्दर एक चैतन्य मनुष्य जो सोया हुआ था वह जाग गया।

मैं मराठी भाषी हूँ इसलिए मैंने मराठी के ये कविता संग्रह पढ़े। और एक बात, भाषा के साथ भी एक खेल हुआ है। हमारे बालाघाट की मराठी और जो हायर क्लास हुआ करता था उसकी मराठी में अंतर था। हमारे पेरेंट्स जो मराठी बोला करते थे उसे हेन्गली मराठी कहा जाता था। और जो वो लोग बोला करते थे उसे संभ्रांत मराठी कहा जाता था। तो भाषा से ही पता चल जाता था कि  ये दलित है या गैर दलित। क्योंकि  दलितों की मराठी के मुहावरे अलग थे। मेरे पिताजी इसलिए मराठी में बात नहीं करते थे। मेरे परिवार के लोग मराठी समझते तो हैं पर बोल नहीं पाते हैं।

पर इस आंदोलन में आने के बाद मुझे लगा कि मराठी के बिना गुजारा नहीं। अब मैं मराठी अच्छी तरह पढ़ लेती हूँ, अनुवाद कर लेती हूँ लेकिन बोलने में वो फ्लो नहीं बन पाता। अभी मेरे किताबों के संग्रह में सौ से ज्यादा किताबें मराठी में होंगी। मराठी के शब्दकोष मेरे पास हैं। अभी बहुत सी ऐसी मराठी किताबें हैं जो हिंदी में नहीं आई हैं। कई मराठी आत्मकथाएँ हिंदी में नहीं आई हैं। मराठी में आंदोलन का जो इतिहास दर्ज किया गया है वो अभी हिंदी में नहीं आया है। दलित पैंथर का तो कुछ हिस्सा आ गया है। पर जो बाबा साहेब के समकाल में जिस तरह आंदोलन संचालित था जो सामाजिक गतिविधियाँ थीं जो राजनीतिक गतिविधियाँ थीं वो हिंदी में आई ही नहीं । हिंदी समाज को उस चिंतन से परिचित होना जरूरी  है। 1920 में बाबा साहब की जो सामाजिक और राजनीतिक गतिविधि थी वह शुरू हो गयी थी। और ये 2022 चल रहा है। तो सौ साल से ज्यादा हो गए।

इन सौ सालों में महाराष्ट्र में चल क्या रहा था बाबा साहब की उपस्थिति में। ये हमारे सामने नहीं आ पाया है। जबकि मराठी में उस समय की गतिविधियों को सन्दर्भ के साथ दर्ज किया गया है।

महात्मा फुले ने बाबा साहेब को एक ताज़ा–ताज़ा जमीन तैयार करके दी थी। उस उर्वर भूमि में बाबा साहेब ने आंदोलन की फसल उगाई थी। इसलिए आंदोलन के इतिहास के परिप्रेक्ष्य को देखने की जरूरत अभी बाकी है।

प्रश्न- आपने कविताएं पढ़ीं थीं। लेकिन आप के लेखन की शुरुआत कैसे हुई?

उत्तर— अब अध्यापक हैं हम लोग तो उपस्थिति थोड़ी-बहुत तो दर्ज होती रहती है। सेमिनार वगैरह होते हैं उसमे भाग लेते हैं। जब मुझे ऐसा एहसास होने लगा कि मैं कुछ नया  कर रही हूँ जो बातें करती हूँ उससे कोई बहस जनरेट हो रही है। तब मेरे भीतर कॉन्फिडेंस पैदा हुआ। मैंने अपना एक रिसर्च पेपर किसी सेमिनार में पढ़ा था। उस सेमिनार की रपट कहीं प्रकाशित हुई तो मेरे पेपर को डिलीट कर दिया जबकि मेरे ही पेपर पर सबसे ज्यादा बहस हुई थी।

इसका मुझे क्रोध था। जो आयोजक थे उनसे मैंने अपने इस गुस्से का इजहार किया कि मेरे पेपर पर सबसे ज्यादा बहस हुई थी और रिपोर्ट में मेरा नाम तक उल्लेख नहीं है। मुझे आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी। वो कई तरह की बातें करते रहे और दिलासा देते रहे। मुझे बहुत पीड़ा हो रही थी। मैं संतुष्ट नहीं हुई और मैंने वह पेपर “आलोचना” को भेज दिया। उस समय लैंडलाइन फोन हुआ करते थे तो मेरे फोन की घंटी बजी और उस तरफ से आवाज आई मैं परमानन्द श्रीवास्तव बोल रहा हूँ। आपका लेख मिला और यह आलोचना के अगले अंक में जा रहा है। पर मैं जानना चाहता हूँ कि आप कहां की प्रोडक्ट हैं – क्या जेएनयू की? मैंने कहा कि नहीं मैं तो छत्तीसगढ़ की रविशंकर यूनिवर्सिटी से हूँ। इस तरह से लेखन की शुरुआत हुई।

इसमें निश्चित तौर पर एक बड़ी भूमिका जय प्रकाश कर्दम जी की भी है कि उन्होंने दलित साहित्य वार्षिकी में मेरी कुछ कहानियां, लेख और कविताएं प्रकाशित कीं। तो इस तरह परमानन्द श्रीवास्तव और जय प्रकाश कर्दम जी को मेरे लेखन की शुरुआत करने का श्रेय जाता है।

मेरी जो किताब है “स्त्री लेखन और समय के सरोकार” वह भी एक रिसर्च पेपर है।

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प्रश्न - आप प्रोफेसर हैं तो प्रोफ़ेसर बनने तक के सफ़र के बारे में हमारे पाठकों को बताइये।

उत्तर— देखिये ये तो एक लम्बा सफ़र है। पर जब अपनी दसवीं कक्षा के फाइनल पेपर दे रही थी उसी दौरान मेरी मां की मृत्यु हो गयी। ये मेरे ह्रदय में एक पत्थर पर कुछ उकेर दिया जाने जैसा था। फिर मेरे पापा ने दूसरी शादी कर ली और जहां वे नौकरी करते थे वहां सौतेली मां के साथ चले गए। मेरे ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियां आ गईं जो घर परिवार की होती हैं। उससे भी मुझ में परिपक्वता आ गई। हम पांच भाई बहन थे। मैं दूसरे नंबर पर हूँ। मुझसे बड़ी मेरी दीदी उस समय मेडिकल की स्टूडेंट थीं। जब मैंने बारहवीं की परीक्षा दी तब मुझे लगा कि परिवार के लिए कुछ कमाना जरूरी है।

मैंने नौकरी की तलाश भी शुरू की और इसी दौरान बी.ए. में भी एडमिशन ले लिया। वहां मुझे कुछ अच्छे मित्र मिल गए। मेरी कुछ ऐसी मित्र थीं जो बहुत फोकस्ड थीं राजनीति  पर, बहुत फोकस्ड थीं उस समय के सामाजिक वातावरण पर। कहां क्या चल रहा है। इस तरह का विज़न उनका अलग था। वैसा मेरे भीतर भी बनने लगा। वो दोनों क्यों कि इंग्लिश मीडियम की थीं। मैं हिंदी मीडियम से थी सरकारी स्कूल से। वे इंग्लिश में पटर-पटर किया करती थीं। उस  समय जब सामान्य स्टूडेंट्स पिक्चर की बातें करते, टीवी सीरियल की बातें करते, उस समय हमारे घर में तो टीवी भी नहीं था। उस समय मेरी ये मित्र मार्क्स पर बात कर रही थीं, समाजवाद पर बात कर रही थीं, साम्यवाद पर बात कर रही थीं। इंटेलेक्चुअल टाइप की बातें। तो एक तरह से मेरे लिए एक नई दुनिया शुरू हो गई थी। उनमे से एक दोस्त ने कहा उसे हिंदी साहित्य में एम.ए. करना है। तो मैंने सोचा उसे हिंदी साहित्य से एम.ए. करना है तो मुझे भी हिंदी साहित्य में एम.ए. करना है। उसे कॉलेज बदलना है तो मुझे भी कॉलेज बदलना है। फिर मैंने एम.ए. किया और डेजरटेशन भी लिखा। इसी दौरान एक एड आई   गुरू घासीदास यूनिवर्सिटी का। वहां मैंने अप्लाई किया और मेरा सिलेक्शन हो गया। उसमे मैंने अपने इक्कीस साल दिए। उसके बाद मैं जामिया में प्रोफेसर बन कर आई 2010 में। तब से यहाँ हूँ। साहित्य की दुनिया तो मेरे अन्दर विलासपुर से ही बन गई थी लेकिन मुझे लगा कि दिल्ली चूंकि देश की राजधानी है उसे यहाँ और अधिक एक्स्प्लोर किया जा सकता है। यहां अपने जैसे अनेक लोग थे। रमणिका गुप्ता थीं, विमल थोरात मैम थीं, रजनी तिलक थीं, तो इन सबका साथ मिला।

प्रश्न – आजकल ऐसा देखने में आ रहा है कि जैसे धर्मयुद्ध छिड़ा हुआ है। मस्जिदों (ज्ञानवापी), ऐतिहासिक स्थलों में मंदिर ढूंढें जा रहे हैं। ईश निंदा की जा रही है। नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल का उदाहरण हमारे सामने है। ऐसे में सेक्युलर संविधान के मूल्यों को ध्यान में रखते हुए इन पर आपका क्या नज़रिया है?

उत्तर— देखिये जो मंदिरों की बात है तो हमें पुरातत्व पक्ष भी देखना चाहिए। और आप तमाम जगह देखेंगे चाहे वह गया हो, अयोध्या हो, और जो भी मंदिरों का नाम आप लेना चाहें, इन में जो प्राचीन मूर्तियाँ मिल रहीं थीं वो बुद्ध की थीं। और ये बौद्ध विहार ही हुआ करते थे। अभी आप सिरपुर छत्तीसगढ़ चले जाएं तो वहां पुरातत्वविद कहते हैं बुद्ध का साहित्य और मूर्तियां मिली हैं। गया और अयोध्या में बुद्ध की मूर्तियां मिली हैं। और ये लोग वहां मंदिर का ठप्पा लगा के पूजा कर रहे हैं। तो निश्चित तौर पर सोची-समझी दमनात्मक कार्यवाही एक लम्बे समय से चली आ रही है। अब हम लोगों ने ऐतिहासिक तौर पर और पुरातात्विक तौर पर ये बता ही दिया है कि ये सारी की सारी साइट्स बौद्ध साइट्स हैं  जिन पर आप अपना दावा ठोंक रहे हैं। नव बौद्ध हैं वो सारे के सारे इस बात को स्वीकार करने वाले हैं कि  हमें मंदिरों से ज्यादा  लाइब्रेरी की जरूरत है। हमें वाचनालय चाहिए।

पर आप जो बता रहे हैं उनके नाम भी क्या लूं मैं। इनको यदि अगला चुनाव जीतना है तो कौनसा मुद्दा है इनके पास। विकास के नाम पर इन्होंने क्या विकास किया है। भारत अब कौन से इंडेक्स पर बेहतर है। ऐसा कौन सा सूचकांक है जिसमे भारत अच्छी पोजीशन पर है। भुखमरी में भारत पकिस्तान और नेपाल से भी पीछे चला गया है। अभी मैं पर्यावरण पर रवीश का प्रोग्राम देख रही थी तो भारत 180वें नंबर पर पहुँच गया है। केंद्र सरकार के पास कोई मुद्दा नहीं हैं। मुझे बहुत अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि सरकार जो आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रही है उसके पास एजेंडे के नाम पर धर्म है  जो आस्था से संचालित होता है। जो भावनाओं से संचालित होता है। इसका कोई तार्किक प्रमाण नहीं है। मुझे इस बात पर भी अफ़सोस है कि मेरे देश की जो जनता है वो अभी भी प्रजा बनी हुई है उसने नागरिक बनना सीखा ही नहीं हैं। संविधान उन्हें नागरिक बताता है। और नागरिक बताता है तो उनके पास अधिकार होते हैं। कर्तव्य होते हैं। अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे पर अनन्योयाश्रित हैं यानी एक दूसरे पर अवलंबित हैं। एक सुन्दर-सा गठबंधन है इन दोनों के बीच। जो संविधान को परिपूर्ण करता है। मेरे देश के जो नागरिक हैं वे अभी नागरिक होना अर्जित नहीं कर पाए हैं। इसलिए इन सारे मुद्दों पर वे तलवारें भांज रहे हैं। वे लाठियां भांज रहे हैं। वे एक दूसरे पर आक्रमण कर रहे हैं। ये तो गनीमत समझिए कि मुस्लिम समाज ने अपने आप को रोक रखा है। केंद्र सरकार ने धर्म के नाम पर जो चला रखा है उससे तो गृह युद्ध की स्थिति बन रही है। दंगे हो ही रहे हैं।

हमें तो इस समय ये बात करनी चाहिए थी कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाला देश किस तरह विश्व व्यापर को अपने भीतर लेकर आ रहा है। और यहां से वो कौन से संसाधन पैदा करके बाहर दे रहा है। इससे हमारी आर्थिक स्थिति और मजबूत हो। हम इस पर चर्चा नहीं कर रहे हैं। हम अभी भी हजारों साल पुराने धर्म पर चर्चा कर रहे हैं। कबीलाई टाइप की मानसिकता जिसकी लाठी उसकी भैंस की मानसिकता को तैयार करवाने में लगे हुए हैं। हम उस मनुस्मृति की स्थापना करना चाहते हैं जिसको बाबा साहेब ने जलवाया था। और संविधान जैसी बड़ी चीज हमको उनके माध्यम से प्राप्त होती है। आज जितने भी छोटे बड़े पदों पर हम और आप पहुँच पाए हैं। वो संविधान के माध्यम से ही संभव हुआ है। राजनीतिक तौर पर प्रशासनिक तौर पर आज नुपूर शर्मा जिस काबिलियत  से बात कर रही थीं वो धर्म से नहीं संविधान से प्राप्त हुई है। धर्म ने तो आपके व्यक्तित्व को समेट कर रखा था। बंद कर रखा था। बुद्धि को कुंद कर रखा था। आप कुछ भी नहीं कह सकते थे। आप कहीं बाहर नहीं निकल सकते थे। आपको बाहर निकलने के लिए किसी पुरुष साथी की जरूरत होती थी।

आप संविधान को श्रेय दें या न दें। पर आपको ये सोचना चाहिए कि आने वाले पच्चीस सालों में पचास सालों में आपकी स्थिति क्या होने वाली है। यदि आपने मनुस्मृति को लागू किया तो निश्चित तौर पर जितनी भी स्त्रियाँ विभिन्न पदों पर दिखाई दे रही हैं वो वापस घरों में पहुँच जाएंगी। ये संकट उन्हें दिखाई नहीं दे रहा है – ये आश्चर्य है। या फिर इनकी दूरदर्शिता नहीं हैं। दूरदर्शी होना बहुत जरूरी है। ये तात्कालिकता में जी रहे हैं। इससे हम आगे बढ़ने की जगह पीछे की और जा रहे हैं। मनुस्मृति में जिस तरह से किसी स्त्री के अधिकार समाप्त किए गए हैं। उन्हें केवल घर की चाहरदीवारी में कैद रखा गया है।

संविधान की बदौलत हम देखते हैं कि स्त्री प्रधानमंत्री होती है। स्त्री राष्ट्रपति होती है। विभिन्न राजनीतिक, प्रशासनिक या अकादमिक क्षेत्रों में स्त्रीयों की उपस्थिति है। यहां मैं दलित स्त्रियों की बात कतई नहीं कर रही हूँ। मैं तमाम स्त्रियों की बात कर रही हूँ। ये तमाम अधिकार उन्हें मनुस्मृति ने नहीं दिए हैं ये संविधान ने दिए हैं। संविधान की ठीक से समझ नहीं रखना आने वाली पीढ़ियों को आने वाली स्त्रियों को कितने पीछे ले जाएगा ये सोचना चाहिए। लेकिन ये नहीं सोच रहे हैं। और हिन्दू मुसलमान कर रहे हैं। आज हिन्दू मुसलमान कर रहे हैं कल क्या? कल कोई और प्रतिपक्ष खड़ा करना पड़ेगा। तो फिर वे इसाई को खड़ा करेंगे। फिर अल्पसंख्यको को खड़ा करेंगे फिर दलितों को खड़ा करेंगे। फिर आदिवासियों को खड़ा करेंगे फिर आपस में भिड़ेंगे। हमें नागरिक की भूमिका में कैसे होना चाहिए। ये बड़ा सवाल है।

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प्रश्न– सामाजिक ताने-बाने के तहत दलित आज भी हाशिये पर हैं। अगर दलित कथित “उच्च जाति” या कहें सवर्ण समाज के साथ बराबरी की मानवीय गरिमा के साथ जीते हैं उनकी तरह शादी-विवाह में घोड़ी चढ़ते हैं या मूंछ रखते हैं, तो उनकी हत्या कर दी जाती हैं। आखिर सवर्ण समाज उन्हें अपने जैसे इन्सान के रूप में स्वीकार क्यों नहीं कर पा रहा है?

उत्तर— मुझे तो एक बात यह कहनी है कि सवर्ण समाज के साथ मुझे बराबरी चाहिए ही नहीं। मैं उनको इतना लायक नहीं मानती हूँ कि वो वाकई मनुष्य हैं। मनुष्य होने की अहर्ता वे पूरी नहीं करते। मैं तो मानती हूँ कि संविधान जो मानवीय गरिमा की बात करता है। सवर्ण के लिए मानवीय गरिमा केवल अपने लिए है। इसलिए मैं इतनी स्वार्थी हूँ कि मुझे उसके जैसा नहीं बनना। अब जो ताना-बाना है जिसकी बात आप कर रहे हैं तो इन 75 सालों  में ही हम थोड़ा आगे हैं। उनमें से पचास सालों को आप निकाल ही दें यानी 1947 से 1972 तक मुश्किल से  उँगलियों पर गिनने लायक दलितों की ही संख्या उच्च पदों पर  थी। जो परिवर्तन है उसमे भी आप बैकलॉग देख लीजिए किस विश्वविद्यालय में दलित आदिवासी अपने रेशियो को पूरा करते दिखाई देते हैं। ओबीसी भी काउंट कर लीजिए। तो हमें मालूम हो जाएगा कि शिक्षा में किए जा रहे षड़यंत्र दिखाई देते हैं।

शिक्षा के बारे में कहा जाता है कि यह मनुष्य बनाती हैं उसमे भी ये सवर्ण तबका सवर्ण ही बना रहता है। मनुष्य नहीं बन पाता है। इसलिए वो हमारी उपस्थिति वहां से बार-बार डिलीट कर रहा है। शिक्षा में इन्हीं लोगों का वर्चस्व है और उस वर्चस्व को ये लोग बनाए रखना चाहते हैं। जब शिक्षा के क्षेत्र में इतना षड्यंत्र है तो आप एक सामान्य व्यक्ति से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह मनुष्य होने का दायित्व पूरा कर ले। शिक्षा से परे जो सवर्ण समाज है वो जिस तरह के संस्कार पा रहा है  जिस  तरह की परिपाटियाँ पा रहा है वो उसी के अनुसार व्यवहार कर रहा है। वह उस तरह से एडूकेट नहीं हुआ है जिस तरह से शिक्षा जगत में रहने वाला व्यक्ति हुआ है। जब शिक्षा जगत में ही कास्ट देख-देख कर नंबर दिए जाते हैं। ऐसे में हम कब उम्मीद करें किससे उम्मीद करें कि बाकी जगत में सारा का सारा फेयर होगा और वह मनुष्य बनने की प्रक्रिया में होगा।

मैं शिक्षा जगत के लोगों को ज्यादा बड़ा दोषी मानती हूँ। इसलिए हम से शिक्षा को दूर रखा गया है। स्त्रियों और शूद्रों के कानों में वेद वाक्य नहीं पड़ना चाहिए। संस्कृत ये लोग नहीं बोल सकते हैं। इसका कारण यही है कि जैसे ही समझ में आती है वैसे ही हम सवाल करना शुरू कर देते हैं। तो ये प्रश्न ही न करें। इनके दिमागों में तर्क नाम की चीज कभी भी विकसित न हो। इसलिए इन्होंने हमें शिक्षा से ही दूर रखा। और ये सारा का सारा शिक्षित समाज किस तरह की शिक्षा दे रहा है कि वर्तमान समय में हम इस  देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए वोट करें। इसका मतलब है कि शिक्षा में कहीं न कहीं कोई न कोई दोष जरूर है जिसकी वजह से हमने एक ठीक समाज पैदा नहीं किया। हमने एक समतावादी दृष्टि, सार्वभौमिकता, स्वायतता, एक दूसरे को स्पेस देना एक दूसरे से स्पेस लेना, अधिकार और कर्तव्य का सामंजस्य होना चाहिए वह हमने कहीं न कहीं डिलीट किया है बतौर शिक्षाविद। इसलिए मेरा वर्तमान समाज ऐसा है वरना जिस संविधान में इतनी शक्ति है कि आरंभिक वर्षों को छोड़ने के बाद भी मेरे जैसा व्यक्ति देश की राजधानी के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर आ सकता है संविधान की वजह से तो बाकी सारी चीजें नहीं हो सकती थीं क्या। वो समाज जिन्हें सवर्ण कहा जाता है उन्होंने सारी शक्ति रखते हुए समतामूलक शिक्षा हमें प्रदान नहीं की।

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प्रश्न- आप प्रोफ़ेसर हैं। नई शिक्षा नीति-2020 के बारे में विचार देते हुए आज के समय में जो शिक्षा पद्धति है वह दलितों-आदिवासियों –महिलाओं और अन्य हाशिये के छात्र-छात्राओं के उज्ज्वल भविष्य के लिए कितनी कारगर होगी या आप चुनौतियां  देखती हैं?

उत्तर— ये एक स्वतंत्र विषय है और बहुत लम्बा हो जाएगा पर मैं इस पर संक्षेप में ही अपनी बात रखती हूँ। मैंने आपको  कहा था कि जब मैं 11वीं में थी तभी से मेरे ऊपर कमाने का दबाब था। और वो सारा का सारा कारण सिर्फ इसलिए था कि मेरे घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। मेरे पिताजी क्लास थ्री पोस्ट पर थे तब भी मुझ पर ये दबाव था। तो आप समझिए कि मेरे देश के कितने आदिवासी कितने दलितों के पिताजी इस पोस्ट पर हैं। अगर हम ग्रामीण परिवेश में देखें तो दलितों और आदिवासियों के लिए अभी भी शिक्षा से ज्यादा जरूरी रोटी होती है। किसी भी तरह से रोटी लेकर आएं। पेट पहले भरेगा तब ही तो हम शिक्षा की तरफ जाएंगे।

इस नई शिक्षा नीति में इन्होने ये जरूर व्यवस्था कर रखी है कि जिसको जब जी चाहे तब एग्जिट और जब जी चाहे एंट्री का आप्शन होगा। मेरे समय में या कह लीजिए कि अब तक तो ये था कि बी.ए. करने जा रहे हैं तो बी.ए. कर के ही निकलेंगे। अब ये हो गया कि पहले वह सर्टिफिकेट कोर्स लेगा फिर डिप्लोमा कोर्स लेगा फिर डिग्री कोर्स लेगा फिर वो सुपर डिग्री कोर्स लेगा फिर वो पीजी लेगा तो इस तरह कर दिया गया कि वह अपनी आजीविका की तलाश में शिक्षा से दूर हो जाए। जैसे जैसे ये बच्चे शिक्षा से दूर होते चले जाएंगे वैसे वैसे कि किसी  बड़ी पोस्ट पर दलित और आदिवासी नहीं पहुँच पाएंगे। उनका भविष्य मुझे पूरी तरह अंधकारमय नजर आ रहा है।

दूसरी बात है  कि सरकारी नौकरियां तो समाप्ति की ओर हैं निजीकरण की वजह से। इसमें दलितों और आदिवासियों के लिए तो कोई जगह बच नहीं रही है। सरकारी नौकरियों में बाध्यता थी। और बाध्यता भी अब आई जब विशेष भर्ती अभियान शुरू हुआ है। उसके पहले तो ये सारा कुछ था नहीं। मैं बार-बार कह रही हूँ कि सिर्फ दलितों को ही नहीं बल्कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और  ओबीसी इन तीनों को मिला दें तो भी पहले उनका आंकड़ा नगण्य था मुश्किल से एक प्रतिशत। अब ये चक्र फिर से चलेगा। और शिक्षा प्राप्त करने का मतलब ये कभी नहीं हुआ कि हम अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेंगे। जब माता-पिता को लगता है कि कितना समय और पैसा खर्च करके हमने बच्चों को पढ़ाया और फिर भी नौकरी नहीं लग पाती है तो शिक्षा के प्रति एक विरक्ति पैदा हो जाती है। और ये शिक्षा के प्रति जो उदासीनता होगी ये हमारे देश के लिए बहुत खतरनाक होगी। शिक्षा के प्रति समग्र देश की उदासीनता पूरे देश को ही बहुत पीछे ले जाएगी।

प्रश्न- जिसे मुख्यधारा का मीडिया कहा जाता है वह हमारे दलितों-आदिवासियों के मुद्दों पर फोकस नहीं करता। ऐसे  में आप वैकल्पिक मीडिया का कोई विकल्प देखती हैं? आजकल सोशल मीडिया का भी ज़माना है। इसे आप कैसे देखती हैं?

उत्तर— निश्चित तौर पर मैं ये कहती हूँ कि मुख्यधारा का मीडिया हमारी बातों को नहीं उठा रहा है लेकिन जो सोशल मीडिया है उस पर हमारे बहुत लोग सक्रिय हैं। और आप देख रहे हैं कि रतनलाल जी पर FIR हुई और ट्विटर पर  टॉप ट्रेंड किया है। वरना 16 घंटे में किसी की गिरफ़्तारी वापस हो जाती हो। किसी को छोड़ दिया जाता हो ऐसा पहली बार हुआ है। तरह तरह की धाराएं लगा कर एक दलित बौद्धिक को गिरफ्तार किया जाता है वह भी धर्म के मुद्दे पर। वो एक हिस्टोरियन हैं तर्क के साथ अपनी बात रखते हैं। पर 16 घंटे में रतनलाल जी की वापसी हमारे सोशल मीडिया की उपस्थिति का बहुत बड़ा उदाहरण है। यदि मुख्यधारा में मेरे सवालों को एंटरटेन नहीं भी किया तो सोशल मीडिया ने हमारे सामने विकल्प रखा है। बहुत अच्छे-अच्छे यूटूबर हैं। मीना कोटवाल हैं। साक्षी गौतम हैं। और भी बहुत से लोगों के नाम  लिए जा सकते हैं। गैर दलित हैं।  भाषा सिंह हैं। आप किसान आंदोलन का ही उदाहरण ले लें। उसे लेकर किस तरह मुख्यधारा का मीडिया बात कर रहा था और किस तरह सोशल मीडिया बात कर रहा था।  मुख्यधारा का मीडिया किसानो को दहशतगर्द, कल्पिरिट और आतंकवादी वहां आ गए हैं ऐसे कपड़े क्या किसान पहनते हैं। पता नहीं इस देश के प्रधानमंत्री को हुआ क्या है कि वे कपड़ों से ही हर व्यक्ति को पहचानने लगते हैं। बहुत ही आश्चर्य की बात है। वो आतंकवादियों को पहचान लेते हैं। वो किसानों के भीतर आतंकवादी पहचान लेते हैं। जाने क्या क्या पहचान लेते हैं। कभी खुद के कपड़ों पर भी कमेन्ट कर लें कि वो खुद किस तरह के कपड़े पहले पहनते थे और किस तरह के कपड़े आज पहनते हैं।

इस वैकल्पिक मीडिया ने सोशल मीडिया ने हमारे सामने एक मजबूत पक्ष रखा है जिसके माध्यम से हम अपनी बात रख सकते हैं। और इस माध्यम से हमारी बात सिर्फ भारत में ही सुनी जा सकती हो ऐसा नहीं है। वैश्विक परिदृश्य में उसकी सुनवाई हो रही है। आप धर्म के चश्मे से चीजों को देख रहे हैं लेकिन जो वैश्विक बुद्धिजीवी है वह तर्क के चश्मे से चीजों को देख रहा है। तथ्य को देख रहा है। और जब वो तथ्यों की बात करता है, हस्तक्षेप करता है,  तो आपको अपने देश की गरिमा खंडित होती दिखाई देती है। ऐसा आप करते क्यों हैं कि देश की गरिमा आप की वजह से खंडित हो रही है। जो सवाल उठा रहा है उसकी वजह से नहीं। सवाल को आप एड्रेस करिए।

अब तक उन्होंने कोई प्रेसवार्ता जनता के मुद्दों पर की हो तो बताइए। ऐसे में आपने नुपूर शर्मा हैं उनको सस्पेंड किया और उसके बाद सुरक्षा भी प्रदान कर दी। ये आपके स्टैंड को बताता है। क्या आपने रतनलाल  को सुरक्षा दी? आप के लिए कौन कहां कितना महत्वपूर्ण है ये आपके कार्य से जाहिर होता है। इसलिए मैं समझती हूँ कि वैकल्पिक मीडिया के तौर पर सोशल मीडिया हमारे लिए बहुत अच्छा है चाहे वह यू-ट्यूब हो, ट्विटर हो, फेसबुक हो, व्हाट्सऐप हो, इन्स्टाग्राम हो इन सभी के माध्यम से हम अपना पक्ष मजबूती से रख सकते हैं।

प्रश्न- हेमलता जी हमारे समाज की जो बुनियादी इकाई है वह है जाति और पितृसत्ता। वह कैसे दलितों और महिलाओं को प्रभावित कर रही है। बाबा साहेब ने हमें सपना दिखाया समता मूलक समाज का सपना। ऐसा क्या किया जाए कि भविष्य में एक समता मूलक समाज बन सके।

उत्तर— देखिये, समता मूलक समाज के जो बीज हैं वो सारे के सारे संविधान में हैं। संविधान को पूरी तरह अपने अन्दर आत्मसात किया जाए। संविधान केवल आप को अधिकार नहीं सिखाता बल्कि कर्तव्य भी सिखाता है। जैसे ही आप कर्तव्यों की पूर्ति करते हैं प्रतिपूर्ति के रूप में अधिकार आपके पास चले आते हैं। ये बहुत खूबसूरत सामंजस्य है अधिकार और कर्तव्य का संविधान में। लेकिन वर्तमान समय में संविधान को किस तरह देखा जा रहा है। क्या संविधान के अनुसार सरकार काम कर पा रही है। यदि वह काम नहीं कर पा रही तो उसके कारण क्या हैं? उसका कारण फिर से मैं देखती हूँ कि इस देश में जो वोट मांगे जा रहे हैं उसमे एक प्रमुख मुद्दा हिन्दू राष्ट्र है।

यदि किसी देश में धर्म के नाम पर किसी राष्ट्र के गठन की बात हो रही है इसका मतलब है कि वो बहुत पीछे हैं। और ये कब हो रहा है। आठ साल हुए हैं सरकार को। इन आठ सालों में ये और अधिक घनीभूत हो गया है। इसका मतलब है कि आज से पहले 67-68 साल पहले का जो देश था उसने भी संविधान की राह चलते-चलते भी कोई एक रास्ता ऐसा पकड़ा था जो हिन्दुओं के अनुकूल था। जो हिन्दुओं को सूट करता था। और इसलिए ये वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य हमको दिखाई दे रहा है। हिन्दू राष्ट्र में क्या है। हिन्दू राष्ट्र में जातियां हैं। हिन्दू राष्ट्र में पितृसत्ता है। पितृसत्ता किसी भी समाज की हो सवर्ण की आदिवासी की चाहे जहां की। निश्चित तौर पर हम हिन्दू कोड बिल के बहाने से उस पितृसत्ता से मुक्त होने के रस्ते तलाश रहे हैं। और कई लोगों ने इसको पाया  भी। कम से कम मैं तो कह ही सकती हूँ कि मैं अपने आप को पितृसत्ता से पूरी तरह  से मुक्त कर चुकी हूँ। पितृसत्ता कितनी पुरानी है। जब बुद्ध के समकालीन थेरियां भी कहती हैं कि मैं मुक्त हुई अपने कुबड़े पति से जो मुझे मारता था। ये ठोस दस्तावेज है जो ये दिखा रहीं हैं कि पितृसत्ता की जड़ें कितनी पुरानी हैं। उस पितृसत्ता में सारा का सारा समाज किस तरह जकड़ा हुआ था।

उस जकड़न को बाबा साहेब ने महसूस किया था और उन्होंने विदर्भ में जुलाई 1942 को दलित फेडरेशन की जो सभा हुई  थी उसके अगले दिन ही महिलाओं की सभा हुई थी। महिलाओं की उस सभा में जो प्रस्ताव पारित होते हैं उनको सुनकर दंग रह जाएंगे आप कि उसमे पहला प्रस्ताव ये रखा जाता है कि ये जो हमारे समाज में स्त्री-पुरुष एक दूसरे से लड़कर अलग हो जाते हैं इसके लिए क्या व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए कानून बने। तलाक की पूरी प्रक्रिया बने। स्त्रियाँ ये मांग कर रहीं थीं। स्त्रियाँ ये मांग करतीं थीं कि कारखानों में, मिल में जहां महिलाएं काम करती थीं वहां जो पुरुष सुपरवाईजर होता था उसे हटाया जाए स्त्री को रक्खा जाए। क्योंकि वो सुपरवाईजर उसका बेजा फायदा उठाता है। इन सारी दिक्कतों को आंबेडकर ने बहुत गहराई से समझा।

उनके आस-पास की स्त्रियाँ जो समस्या लेकर आ रहीं थीं उनको लेकर उन्होंने हिन्दू कोड बिल की रचना की और हिन्दू कोड बिल केवल दलित स्त्रियों के लिए हो ऐसा नहीं है। वो तो ज्यादातर गैर-दलित स्त्रियों के लिए था क्योंकि अगर पति से लड़ाई हो जाए तो दलित स्त्री के पास आज भी पति से अलग हो जाने का अधिकार है। उसको दूसरी शादी करने का भी अधिकार है लेकिन गैर दलित स्त्रियों या कहें सवर्ण जिनको  कहा जाता है उन स्त्रियों के पास ये अधिकार नहीं है। तो पितृसता की जो जड़ें थीं वो बहुत गहरी थीं और हमने उनको  तोड़ा भी। तोड़ भी रहे हैं तभी आपको स्त्रियाँ कितनी जगहों पर दिखाई दे रही हैं। एयर होस्टेज हो, पायलट हो, सैन्य अधिकारी हो, जो पहले स्त्री होने के नाते इन पदों पर नहीं रखा जाता था आजकल ये सारा फ्रेम टूटा है। आज महिलाएं अन्तरिक्ष यात्री बन रही हैं, वो चाँद पर जा रही हैं। मंगल पर जा रही हैं। स्त्री होने के कारण ये काम नहीं कर सकतीं – इन सारी चीजों को ब्रेक मिला है। वो टूटा है। इसी तरह से दलित समाज के  लोगों को अक्सर ये कह देते हैं कि यार तुम्हारे यहाँ तो आंबेडकर थे फिर भी तुम्हारे यहां पितृसत्ता है। तो वो लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि वे भी तो उसी समाज का हिस्सा थे। आज भी तो दलित आप की चाकरी कर ही रहा है।

जब भी कोई मेरे साथ कास्ट प्रैक्टिस करने लगता है तो मेरे मन में आता है कि मैं उसे बता दूं कि मैं अनुसूचित जाति से हूँ। I am from schedule caste. Are you comfortable? मुझे इस बात का एहसास होने लगता है इतनी दूर आने के बाद भी। तो पितृसत्ता का जो जाल है इसमें वह दलित व्यक्ति भी फंसा हुआ है। दलित का शिक्षा से कोई वास्ता नहीं था। धीरे-धीरे वह शिक्षित हो रहा है। और जैसे जैसे शिक्षित हो रहा है वैसे वैसे उसने अपनी बेड़ियों को तोड़ना शुरू किया है। बिलकुल इसी तरह जो जातियां हैं वो जातियां भी दलित समाज ने नहीं बनाई हैं। आपने बना कर के दी हैं तो जो आपने बनाकर के दी है उसको तोड़ने में समय तो लग रहा है बिलकुल इसी तरह जिस तरह से पितृसत्ता को तोड़ने में समय लग रहा है। पर जिन लोगों ने तोड़ दिया है उन्होंने पूरी तरह से तोड़ दिया है और हम लोगो  ने तो घोषणा ही कर रखी है कि हमारी बेटियां और हमारे बेटे अंतरजातीय, अंतर्धार्मिक ही नहीं वैश्विक विवाह करने के लिए भी स्वतंत्र हैं। क्योंकि इन्हीं चीजों से ये जाति और पितृसत्ता टूटेगी तो हमारे लिए अब ये टैबू नहीं रहा।  

(साक्षात्कारकर्ता राज वाल्मीकि सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)

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