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राजनीतिक सत्ता की जवाबदेही से जुड़ा है निष्पक्ष चुनाव आयोग का सवाल

साल 2014 के बाद के राजनीतिक परिवेश को देखा जाए तो ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जो यह बताते हैं कि चुनाव आयोग ने निष्पक्षता के साथ काम नहीं किया है। उसने वही किया है जो सरकार उससे करवाना चाहती थी।
Election Commissioners
फ़ोटो साभार: भारत निर्वाचन आयोग

सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सुनवाई चल रही है। साल 2018 में चुनाव आयोग के कामकाज में पारदर्शिता को लेकर कई याचिकाएं दायर हुईं थीं। इन याचिकाओं में मांग की गई थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त यानी सीईसी और चुनाव आयुक्त यानी इसी की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम जैसा सिस्टम बने। सुप्रीम कोर्ट ने इन सब याचिकाओं को जोड़ कर इसे 5 जजों की संविधान पीठ को भेज दिया था। सुप्रीम कोर्ट इसी मामले की सुनवाई कर रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संविधान पीठ में जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार शामिल हैं। जस्टिस केएम जोसेफ़ इस बेंच की अध्यक्षता कर रहे हैं।

इस मसले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 24 नवंबर को सरकार से पूछा कि बिजली की गति से महज़ 24 घंटे के भीतर इलेक्शन कमिश्नर के तौर पर अरुण गोयल की नियुक्ति कैसे हो गई? सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सवाल पूछा कि हम अरुण गोयल की साख़ और क़ाबिलियत पर प्रश्नचिह्न खड़ा नहीं कर रहे हैं बल्कि सरकार से यह जानना चाह रहे हैं कि 24 घंटे के भीतर किस तरह की प्रक्रिया अपना करके अरुण गोयल की नियुक्ति हुई? हमारा सवाल प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है? वह कौन सी प्रक्रिया थी 24 घंटे के भीतर पूरी कर ली गई। प्रधानमंत्री ने जिस पर 24 घंटे के भीतर सहमति जता दी।

इस पर आगे बात करने से पहले आपको बता दें। संविधान के अनुच्छेद 324 के मुताबिक़ चुनाव आयोग की नियुक्ति होती है। मुख्य चुनाव आयुक्त सहित अन्य दो चुनाव आयुक्त की नियुक्ति 6 साल के लिए होती है। अगर नियुक्ति के दिन से लेकर 6 साल के भीतर ही 65 साल की सीमा पार कर लेते हैं तो 65 साल पर उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ता है। इनकी हैसियत सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर होती है। सुप्रीम कोर्ट के जजों की जितनी सैलरी और सरकारी सुविधाएं मिलती हैं उतनी ही चुनाव आयोग के सदस्यों को भी सैलरी और सरकारी सुविधाएं मिलती है। जैसा कि नाम से साफ़ है चुनाव आयोग का काम भारत में निष्पक्ष चुनाव करवाना है। निष्पक्ष तरीक़े से चुनाव को निर्देशित नियंत्रित और नियोजित करना है।

चुनाव आयोग में कितने सदस्य होंगे? इसका जवाब भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 से नहीं मिलता है। अनुच्छेद 324 महज़ इतना कहता है कि समय बदलने के साथ-साथ राष्ट्रपति को जैसा उचित लगेगा उतनी संख्या में वह चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति कर सकते हैं। आज़ादी के बाद से लेकर साल 1989 तक इलेक्शन कमीशन के तौर पर महज एक व्यक्ति रहता था। लेकिन राजीव गांधी की सरकार आई तो इसे बड़ा करके तीन व्यक्ति कर दिया गया। साल 1990 में बदलकर फिर से एक व्यक्ति तक सीमित कर दिया गया। साल 1993 पी वी नरसिम्हा राव सरकार के दौर में अध्यादेश लाकर चुनाव आयोग के सदस्यों की संख्या तीन कर दी गई।

जस्टिस रस्तोगी ने जब सरकार से सवाल पूछा कि किस मेकैनिज्म के तहत अमित गोयल की नियुक्ति हुई है? तो सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल ने जवाब दिया टाइम टेस्टेड कन्वेंशन के तहत ही इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति हुई है। सरल भाषा में समझे तो जिस मैकनिज्म के तहत अब तक नियुक्ति होती आई है उसी मेकैनिज्म के तहत नियुक्ति हुई है। अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमनी ने कहा कि सेक्रेटरी के पद पर रह चुके सीनियर और रिटायर्ड ऑफिसर की लिस्ट बनाई जाती है। इस लिस्ट के आधार पर कुछ नामों का चयन कर प्रधानमंत्री को भेजा जाता है। प्रधानमंत्री उनमें से नाम का चयन कर राष्ट्रपति को भेजते हैं और राष्ट्रपति उसे नियुक्त कर देते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर होती है। 3 सदस्यों में से जो सीनियर सदस्य होता है उसे ही मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्त किया जाता है।

इस पर जस्टिस रोस्तगी ने कहा कि इस साल के मई के महीने से जगह ख़ाली थी। मगर ऐसा क्या हुआ कि महज़ 1 दिन के अंदर वैकेंसी भर दी गई। सरकारी काम वैसे ही बहुत धीरे-धीरे होता है मगर यह काम सुपरफास्ट रफ़्तार से कैसे हो गया? 19 नवंबर 2022 को अरुण गोयल चुनाव आयुक्त बनते हैं। गोयल 18 नवंबर को वॉलंटरी रिटायरमेंट लेते हैं और अगले ही दिन चुनाव आयुक्त बना दिए जाते हैं। यानी सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई शुरू करने के दूसरे ही दिन यानी 19 नवंबर को।

जस्टिस रस्तोगी ने कहा कि 24 घंटे के भीतर आवेदन आया 24 घंटे के भीतर प्रोसेस भी निपटा दिया गया 24 घंटे के भीतर क्लीयरेंस मिल गया और 24 घंटे के भीतर एक्सेप्टेंस भी हो गया। यह कैसे संभव है?

आप खुद सोच कर बताइए कि देश का चुनाव आयोग कैसा होना चाहिए? क्या देश का चुनाव आयोग ऐसा होना चाहिए जो सत्ता की दखल अंदाज़ी को स्वीकार करता हो? या देश का चुनाव आयोग ऐसा होना चाहिए जो किसी भी तरह के दबाव से मुक्त हो? अगर देश में चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं होगा तो चुनाव का कोई मतलब रह जाएगा? क्या चुनाव आयोग ऐसा होना चाहिए जो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के दबाव से झुक जाए? क्या वह ज़मीन तैयार हो पाएगी जिस ज़मीन पर खेल के नियम सबके लिए बराबर होते हैं और हार-जीत के परिणाम पर कोई सवाल नहीं उठा पाता?

भारत में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगाने वाले अनगिनत उदाहरण है। मगर कुछ उदाहरणों को याद करना चाहिए। अप्रैल 2019 में, उड़ीसा के संबलपुर के चुनाव पर्यवेक्षक के तौर पर कार्यरत आईएएस अफ़सर मोहम्मद मोहसिन का निलंबन याद कीजिए। मोहम्मद मोहसिन ने चुनावी रैली के दौरान प्रधानमंत्री के हेलीकॉप्टर की छानबीन की। इसकी वजह से प्रधानमंत्री का हेलीकॉप्टर 15 मिनट बाद उड़ा। मोहम्मद मोहसिन को इसका इनाम यह मिला कि उनका निलंबन कर दिया गया। सरकार की तरफ से सवाल खड़ा किया गया जिन्हें एसपीजी सिक्योरिटी मिली होती है उनकी छानबीन नहीं की जा सकती है। विपक्ष के कई नेताओं ने जवाब दिया कि उन्हें भी एसपीजी सिक्योरिटी मिली है और उनकी भी छानबीन हुई है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके एचडी कुमारस्वामी ने कहा कि चुनाव के दौरान उनकी गाड़ी की छानबीन हुई। उन्होंने तो ऐसा कुछ भी नहीं कहा। न ही छानबीन पर आपत्ति जताई।

साल 2019 के चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आचार संहिता के उल्लंघन के 5 मामले दर्ज हुए। चुनाव आयोग ने साफ़ तौर पर कहा था कि सेना का नाम लेकर और धार्मिक अभिव्यक्तियों के सहारे वोट नहीं मांगा जाएगा। मगर प्रधानमंत्री रुकने वाले कहां थे? उनके चुनावी हथियार के तो यही दो ब्रह्मास्त्र थे। इसे लेकर कि उन्होंने कई सभाओं में जमकर भाषण बाज़ी की। चुनाव आयोग का नियम होता है कि तीनों सदस्यों की वोट की हैसियत बराबर होती है। अगर तीनों सदस्य में से एक भी असहमति दर्ज करता है तो इसका मतलब यह है कि आचार संहिता के उल्लंघन का जो आरोप लगा है उसे लेकर के क्लीनचिट नहीं दी गई है। उस समय मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर सुनील अरोड़ा थे। और दो अन्य चुनाव आयुक्त के तौर पर अशोक लवासा और सुशील चंद्रा थें। चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने प्रधानमंत्री से जुड़े आचार संहिता के उल्लंघन के 5 मामलों पर असहमति ज़ाहिर की। मतलब प्रधानमंत्री को किसी भी मामले में क्लीन चिट नहीं हासिल हुई। अशोक लवासा के घर पर इनकम टैक्स का छापा पड़ा। उनकी पत्नी की संपत्ति की छानबीन की गई। पेगासस जासूसी कांड से निकल कर आया कि अशोक लवासा की भी छानबीन की जा रही थी।

साल 2014 के बाद के राजनीतिक परिवेश को देखा जाए तो ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जो यह बताते हैं कि चुनाव आयोग ने निष्पक्षता के साथ काम नहीं किया है। उसने वही किया है जो सरकार उससे करवाना चाहती थी। कहने का मतलब यह है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता की ज़मीन पूरी तरह से ज़र्ज़र हो चुकी है। इस ज़र्ज़र ज़मीन को सुधारने के लिए सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।

अब अंतिम सवाल यही उठता है कि क्या चुनाव आयोग की नियुक्ति से जुड़ी प्रक्रिया पूरी तरह निष्पक्ष हो सकती है? क्या चुनाव आयोग के तौर पर नियुक्त सदस्य पूरी तरह से निष्पक्ष व्यवहार कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब देना बहुत मुश्किल है।

संस्थाएं किस तरीक़े से काम करेंगी, इसका पूरा दारोमदार नियुक्त व्यक्ति के साथ इस बात पर भी निर्भर होता है कि उस समय की राजनीतिक परिस्थिति क्या है? राजसत्ता किस तरह का व्यवहार पसंद करती है और किस तरह का व्यवहार कर रही है? नरेंद्र मोदी सरकार का जिस तरह का कामकाज है वह यह कामकाज बताता है कि 24 घंटे क्या 24 दिन भी लगा दिया जाता तो चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्त के तौर पर निष्पक्ष चुनाव नहीं होता।

कॉलेजियम जैसे सिस्टम से चुनकर जिस तरह के सुप्रीम कोर्ट के जज बनते हैं, उनका हाल भी यह बताता है कि कॉलेजियम जैसे सिस्टम से भी निष्पक्षता नहीं हासिल की जा सकती है। कहने का मतलब यह है कि संस्थाओं की कर्तव्यनिष्ठता इस बात पर निर्भर होती है कि सरकारों की कर्तव्यनिष्ठा कैसी है? कठोर प्रक्रियाएं भले बना दी जाए मगर उसे पालन करने वाले ही अगर भ्रष्ट होंगे तो उन कठोर प्रक्रियाओं से कुछ भी हासिल नहीं होगा। मगर फिर भी अगर कठोर प्रक्रियाएं बनती हैं और उनका पालन करने के लिए ज़ोर दिया जाता है तो कहीं ना कहीं निष्पक्षता के क़रीब पहुंचने की कोशिश की जा सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को क्या सवाल पूछना चाहिए। चुनाव आयोग की नियुक्ति पर तो सुनवाई कर रही है लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुनवाई करने के लिए क्यों नहीं तैयार हो रही है? जबकि इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुनवाई करना चुनाव आयोग की नियुक्ति से जुड़ी पारदर्शिता की याचिका पर सुनवाई करने से ज़्यादा ज़रूरी है।

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