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यह महंगाई नहीं, सरासर लूट है!

कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल में 16 मर्तबा संसद में महंगाई के सवाल पर बहस हुई। उससे पहले एनडीए सरकार के छह वर्ष के कार्यकाल में भी 8 मर्तबा इस सवाल पर संसद में बहस हुई थी। लेकिन 17वीं लोकसभा के चार सत्र बीत चुके हैं लेकिन एक भी सत्र में महंगाई पर कोई चर्चा नहीं हुई।
महंगाई
Image courtesy: The Financial Express

वैसे तो पिछले लंबे समय से अर्थव्यवस्था के क्षेत्र से आ रही लगभग सभी खबरें निराश करने वाली ही हैं, लेकिन इन दिनों बेरोजगारी में इजाफे के साथ ही सबसे बड़ी और बुरी खबर यह है कि आम आदमी को महंगाई से राहत मिलने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं।

अनाज, दाल-दलहन, चीनी, फल, सब्जी, दूध इत्यादि आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं। फिलहाल अंदेशा यही है कि कीमतें बढ़ने का सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। ऐसे में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों की इस मार को महंगाई कहना उचित या पर्याप्त नहीं है। यह साफ तौर पर बाजार द्वारा सरकार के संरक्षण में जनता के साथ की जा रही लूट-खसौट है।

ऐसा नहीं कि महंगाई का कहर कोई पहली बार टूटा हो। महंगाई पहले भी होती रही है। जरूरी चीजों के दाम पहले भी अचानक बढ़ते रहे हैं, लेकिन थोड़े समय बाद फिर नीचे आए हैं। लेकिन इस समय तो मानो बाजार में आग लगी हुई है। वस्तुओं की लागत और उनके बाजार भाव में कोई संगति नहीं रह गई।

इस मामले में आम आदमी लाचार और असहाय होते हुए जिस सरकार से आस लगाए हुए है कि वह कुछ करेगी, वह सरकार सिर्फ निर्गुण विकास और राष्ट्रवाद का बेसुरा राग अलापते हुए जनता को आत्मनिर्भर बनने की नसीहत दे रही है।

सरकार की नीतियों से महंगाई बढ़ती जा रही है और वह खुद भी आए दिन पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाकर और अपनी इस करनी को देश के आर्थिक विकास के लिए जरूरी बता कर आम आदमी के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है।

इस दोहरी मार ने आम आदमी के भोजन के इंतजाम को इकहरा कर दिया है। हालांकि पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने पर सरकार की ओर से सफाई दी जाती है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें पेट्रोलियम कंपनियां तय करती हैं और उन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है।

यह दलील पूरी तरह बकवास है, क्योंकि हम देखते हैं जब भी किसी राज्य में चुनाव चल रहे होते हैं तो उस दौरान कुछ समय के लिए पेट्रोल-डीजल के दाम स्थिर हो जाते हैं या उनमें मामूली कमी आ जाती है। जैसे ही चुनाव प्रक्रिया खत्म होती है, पेट्रोल-डीजल के दाम फिर बढ़ने लगते हैं।

बहरहाल सरकार की ओर से आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में उछाल के जो भी स्पष्टीकरण दिए गए हैं, वे कतई विश्वसनीय नहीं हैं। पिछले साल मानसून कमजोर रहा या पर्याप्त बारिश नहीं हुई, ये ऐसे कारण नहीं हैं कि इनका असर सभी चीजों पर एक साथ पड़े।

इसका सबसे बडा प्रमाण यह है कि कीमतें इतनी ज्यादा होने के बावजूद बाजार में किसी भी आवश्यक वस्तु का अकाल-अभाव दिखाई नहीं पड़ता। जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती हैं और उनकी कालाबाजारी शुरू हो जाती है। अभी न तो जमाखोरी हो रही है और न ही कालाबाजारी। हो रही है तो सिर्फ और सिर्फ बेहिसाब-बेलगाम मुनाफाखोरी। लगता है मानो सरकार या सरकारों ने अपने आपको जनता से काट लिया है। यह हमारे लोकतंत्र का बिल्कुल नया चेहरा है- घोर जननिरपेक्ष और शुद्ध बाजारपरस्त चेहरा।

तीन दशक पहले तक जब किसी चीज के दाम असामान्य रूप से बढ़ते थे तो सरकारें हस्तक्षेप करती थीं। यह अलग बात है कि इस हस्तक्षेप का कोई खास असर नहीं होता था, क्योंकि उस मूल्यवृद्धि की वजह वाकई उस चीज की दुर्लभता या अपर्याप्त आपूर्ति होती थी। यह स्थिति पैदा होती थी उस वस्तु के कम उत्पादन की वजह से।

अब तो सरकारों ने औपचारिकता या दिखावे का हस्तक्षेप भी बंद कर दिया है। वे बिल्कुल बेफिक्र हैं- महंगाई का कहर झेल रही जनता को लेकर भी और जनता को लूट रही बाजार की ताकतों को लेकर भी।

कुछ साल पहले तक महंगाई पर लगाम लगाने के मकसद से रिजर्व बैंक भी हरकत में आता था और अपने स्तर पर कुछ कदम उठाता था, लेकिन अब महंगाई उसकी चिंता के दायरे में नहीं आती। उसकी स्वायत्ता का अब अपहरण हो चुका है। अब उसका पूरा ध्यान सरकार के दुलारे शेयर बाजार को तंदुरुस्त बनाए रखने और सरकार की गड़बड़ियों को छुपाने में लगा रहता है।

महंगाई को लेकर सिर्फ सरकार ही नहीं, बल्कि समूची राजनीति उदासीन बनी हुई है। पहले जब महंगाई बढ़ती थीं तो उस पर संसद में चर्चा होती थी। विपक्ष सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा करता था। सरकार भी महंगाई को लेकर चिंता जताती थी। वह महंगाई के लिए जिम्मेदार बाजार के बड़े खिलाड़ियों को डराने या उन्हें निरुत्साहित करने के लिए सख्त कदम भले ही न उठाती हो, पर सख्त बयान तो देती ही थी। लेकिन अब तो ऐसा भी कुछ नहीं होता।

कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल में 16 मर्तबा संसद में महंगाई के सवाल पर बहस हुई। उससे पहले एनडीए सरकार के छह वर्ष के कार्यकाल में भी 8 मर्तबा इस सवाल पर संसद में बहस हुई थी। लेकिन 17वीं लोकसभा के चार सत्र बीत चुके हैं लेकिन एक भी सत्र में महंगाई पर कोई चर्चा नहीं हुई। विपक्ष की ओर से ओर से किसी ने यह मुद्दा उठाने की कोशिश की भी तो उसे सत्तापक्ष की नारेबाजी और शोरगुल में दबा दिया गया।

अब तो सरकार की ओर से महंगाई को विकास का प्रतीक बताया जाता है और इस पर सवाल उठाने वालों को विकास विरोधी करार दे दिया जाता है। पिछले दिनों दिवंगत हुए रामविलास पासवान ने तो खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री की हैसियत से कुछ समय पहले यह सलाह भी दे डाली थी कि अरहर की दाल महंगी है तो लोग खेसारी दाल खाना शुरू कर दें।

मक्कारी और बेशर्मी की हद तो यह है कि एक कारोबारी योगगुरू ने तो यह भी नसीहत दे डाली थी कि ज्यादा दाल खाने से मोटापा बढ़ता है इसलिए लोग दाल का सेवन ज्यादा न करें। तो सरकारी पक्ष के मूर्खता और मक्कारी से युक्त ऐसे बयान मुनाफाखोरों को लूट की खुली छूट ही देते हैं।

अगर इस महंगाई का कुछ हिस्सा उत्पादकों तक पहुंच रहा होता या अनाज और सब्जी उगाने वाले किसान मालामाल हो रहे होते, तब भी कोई बात थी। लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा है। इस अस्वाभाविक महंगाई का लाभ तो बिचौलिए और मुनाफाखोर बड़े व्यापारी उठा रहे हैं।

अगर सरकार को जनता से जरा भी हमदर्दी या उसकी तकलीफों का जरा भी अहसास हो तो वह अपने खुफिया तंत्र से यह पता लगा सकती है कि कीमतों में उछाल आने की प्रक्रिया कहां से शुरू हो रही है और इसका फायदा किस-किसको मिल रहा है। यह पता लगाने में हफ्ते-दस दिन से ज्यादा का समय नहीं लगता। लेकिन अभी तो कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी की ऐसी कोई व्याख्या या वजह उपलब्ध नहीं है जो समझ में आ सके। ऐसा लगता है कि मानो किसी रहस्यमय शक्ति ने बाजार को अपनी जकड़न में ले रखा है, जिसके आगे आम जनता ही नहीं, सरकार और प्रशासन तंत्र भी असहाय और लाचार है।

सरकार अगर चाहे तो वह इस समय बढ़ते दामों पर काबू पाने के लिए दो तरह से हस्तक्षेप कर सकती है। पहला तो यह कि अगर बाजार के साथ छेड़छाड नहीं करना है तो सरकार खुद ही गेंहू, चावल, दलहन, चीनी आदि वस्तुएं भारी मात्रा में बाजार में उतार कर कीमतों को नीचे लाए। ऐसा करने से उसे कोई रोक नहीं सकता, बशर्ते उसमें ऐसा करने की मजबूत इच्छाशक्ति हो।

हस्तक्षेप का दूसरा तरीका यह है कि बाजार पर योजनाबद्ध तरीके से अंकुश लगाया जाए। इसके लिए उत्पादन लागत के आधार पर चीजों के दाम के दाम तय कर ऐसी सख्त प्रशासनिक व्यवस्था की जाए कि चीजें उन्हीं दामों पर बिके जो सरकार ने तय किए हैं। लेकिन सरकार ऐसा करेगी नहीं, क्योंकि जब उसने कृषि उपज के समर्थन मूल्य निर्धारित करने की नीति खत्म कर उसे भी बाजार के हवाले कर दिया है तो उससे यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह बाजार में बिकने वाली वस्तुओं की अधिकतम कीमतें तय करेगी?

वैसे मीडिया की सर्वव्यापकता और सक्रियता के दौर में किसी भी सरकार के लिए निर्धारित कीमतों पर चीजें बिकवाना कोई मुश्किल काम नहीं है। ऐसा करने का नकारात्मक नतीजा यह हो सकता है कि कुछ दिनों के लिए आवश्यक वस्तुएं बाजार से गायब ही हो जाएं। बाजार बनाम सरकार का असली मोर्चा यही होगा।

इस मोर्चे पर सरकार को बिचौलियों, जमाखोरों और सट्टेबाजों के खिलाफ सख्ती से पेश आना होगा, क्योंकि चीजों का बनावटी अभाव पैदा कर उनके दामों में मनमानी बढ़ोतरी यही लोग करते है। प्रशासन में अगर थोड़ी भी हिम्मत और संकल्पशक्ति हो तो वह बाजार को निरंकुश होने से रोक सकता है। ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि सरकार अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाएगी लेकिन कुछ हद तक तो कामयाब होगी।

कीमतों का स्वभाव होता है कि एक बार चढ़ने के बाद वे बहुत नीचे नहीं आती। इस बार भी ऐसा ही होने का अंदेशा है। जब कीमतों में बढ़ोतरी रुपी सुनामी की लहरें थम जाएंगी, तब सामान्य स्थिति में भी लोग दोगुनी कीमतों पर आटा, दाल, चावल, चीनी आदि खरीद रहे होंगे। इसलिए अभी अगर सरकार की ओर से कारगर हस्तक्षेप नहीं हुआ तो आने वाले समय पर इस महंगाई की विनाशकारी काली छाया पड़ना तय है।

यह हस्तक्षेप अकेले केंद्र सरकार नहीं कर सकती। इसमें राज्य सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। खासतौर पर जमाखोरों, मुनाफाखोरों और कालाबाजारियों पर लगाम कसने के मामले में कमान राज्य सरकारों के हाथों में होती है।

बहरहाल अभी तो सरकारों की ओर कुछ भी होता नहीं दिख रहा है। जाहिर है कि जन सरोकारी व्यवस्था की लगाम सरकार के हाथ से छूट चुकी है, जिसकी वजह से महंगाई का घोड़ा बेकाबू हो सरपट दौड़े जा रहा है। सब कुछ बाजार के हवाले है और बाजार की अपने ग्राहक या जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है।

यह नग्न बाजारवाद है, जिसका बेशर्म परीक्षण किया जा रहा है। सवाल यही है कि अगर सब कुछ बाजार को ही तय करना है तो फिर सरकार के होने का क्या मतलब है? सरकारों को यह याद रखना चाहिए कि हद से ज्यादा बढ़ी महंगाई कभी-कभी सरकारों को भी मार जाती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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