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कश्मीरी माहौल की वे प्रवृत्तियां जिनकी वजह से साल 1990 में कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ

राजनीतिक किरदारों के अलावा साल 1990 से पहले के समाज की हवाओं का रुख कैसा था? कश्मीरी समाज की दशा और दिशा कैसी बन रही थी?
kashmir
Image courtesy : The Indian Express

दुख और दर्द को आंकड़ों में बयान नहीं किया जा सकता है। लेकिन फिर भी आंकड़ों के बारे में सोचा जाना चाहिए क्योंकि आंकड़े हमारी समझ को एक ऐसे बिंदु पर भी ले जाते हैं जहां पर दुख और दर्द नहीं ले जा पाते। आंकड़े कहते हैं कि उत्तर प्रदेश की आबादी तकरीबन 23 करोड़ के आसपास है, बिहार की आबादी तकरीबन 12 करोड़ के आसपास है, जम्मू कश्मीर की आबादी मुश्किल से 1.5 करोड़ के आसपास है।

दुख दर्द परेशानी और तकलीफ के लिहाज से देखा जाए तो बिहार और उत्तर प्रदेश में भी भयंकर परेशानियां हैं। शिक्षा, सेहत, रोजगार, सांप्रदायिकता से जुड़ी मानवता को बर्बाद करने वाली परेशानियां हैं.

मगर इन सब परेशानियों को दरकिनार कर उत्तर भारत को कश्मीर पर अधकचरे ढंग से सोचने के लिए फंसाया जाता है।  पाकिस्तान से सटे होने और बहुसंख्यकों के तौर पर मुस्लिम बहुल आबादी से भरे पड़े जम्मू कश्मीर का इस्तेमाल उत्तर भारत की राजनीति हिंदू-मुस्लिम दरार पैदा करने में करती रहती है।

राजनीति के तौर पर जम्मू कश्मीर का इस्तेमाल होने की वजह से जम्मू कश्मीर के बारे में भारत में सच से ज्यादा झूठ के बहस का कारोबार चलता है। सत्ता का लगाम चूंकि दक्षिणपंथी लोगों के हाथ में है, इसलिए वे अपने चेलों के जरिए सच का सीरा उस ओर घुमाने की कोशिश में लगे रहते हैं, जिससे उन्हें अपनी तरफ वोट की गोलबंदी करने में आसानी हो। कश्मीरी पंडितों के ऊपर बनी फिल्म कश्मीर फाइल्स को लेकर चर्चाओं का बाजार गरम है। तो चलिए चर्चाओं के बाजार में खुद को बर्बाद होने से बचाने के लिए मोटे तौर पर उन प्रवृत्तियों से परिचित होते हैं, जिन्होंने साल 1990 तक के कश्मीरी समाज के माहौल को गढ़ने में भूमिका निभाई है। 

कश्मीरी पंडितों के पलायन को लेकर अगर हम केवल साल 1990 की जनवरी महीने की घटनाएं को देखेंगे तो बहुत गलत निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। इसके लिए उस पूरे इतिहास को समझना होगा जिसकी वजह से  साल 1990 की दुर्भागयपूर्ण घटना घटी।

इतिहास को देखते हुए हम एक गलती और करते हैं कि केवल राजनितिक व्यक्तियों और उनके कृत्यों को देखते हैं, यह नहीं देखते हैं कि समाज की दशा और दिशा क्या थी? वह किस तरह की करवट से गुजर रहा था।

एक वक्तवय से समझिए।  साल 1968 में इंदिरा गाँधी से शिकायत के लहजे में जम्मू कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री ग़ुलाम मोहम्मद सादिक ने कहा था कि अगर मैं आपसे कहूं कि सुरक्षा के लिहाज से एक और कंपनी की जरूरत है तो आप तुरंत भेज देंगी, लेकिन अगर मैं आपको दो फैक्ट्रियों के लिए कहूं तो आप 20 कारण गिना देंगी कि ऐसा नहीं किया जा सकता है। ऐसे में आप बताइये कि हमारे नौजवान क्या करेंगे?

1970 का दशक आते-आते कश्मीर की जनता का असंतोष कई तरह की परेशानियों से बढ़ता जा रहा था। कश्मीर की राजनीति दिल्ली की गुलाम बन चुकी थी। शासन प्रशासन में लोकल्याण से ज्यादा लूटकर मालामाल होने की भावनाएं फैली हुई थीं। आर्थिक पिछड़ापन कश्मीरी नौजवानों के असंतोष को लगातार बढ़ा रहा था। 

अगर राजनीति में इन सबका प्रतिनिधित्व हो पाता तो बात अलग होती। लेकिन इन सब परेशनियों की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का स्पेस सिकुड़ता जा रहा था।  इसलिए इन सबकी अभिव्यक्ति आजादी के नारे और फिर हथियारों से संघर्ष में तब्दील हो चुकी थी। जम्मू क्षेत्र पर सरकारी  खर्च अधिक होता था और कश्मीर पर कम। उद्योगों का विकास न होने की वजह से नौकरी के लिए सारी निर्भरता सरकारी नौकरी पर थी। जैसे -जैसे समय आगे बढ़ रहा था असंतोष भी अधिक होते जा रहा था।

भारत में जब जनता नाराज होती थी तो सरकार बदल सकती थी। लेकिन जम्मू कश्मीर की जनता का सारा गुस्सा अंदर ही अंदर बारूद बन रहा था। इन सबका परिणाम यह हुआ कि भारत विरोधी भावनाएं अपनेआप पनप रही थी, जिसका फायदा भारत विरोधी ताकतें उठा रही थीं। 1987 के चुनावों में धांधली ने भारत विरोधी ताकतों को और अधिक हवा दी। 

भारत विरोधी ताकतों के तौर पर देखा जाए तो कश्मीर में दो संगठन थे। पहला, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, यह संगठन भारत और पाकिस्तान दोनों के खिलाफ था। आजाद कश्मीर के सपने को साकार करने के लिए सशस्त्र लड़ाई में सक्रिय था। इस संगठन को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से पाकिस्तान का साथ मिल रहा था।

बाद में जब पाकिस्तान को लगने लगा कि यह संगठन बहुत लम्बे समय तक पकिस्तान के मंसूबो के लिए मददगार नहीं हो सकता है तो पाकिस्तान ने इस काम के लिए हिज्बुल मुजाहिदीन को चुना। हिज्बुल मुजाहिदीन जमात-ए-इस्लामी का हथियारबंद मोर्चा था। इस संगठन का काम कश्मीर में उन भावनाओं के एकजुट करने से जुड़ा था जो कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के समर्थक बने। जेकेएलएफ के  'कश्मीर बनेगा खुदमुख्तार' के बरक्स हिजबुल का नारा था 'कश्मीर बनेगा पाकिस्तान'।

अगर सरकार ढंग से काम करती तो इसे रोक सकती थी। जम्मू कश्मीर के जनता को भरोसे में लाकर  जम्मू कश्मीर में पैदा हो रही समाजिक दरार को पाट सकती थी। लेकिन सरकार की तो हालत तो ऐसी थी कि उसके बारे में ट्रिब्यून के संपादक लिखते हैं कि श्रीनगर में आम मान्यता थी कि वह दिल्ली के आदेश के बिना सरकार नहीं चला सकते और विडंबना यह थी कि दिल्ली के मदद के बावजूद भी वह सरकार नहीं चला पा रहे थे।

इस तरह से मोटे तौर कर देखा जाए तो साल 1990 से पहले जम्मू कश्मीर में तीन तरह के विचार तैर रहे थे। पाकिस्तान समर्थक विचार (जिसमें वह विचार भी शामिल था जो पूरी दुनिया में इस्लामिक विश्व या निजाम-ए-मुस्तफा बनाने के जंग का हिस्सा था), आजाद कश्मीर से जुड़ा विचार और भारत समर्थित विचार। पाकिस्तान समर्थक विचार और आजाद कश्मीर से जुड़ा विचार यह दोनो हथियार के जरिए संघर्ष में भरोसा करते थे। और उन सब पर हमले कर रहे थे जो उन्हें भारत समर्थक लगता था। इसमें  हिंदू, मुस्लिम और सिख सब शामिल थे। बदले में भारत सरकार का सुरक्षा बल कारवाई करता था। यानि कश्मीर में ऐसा माहौल बन गया था जिसमें आए दिन कहीं न कहीं मौत की वारदातें होती रहती थीं। इसके ऊपर नफरत की बयार चलती रहती थी। 

पीएलडी परिमू लिखते हैं कि साल 1989 से आतंकवादियों की रणनीति यह थी कि कोई भी व्यक्ति जो राज्य के प्राधिकार का प्रतिनिधि था, आतंकवादियों के मकसद से सहमत नहीं था और शांतिपूर्ण समाधान की तरफ लोगों की सोच मोड़ सकता था, आतंकवाद और पाकिस्तान की योजनाओं के खिलाफ था, निशाना बन गया।

इंडियन इंटेलीजेंस ब्यूरो के निदेशक दुलत लिखते हैं कि 1989-90 के दौरान श्रीनगर भुतहा शहर जैसा हो गया था। हत्याएं रोजमर्रा की चीज बन गयीं थीं। बमबाजी और फायरिंग अब मुख्यमंत्री के आवास के पास सबसे सुरक्षित इलाके में होने लगी थी। हथियार लहराते हुए नौजवान शहर में निकलने लगे थे।  शहर के केंद्रीय इलाके में आतंकवादी परेड करते थे। राज्य सरकार जम्मू में थी। शहर में इंटेलीजेस के लोगों को छोड़कर शायद ही कोई केंद्रीय कर्मचारी बचा था।

इन सबके बीच राजनीति पूरी तरह से फेल हो रही थी। बंदूक और नफ़रती  विचार से बन रहे नफरत के हवाओं के बीच नफरत और बंदूक को रोकने लिए सरकार का कड़ा कदम उठाना कहीं से भी गलत नहीं था। लेकिन केवल हथियार के दम पर सरकार पूरे समाज का भरोसा नहीं जीत सकती। साल 1990 में अंग्रजी के अखबारों में लिखा जा रहा था कि राज्यपाल जगमोहन के जरिए अपनाई गई कड़ी नीतियां प्रतिकूल साबित हो रही हैं। कश्मीर के लोगों को भारत से दूर कर रही है। यह संभव है कि कश्मीर में रह रहे अलगाववादियों को बंदूक के दम पर दबा दें, लेकिन कश्मीर में रह रहे 35 लाख लोगों का भरोसा बंदूक के दम पर नहीं जीता जा सकता है।

एक अल्पसंख्यक समाज के तौर कर सदियों से कश्मीरी पंडित कश्मीरी मुसलमान के साथ रहते आ रहे थे। आजादी के बाद नफरती हवाओं की वजह से जैसे-जैसे कश्मीर का माहौल खराब होते जा रहा था, मुस्लिम और पंडितों के बीच मतभेद और मनभेद भी बढ़ता जा रहा था। मुस्लिम और पंडितों के बीच साथ-साथ रहने की वजह से जो सहकार विकसित होता है, वह तो हमेशा से था। दोनों की  संस्कृति एक थी। भाषा एक थी और कश्मीरी होने का आत्मसमान भी था। लेकिन यह जुड़ाव सहयोग और प्रेम के पुलों के बीच नफरती हवाओं का भार भी बढ़ रहा था।

आजादी के बाद हरी सिंह की विदाई शेख अब्दुल्ला के सत्ता में आने के बाद समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग का ताना बाना बदलने लगा था। आजादी से पहले सरकारी नौकरियों में पंडितों का दबदबा था। पंडितों के खेतों और घरों में कश्मीरी मुसलमान काम करता था। लेकिन आजादी के बाद कश्मीरी नौजवानों ने पढ़ने-लिखने की दुनिया में हिस्सा लिया तो वह सरकारी नौकरियों से लेकर समाज के वर्चस्वावली पदों पर पंडितों को चुनौती देने लगा था। समाज के इस उथल पुथल की वजह से पारंपरिक ताना बाना टूटने लगा था। लेकिन फिर भी किसी ने यह उम्मीद नहीं की थी कि हालात ऐसे बदल जायेंगे कि पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ेगी।

इस्लाम के इर्द गिर्द भारत विरोध का जिस तरह का माहौल जम्मू कश्मीर में बना था उसमें यह स्वाभाविक था कि पंडित सहित हिंदू समाज के लोग खुद को उसमें शामिल ना कर पाएं। यही हुआ भी। धारणाओं की दुनिया में पंडित अलग थलग कर दिए गए। भारत सरकार के मुखबिरी के आरोप में पंडितों की हत्याएं भी हुईं। धार्मिक धारणाएं इतनी मजबूत बन चुकी थी कि हत्याएं भारत समर्थक हिंदू, मुस्लिम, सिख सबकी हो रही थीं, लेकिन धर्म की दरार की वजह से ज्यादातर चर्चा का केंन्द्र पंडितों की हत्याएं बनी. 

ऊपर लिखी सारी बातें बहुत मोटी-मोटी बातें है। एक दुर्घटना से जुड़ी मोटी ऐतिहासिक प्रवृत्तियां हैं। उन किरदारों का उल्लेख नहीं है, जिनकी कश्मीर के इतिहास में अहम भूमिका है। एक लेख में सब कुछ समेटना नामुमकिन काम है। लेकिन फिर भी इतिहास की उन प्रवृत्तियां को आम पाठक तक पहुंचाने की कोशिश की गई है जिनकी वजह से साल 1990 में कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ। कितनी संख्या में हुआ और कब तक हुआ? इसके बारे में अगले लेख में बात करेंगे। अंत में चलते-चलते एक बात और कि इस दौरान केवल कश्मीरी पंडितों का पलायन नहीं हुआ, केवल कश्मीरी पंडित अपना घर छोड़कर दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर नहीं हुए बल्कि बड़े स्तर पर मुस्लिमों का भी पलायन हुआ मुस्लिमों की तरफ से बड़ी संख्या में लोग घर छोड़कर दूसरे जगह जाने के लिए मजबूर हुए। इस लेख में कश्मीरी पंडितों के पलायन को जायज़ ठहराने की कोशिश नहीं की गई है, केवल उन कारणों की पड़ताल करने की एक कोशिश है जिसने कश्मीर समाज से पंडितों को पलायन के लिए मजबूर किया।

नोट : इस लेख की जरूरी जानकारियां अशोक कुमार पाण्डेय की किताब कश्मीर और कश्मीरी पंडित से ली गई हैं।

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