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फिर बेपर्दा मोदी सरकारः स्वप्न दास गुप्ता हों या जस्टिस अरुण मिश्रा

बात बोलेगी: मोदी सरकार के हर नए कदम की पिछले कदम से तुलना करके, कौन-सा कदम हमारे लोकतंत्र, लोकतांत्रिक ढांचे के लिए ज़्यादा ख़तरनाक है—यह बताना इस समय का सबसे मुश्किल सवाल है।
Swapan Das Gupta and Justice Arun Mishra

जिस तरह से प्याज के छिलके उतरते हैं, परत-दर-परत, ठीक उसी तरह से केंद्र की मोदी सरकार परत-दर-परत बेपर्दा होती ही जा रही है। उसके हर नए कदम की पिछले कदम से तुलना करके, कौन-सा कदम हमारे लोकतंत्र, लोकतांत्रिक ढांचे के लिए ज्यादा खतरनाक हैयह बताना इस समय का सबसे मुश्किल सवाल है। एक के बाद एक संविधान, नियम-कायदे कानून की धज्जियां पूरी निर्लज्जता से उड़ाई जाती हैं और फिर उसे नया नॉर्मल करार दिया जाता है।

मोदी सरकार के सात सालों में इस तरह के न्यू नार्मल की फेहरिस्त बहुत लंबी है। उसमें दो और नये जुड़े हैं। पश्चिम बंगाल के चुनावों में हारे हुए स्वप्न दास गुप्ता को दोबारा राज्यसभा सांसद नामित किया गया उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए राज्यसभा सांसद पद से इस्तीफा देना पड़ा था। इधर वह चुनाव हारे और उधर दोबारा उन्हें राष्ट्रपति ने उनके इस्तीफे से ही खाली हुई सीट पर दोबारा नामित कर दिया। यह गुल, भारतीय इतिहास में पहली बार खिला। घर की मुर्गी है संसदजब मन चाहा, नामित सीट से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ लिये और हार गये तो सीट तो मोदी जी ने रिजर्व ही कर रखी है न, वापस बैठ गये। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि राज्यसभा में राष्ट्रपति जिन सदस्यों को नामित करता हैवह अब तक अलग-अलग क्षेत्रों में महारत रखते हैं। सामान्य तौर पर ये गैरराजनीतिक हस्तियां होती हैं। पर मोदी जी तो वाह मोदी जी वाह मोदी जी वाले प्रधानमंत्री हैंदेखिए अपने भक्ति में डूबे पत्रकार को सांसद बनाया (जो पहले भी होता रहा है) फिर बंगाल में ममता के किले को ध्वस्त करने के लिए विधानसभा चुनाव लड़वा दिया, हार गये तो जो सीट छोड़कर गये थे, उसी पर वापस बैठवा दिया।

ऐसे में संविधान, नियम कायदा कानून सब धराशाही हो गये।  

इसी तरह से मोदी सरकार ने अपनी तारीफ के पुल बांधने वाले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मुखिया बना दिया। एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के सार्वजनिक आयोजन में जस्टिस अरुण मिश्रा ने प्रधानमंत्री मोदी को बहुमुखी प्रतिभा का धनी (versatile genius) बताया और भूरि-भूरि प्रशंसा करके सबको हतप्रभ कर दिया था।

वे अपने तमाम फैसलों, मोदी सरकार से करीबी रिश्तों के लिए कुख्यात रहे। तमाम राजनीतिक रूप से संवेदनशील केसों में उन्होंने केंद्र सरकार का पक्ष लिया। मानवाधिकार संस्था -पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) ने अपने बयान में बाकायदा इस बात का उल्लेख किया है कि किस तरह से जस्टिस अरुण मिश्रा ने आदिवासियों के अधिकारों का हनन करने वाला फैसला दिया और वह मानवाधिकार विरोधी फैसलों के लिए ही जाने गये। राजनीतिक रूप में संवेदनशील केसों में उन्होंने हमेशा केंद्र की मोदी सरकार के पक्ष साथ रहे, चाहे वह लोया केस, सहारा बिड़ला भ्रष्ट्राचार केस, संजय भट्ट केस, हीरेन पांड्या केस या फिर सीबीआई के भीतरी संघर्ष का मामला, या भीमाकोरगांव केस में आनंद तेलतुमड़े और गौतम नौलखा का मामला हो। इस तरह के अनगिनत मामले हैं।

सबसे बड़ी बात यह कि सामान्य तौर पर, एक परंपरा रही है अब तक कि सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया जाता है, लेकिन जब मामला अपने चहेते, तारीफ के पुल बांधने वाले न्यायाधीश को सेट करने को हो, तो फिर देर किस बात की और चीफ जस्टिस को कौन पूछता है। गौर करने की बात है कि सुप्रीम कोर्ट आने के बाद से जस्टिस अरुण मिश्रा ने मोदी सरकार को राहत देने वाले तमाम फैसले सुनाए। सिर्फ इतना ही नहीं उन्होंने अडानी समूह को फायदा पहुंचाने वाले ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसे अडानी को 8000 करोड़ रुपये का अंतिम तोहफा के रूप में याद किया जाएगा। 2 सितंबर 2020 को रिटायर होने वाले जस्टिस अरुण ने जाते-जाते 31 अगस्त के नेतृत्व वाली बेंच ने बिजली नियंत्रकों द्वारा अडानी पावर को 8000 करोड़ रुपये के टैरिफ मुआवजा देने का फैसला किया था। यह जस्टिस मिश्रा के नेतृत्व वाली बेंच का 2019 से 2020 तक सांतवा फैसला अडानी समूह के पक्ष में आया।

मिसाल बेमिसाल है मोदी सरकार की। पूरी कोशिश करके सारी संस्थानों को जेबी संस्थाओं में उन्होंने बदल डाला। और, कोई भी कितना ही विरोध क्यों न करेपरवाह किसे हैं। मोदी जी के मन की बात ही नया नार्मल है।

(भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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