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यूपी चुनाव को लेकर बड़े कॉरपोरेट और गोदी मीडिया में ज़बरदस्त बेचैनी

यदि यूपी जैसे बड़े राज्य में गैर भाजपा सरकार बन जाती है तो जनता के बुनियादी सवाल और आर्थिक मुद्दे देश की राजनीति के केंद्र बिंदु बन जाएंगे।
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दिग्गज कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित गोदी मीडिया आम जनता के असली मुद्दों और आर्थिक सवालों को चुनावी बहस से बाहर करने के लिए पूरे जोर शोर से जुट गया है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए ज़हरीला प्रचार पूरे समय किया जा रहा है। गोदी एंकरों की भाषा  और अंदाज़ से कई बार यह समझना मुश्किल हो जाता है कि भाजपा की चुनावी लड़ाई असल में सपा व अन्य विपक्षी दलों से है या सिर्फ मुसलमानों से ? 

इसकी कई वजहें है, जिनमें से एक तो यह है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव व अन्य विपक्षी पार्टियों के नेता प्रचंड बेरोज़गारी, गरीबी, महंगाई, किसानों व युवाओं की समस्याओं के साथ-साथ कोरोना काल में सरकार की नाकामी आदि जैसे मुद्दों को पूरी शिद्दत से उठा रहे हैं। गोदी मीडिया की लाख कोशिशों के बाद भी विपक्षी नेता सांप्रदायिक और भावनात्मक मुद्दों के जाल में नहीं फंस रहे हैं।

दूसरे पिछड़े, दलित समुदायों में सामंती व पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति गुस्सा फूट पड़ा है। उन्हें एहसास हो गया है कि जिस तरह से देश में सरकारी उपक्रमों व संपत्तियों का निजीकरण किया जा रहा है उससे न सिर्फ रोजगार घटेगें बल्कि उन्हें जो आरक्षण की सुविधा मिली हुई थी, वह भी खत्म हो जाएगी। ऐसे में उनकी नई पीढ़ी का भविष्य क्या होगा ? 

पिछले दिनों यूपी में टीचर भर्ती में एससी व ओबीसी कोटे की सीटों के साथ जो कुछ किया गया, वह भी सबसे सामने है। लोग यह भी देख रहे हैं कि पिछले कुछ अर्से से चंद पूंजीपतियों की संपत्तियों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, जबकि देश की आम जनता  निरंतर गरीब होती जा रही है। समाज का एक तबका है, जो दो वक्त की रोटी भी नहीं कमा पा रहा है। देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।

लोगों में इस चेतना को जगाने का काम काफी हद तक किसान आंदोलन ने भी किया है, क्योंकि घोर पूंजीवाद और निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों की लूट के खिलाफ आवाज़ उसी मंच से बुलंद हुई थी। अब इसका असर यूपी समेत 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में दिख रहा है।

जानकारों का तो यहां तक कहना है कि यूपी के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्मराज सैनी समेत पिछड़े वर्ग के तमाम नेताओं ने अपने समर्थकों के मिज़ाज को भांपने के बाद ही भाजपा से अलग होने का फैसला लिया है। उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि यदि कुर्सी से चिपके रहे तो, नीचे जमीन खिसक जाएगी। भाजपा से बगावत के बाद इन नेताओं ने जिस तरह से 85 व 15 का नारा दिया उससे कुछ लोग इसे परंपरागत मंडल की राजनीति से जोड़ कर देख रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि सामाजिक न्याय की लड़ाई अब आर्थिक न्याय की तरफ बढ़ती नजर आ रही है।

पढ़े-लिखे दलित व पिछड़े वर्ग के युवा सत्ता और संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं। सत्ताधारी पार्टियों को यह समझना होगा कि अब बड़े से रंगीन थैले में चंद किलो अनाज, शौचालय और गैस सिलेंडर जैसी सांकेतिक चीज़ों या शगूफे बाजी से काम नहीं चलने वाला है।

गोदी मीडिया का यह प्रचार बिल्कुल हजम नहीं होता है कि पिछड़े वर्ग के नेता सिर्फ अपने कुछ करीबियों को टिकट नहीं मिलने से नाराज थे। स्वामी प्रसाद मौर्य का ही उदाहरण लिया जाए तो, उनका टिकट तो पहले से ही पक्का था, जबकि बेटी संघमित्रा मौर्य वर्तमान में सांसद हैं। सिर्फ बेटे को टिकट नहीं मिलने के कारण वे भाजपा से पंगा क्यों लेंगे? इसी तरह चौहान और सैनी का भी टिकट नहीं कटने वाला था।

यूपी व पंजाब समेत अन्य चुनावी राज्यों में जमीनी स्तर पर जिस तरह का माहौल बन रहा है उससे बड़े कॉरपोरेट और उसके तहत काम करने वाले गोदी मीडिया में जबरदस्त बेचैनी है। उन्हें यह डर सता रहा है कि यदि यूपी जैसे बड़े राज्य में गैर भाजपा सरकार बन जाती है तो जनता के बुनियादी सवाल और आर्थिक मुद्दे देश की राजनीति के केंद्र बिंदु बन जाएंगे।

जातीय जनगणना की मांग तो तेज हो ही चुकी है। संभव है कि आने वाले दिनों में निजी क्षेत्र में आरक्षण का मुद्दा भी गरमा जाए। यदि ऐसा होता है तो इसका असर अगले साल होने वाले विधानसभा और उसके बाद वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। यही कारण है कि गोदी मीडिया ने पूरी आक्रामकता और बेशर्मी के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए माहौल तैयार करना शुरू कर दिया है।

साथ ही बड़ी चालाकी के साथ परोक्ष रूप से बीच-बीच में यह भी बताने की कोशिश की जा रही है कि भाजपा के भीतर जो भी जो भी उठापटक चल रही है और पिछड़े व दलित वर्ग के नेताओं में जो नाराजगी पैदा हुई है, उसका कारण मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार की एंटी इनकंबेंसी है। इसमें मोदी सरकार कहीं से भी जिम्मेदार नहीं है, क्योंकि वह तो सिर्फ विकास कर करती है। इस बात को साबित करने के लिए कुछ टीवी चैनल तरह-तरह के सर्वे भी जारी कर रहे हैं, जिसमें यह बताया जा रहा है कि मोदी की लोकप्रियता बहुत ज्यादा है और उनकी सरकार के कामकाज से लोग काफी खुश हैं।

एक चैनल ने तो यूपी के बारे में दावा किया है कि वहां 75 फीसदी लोग  पीएम मोदी के काम से संतुष्ट हैं। वहीं चैनल यह भी बताता है कि यूपी में 49 फीसदी लोग योगी के कामकाज से संतुष्ट हैं। इसी तरह के सर्वे कुछ और टीवी चैनलों ने भी जारी किए हैं।

सवाल उठता है कि यूपी चुनाव से ठीक पहले इस तरह का सर्वे दिखाने की जरूरत क्यों पड़ रही है ? और ‘डबल इंजन’ की बात करने वाले लोग एक इंजन को दूसरे इंजन से 26 फीसदी नीचे दिखाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? किसके बचाव के लिए कवच तैयार किया जा रहा है और किसके सिर ठीकरा फोड़ने की तैयारी की जा रही है? 

बहरहाल, इस सर्द मौसम में यूपी का सियासी पारा लगातार चढ़ता जा रहा है। अंतिम चरण की वोटिंग 7 मार्च को है। इसी बीच क्या-क्या होता है, सभी की निगाहें लगी हुई हैं।    

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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